अपने-अपने दिनक्रमों की व्यस्तस्ता, स्वयं की उन्नति और स्वार्थ तक सीमित क्रियाकलापों ने हिंदू समाज को संगठन की शक्ति से वंचित कर दिया है। धार्मिक आयोजनों के अलावा अन्य कहीं भी हिंदू एक साथ एक छत्र के नीचे आते दिखाई नहीं देते। राम मंदिर निर्माण के समय एकत्रित हुआ समाज मतदान के समय या वक्फ बोर्ड जैसे अवैध रूप से पांव पसारने वाले कारक का विरोध करने के समय कहां चला जाता है?
रा. स्व. संघ का बहुत प्रचलित गीत है –
शिव तो जागे किंतु देश का शक्ति जागरण शेष है।
देव जुटे यत्नों में लेकिन असुर निवारण शेष है॥
वैसे तो यह सम्पूर्ण गीत ही वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का दर्पण है परंतु हर अंतरे की अंतिम पंक्ति को देखें तो आज समाज में किस-किस तरह के शक्ति जागरण की आवश्यकता है, यह स्पष्ट होता जाता है।
शक्ति अर्थात बल, ताकत। जागरण अर्थात केवल तात्कालिक जागना नहीं अपितु सदैव जागृत रहना। अत: शक्ति जागरण का अर्थ हुआ अपनी शक्ति को सदैव जागृत रखना। हिंदू समाज में शक्ति का जागरण ज्वार के समान चढ़ता है और भाटे के समान कुछ समय में उतर भी जाता है और समाज पुन: निद्रित अवस्था में चला जाता है। अब तो धीरे-धीरे हमारी निद्रा भी इतनी गहरी हो रही है कि आस-पड़ोस में घटित होने वाली घटनाएं भी हमें नहीं झकझोरतीं। हमारे दलित बंधुओं का हिंदू समाज से कटना, हमारी माताओं-बहनों की अस्मत का लुटना, हमारे इतिहास का गलत बखान, मुसलमानों द्वारा नियमित तथा उग्र रूप से अलग-अलग प्रकार के जिहाद करके हमें धमकाना, ईसाईयों द्वारा कराया जाने वाला शांतिपूर्ण कन्वर्जन इनमें से किसी भी बात का हमारे समाज मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
कलियुग में ‘संघेशक्ति कलियुगे’ अर्थात संगठन की शक्ति को वास्तविक शक्ति कहा गया है। परंतु आज हिंदू समाज में यह संगठन शक्ति दिखाई ही नहीं देती। समाज कई मौकों पर सोया हुआ दिखाई देता है। अपने-अपने दिनक्रमों की व्यस्तस्ता, स्वयं की उन्नति और स्वार्थ तक सीमित क्रियाकलापों ने हिंदू समाज को संगठन की शक्ति से वंचित कर दिया है। धार्मिक आयोजनों के अलावा अन्य कहीं भी हिंदू एक साथ एक छत्र के नीचे आते दिखाई नहीं देते। राम मंदिर निर्माण के समय एकत्रित हुआ समाज मतदान के समय या वक्फ बोर्ड जैसे अवैध रूप से पांव पसारने वाले कारक का विरोध करने के समय कहां चला जाता है? आज हर हिंदू को धातु के शस्त्र उठाने की आवश्यकता नहीं है परंतु बौद्धिक शस्त्र उठाना और समय आने पर सामूहिक रूप से उसका उपयोग करना बहुत आवश्यक है, इसलिए गीत के पहले अंतरे की अंतिम पंक्ति है सामुहिक आर्यत्व शक्ति का आयुध धारण शेष है…।
जब-जब हिंदू समाज की शक्ति क्षीण हुई, जब-जब वह बंटा है, तब-तब कटा है। हमारा पूरा इतिहास इसका साक्षी है। परंतु यदि इतिहास ही गलत पढ़ाया जाए तो अपनी संस्कृति पर गर्व कैसे होगा? और उसे बचाने के प्रयत्न भी कैसे होंगे? भारत के नेता विपक्ष राहुल गांधी राष्ट्र के बाहर जाकर राष्ट्र विरोधी बातें करते हैं, भीतरघात करने वालों से दोस्ती करते हैं, भारत की अस्मिता पर चोट करते हैं, ऐसी बातें करते हैं जैसे वो भारतीय हैं ही नहीं, परंतु तब हम समाज के रूप में क्या करते हैं? जातिगत आंदोलन करने की एक पुकार पर लाखों की भीड़ रास्ते पर दिखाई देती है, परंतु राष्ट्र विरोधी बातों के विरोध में कितने लोग खड़े होते हैं? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम अभी भी समाज के रूप में पूर्ण भारतीय ढ़ांचे में नहीं ढले हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी समाज के एक बड़े भाग का मस्तिष्क मिशनरियों के अनुसार ही चल रहा है। इसलिए कहा गया है ‘गोरा शासन गया दास्य का जड़ का कारण शेष है….।’
