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उत्सव समाज जागृति का प्रतिबिम्ब

by अमोल पेडणेकर
in अक्टूबर २०२४, ट्रेंडींग, विशेष
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भारत का सांस्कृतिक इतिहास किताबों के पन्नों में नहीं, बल्कि इसके जीवंत उत्सवों में लिखा गया है। इसलिए हमें प्रत्येक त्योहार का ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व जानना चाहिए। क्योंकि त्योहारों का सम्बंध न केवल तन और मन के स्वास्थ्य से है बल्कि आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय हितों की संतुष्टि से भी है। यदि मानव जीवन को पारिवारिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तर पर अधिक से अधिक समृद्ध बनाना है तो हमारे त्योहारों के दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखना होगा।

 भारतीय उत्सवों में नवरात्र, उत्सव का अपना महत्त्व है। भारत के सभी प्रांतों में नवरात्र, का त्योहार मनाया जाता है। बंगाल में दुर्गा पूजा, राजस्थान में गणगौर, गुजरात में गरबा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में रामलीला, महाराष्ट्र में भोंडला, असम-त्रिपुरा में रासलीला आदि धार्मिक समारोह नवरात्र के दिनों में होते हैं। पूजा का स्वरूप जो भी हो पर उसकी विविधता में आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता के पोषण करने वाले सभी तत्वों का समावेश होता है। अपने हिंदू धर्म में सभी त्योहार हमेशा सकारात्मकता की ऊर्जा लेकर आते हैं। साल भर में सम्पन्न होने वाले सभी त्योहार हमें जीने की राह दिखा रहे हैं। यही कारण है कि इतने वर्षों के बाद भी ये त्योहार और उत्सव उसी उत्साह के साथ मनाए जाते हैं।

हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं में, जनमानस के जीवन में उत्साह वृद्धि, संस्कारों के प्रोत्साहन एवं संस्करण के लिए दो प्रधान आधार हैं। एक संस्कार, दूसरा पर्व-त्योहार। इसी कारण हिंदू समाज में पर्व-त्योहारों की परम्परा अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह प्रक्रिया समाज को सामूहिक रूप से सुसंस्कृत एवं संगठित करने की है। इसे ठीक तरह संचालित करने के कारण ही प्राचीनकाल से अब तक उत्सव एवं पर्व का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

भारत का सांस्कृतिक इतिहास किताबों के पन्नों में नहीं, बल्कि इसके जीवंत उत्सवों में लिखा गया है। इसलिए हमें प्रत्येक त्योहार का ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व जानना चाहिए। क्योंकि त्योहारों का सम्बंध न केवल तन और मन के स्वास्थ्य से है बल्कि आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय हितों की संतुष्टि से भी है। यदि मानव जीवन को पारिवारिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तर पर अधिक से अधिक समृद्ध बनाना है तो हमारे त्योहारों के दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखना होगा।

मनीषियों ने पर्वों एवं त्योहारों की परम्परा इसलिए रची थी कि समय-समय पर समाज के विविध वर्ग एक स्थान पर मिलें। समाज को जागृत करने के लिए जनसमूह को एकत्र करने की आवश्यकता होती है। उन्हें अपनी आत्मीयता के सूत्रों को अधिक सघन और सुदृढ़ बनाने का सुअवसर उत्सव के माध्यम से मिल सके। समाज में संगठन लाने के लिए भी इन अवसरों का प्रयोग किया जाता है। कम समय में अधिक लोगों में चेतना उत्पन्न की जा सकती है। इसी कारण उत्सवों के माध्यम से विविध कार्यक्रमों के आयोजन होते रहते हैं।

लोक-चेतना को सही दिशा में अग्रसर रखने का यह काम सदैव जारी रखना होता है। हमारी समस्याओं की उत्पत्ति और उसकी निरसन तो सनातन है, उसे अनवरत रूप से जारी रखना होता है। यह कार्य तो दैनिक है उन्हें कभी विराम नहीं मिल सकता। समस्याएं हर घड़ी उत्पन्न होती हैं तो उसका परिमार्जन भी नित्य होना आवश्यक है। इसमें समय का अंतर उत्पन्न होगा तो फिर बढ़ी हुई अराजकता बहुत सारा नुकसान ही उत्पन्न करेगी। प्रवृत्तियों को ऊंचा रखने के लिए लोक-शिक्षण चाहिए। मनुष्यों को यदि धर्म नीति आधारित संवाद न मिले तो उसकी दुष्टता चरम सीमा पर पहुंच सकती है और जो कुछ सुंदर है, सुखद है, उसका पूरी तरह समापन हो सकता है।