शक्ति जागरण के लिए चैत्र और शारदीय नवरात्रि सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती हैं क्योंकि इन दिनों में शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा की पूजा की जाती है। आज हिंदू समाज इन कर्मकांडों को तो भलीभांति संजो रहा है लेकिन आस-पास की महिलाओं की अस्मत भी लुटते देख रहा है। क्या समाज इतना नपुंसक हो गया है कि वह इन अपराधियों को दंड देने का साहस भी नहीं जुटा सकता? ऐसे क्रूर और अक्षम्य अपराध करने वाले लोग छूट कैसे रहे हैं? क्या हर व्यक्ति ऐसी घटना अपने घर में होने की राह देख रहा है? ये सारे प्रश्न समाज के सामने हैं और इसलिए गीत में कहा गया है ‘द्रुपद सुता का चीर उतरता संकट तारण शेष है…।’
हिंदू समाज भगवानों के अवतारों या जन्म पर विश्वास रखता है। वह हमेशा सोचता है कि ‘कोई तो’ हमारा तारणहार बनकर आएगा। ‘कोई तो’ हमें संकटों से बचाएगा। परंतु समाज यह क्यों नहीं सोचता कि वह ‘कोई तो’ भी समाज की शक्ति के कारण ही विजय प्राप्त कर पाया था। श्रीराम भी रावण पर इसलिए विजय प्राप्त कर सके क्योंकि उनके साथ वानर सेना थी, जिसके पास शायद रावण जैसी तकनीक नहीं थी परंतु संगठन था और अपने नेतृत्व पर असीम विश्वास था। श्रीकृष्ण ने तो शस्त्र ही नहीं उठाया तो क्या महाभारत केवल पांच पांडवों के कारण जीत लिया गया। महाभारत में सत्य की विजय इसलिए हुई क्योंकि धर्म के साथ लोगों का संगठन था।
युद्ध कभी भी बिना संगठन या बिना शस्त्रों के नहीं लड़े जाते। समय बदलता है तो शस्त्रों में भी परिवर्तन आता है और संगठन के प्रगटीकरण में भी, परंतु दोनों का मूल समान रहता है और वह है अपने समाज व राष्ट्र का, उसकी परम्पराओं का और उसके भविष्य का रक्षण। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संगठन जमीन पर भी आवश्यक है और आभासी दुनिया में भी क्योंकि आक्रमण कभी भी, कहीं से भी हो सकता है। हिंदू समाज के रूप में हम चाहे जितने प्रयास कर लें युद्धाभिमुख रहने के परंतु बाकी लोग युद्ध के लिए तत्पर हैं और यदि हमें युद्ध जीतना है तो युद्ध करना ही होगा, हर वार का पलटवार करना होगा और अपना वार करने के लिए भी तैयार होना होगा। इसलिए कहा गया है…..शंखनाद हो चुका युद्ध का जय उच्चारण शेष है…।
सामाजिक निष्क्रियता पर सटीक टिप्पणी, शक्ति सामर्थ्य और वर्तमान समाज की निष्क्रियता पर विवेचनात्मक लेख, शिक्षित समाज की अपने ऊपर हो रहे सामाजिक हमलों में किसी भी प्रकार के विरोध की अनुपस्थिति को अपने सामाजिक कर्त्तव्यों को तिलांजली देना ही कहना पड़ेगा, उत्सव तक जैसे तैसे अपनी भावनाए जागृत रखना और बाद में स्वार्थ सिद्धि में गुम हो जाना कौनसा देशप्रेम है।
Shyamkant Deshpande
तथ्यात्मक , सटीक और हिन्दू धर्म की वर्तमान अवस्था का स्पष्ट विश्लेषण। आज समाज मे जो निष्क्रियता का दौर छाया हुआ है उससे मुक्ति का सटीक उल्लेख I व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा हेतु स्वयं की रक्षा भी उतनी ही महत्व पूर्ण है। लेखिका ने तथाकथित सभ्य हिन्दू समाज की सामाजिक समझ का भी अच्छा उदाहरण दिया है, क्या जिहाद जैसे विषय पर हमारा युक्ती बौध हमारे भयभीत रहने का उदाहरण नहीं है। शक्ति जागरण के इस पर्व पर हम अपना शौर्य प्रदर्शन करे यही is लेख का सार है,
लेखन निरंतर रखे
सद्य परिस्थिति तथा आवश्यकता का सही विश्लेषण, अंतर्मुख कराता लेख🙏
बहुत बढ़िया लेख है।
वर्तमान स्थिति एवं वास्तविकता पर सटीक विश्लेषण
बहुत अच्छा लिखा है