पर्व-त्योहारों को मनाते समय हम मिष्ठान, पकवान बनाने, छुट्टी मनाने, नए कपड़े, परिधान बनाने जैसी छिटपुट बातों में हम व्यस्त हैं। उत्सवों की महान परम्परा का प्रचलन करने वालों के सामने दूसरा ही दृष्टिकोण था। उनका वास्तविक स्वरूप वर्तमान की सामाजिक एवं राष्ट्रीय निद्रा के कारण भविष्य में उपस्थित होने वाले समस्याओं  का संज्ञान समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाना, व्यक्ति समाज को अपने सामाजिक एवं राष्ट्रीय कर्तव्य हेतु जागृत करने के लिए उत्सवों के माध्यम से सामूहिक समारोहों का आयोजन होता था। सामाजिक जागरूकता निर्माण करने के लिए उत्सवों को उसी रूप में मनाने की परिपाटी वर्तमान में प्रारम्भ करना आवश्यक है।

वसंतोत्सव, होली, गणेशोत्सव, नवरात्र उत्सव, दशहरा, गुरुपूर्णिमा, कृष्ण जन्मोत्सव, विजयादशमी के समारोह हर जगह मनाए जाते हैं। इनमें से एक भी उत्सव ऐसा नहीं है, जिसे कोई अकेला व्यक्ति मना सके। इन उत्सवों को विधि-विधान पूर्वक सम्पन्न करना और आनंद उठाना मिल-जुलकर ही संभव हो सकता है। इन दिनों दीपावली पारिवारिक उत्सव मात्र बनकर रह गई है, पर प्राचीन स्वरूप उसका भी होली-पूजन की तरह सामूहिक ही था। अभी भी धनतेरस, गणेशोत्सव, भाईदूज, गोपालष्टमी, आषाढ़ एकादशी आदि कई पर्व दीपावली से मिले-जुले हैं और वे प्रायः सामूहिक रूप से ही मनाए जाते हैं। कुछ पर्व ऐसे भी हैं, जो प्रांतीय-क्षेत्रीय रूप में ही विशेषतः मनाए जाते हैं। हिमाचल प्रदेश और पंजाब में मकर संक्रांति और बैसाखी का बड़ा महत्त्व है। महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी की धूम देखते ही बनती है। ब्रज की होली का स्वरूप ही अनोखा है। इसी प्रकार विभिन्न प्रांतों में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार के पर्व-त्योहार होते हैं। अवतारों, देवपुरुषों और महापुरुषों की जयंती भी उनके अनुयायी समारोहपूर्वक मनाते हैं। रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, महावीर जयंती, नानक जयंती आदि के आयोजन भी पर्व-त्योहार में गिने जा सकते हैं। ये सभी त्योहार सामूहिक रूप से मनाते हैं। जातियों-उपजातियों के अपने-अपने त्योहार हैं। कुछ क्षेत्रों में आध्यात्मिक संत ऐसे हुए हैं, जिनके जन्मोत्सव अथवा निर्वाणोत्सव मनाए जाते हैं। अग्रवाल वैश्य राजा अग्रसेन की जयंती धूमधाम से मनाते हैं और अन्य लोग भी उसमें उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं। इसी प्रकार के कई त्योहार अन्यान्य जातियों के भी हैं।

हमारे सभी उत्सव विधियां प्रतीकात्मक हैं। उत्सव के माध्यम से बताई जाने वाली पौराणिक कहानियां बचपन में सुनाई जाती हैं। उनसे मिलने वाला संदेश, अचेतन रूप से गहरी जड़ें जमा लेते हैं। बचपन के ये संस्कार मन को संयमी और विवेकशील बनाते हैं।

वर्तमान में पर्व-त्योहारों में अति भीड़ जमा होना, दर्शन-झांकी करना, ध्वनि प्रदूषण करने वाले डीजे लगाना, आंखों को चकाचौंध करने वाले लाइटिंग, बड़े-बड़े पंडाल बनाकर या बड़े-बड़े जुलूस निकालकर सड़कों पर यातायात को बाधित कर देने जैसी समस्या अब विकराल रूप धारण कर चुकी है। यहां तक कि दही हांडी में भी रिकॉर्ड बनाने के और अपनी बहादुरी के प्रदर्शन करने के नाम पर गलत तरीके से काम किए जाते हैं। गरबा और डांडिया जो नवरात्र में देखने को मिलता है जिसमें आपसी स्नेह, सौहार्द्र बढ़ाने और सम्बंधों को सुमधुर बनाने का यह पावन पर्व जब हिंसक वारदातों, दुर्घटनाओं का कारण बन जाए, यह अत्यंत दुःख की बात है। विचारशीलों को चाहिए कि पर्व-त्योहारों को स्वस्थ्य और सही स्वरूप में प्रस्तुत करें।

हमें यह सोचना चाहिए कि ये जो त्योहार आधुनिक समय में मनाए जाते हैं, क्या वह सही तरीके से मनाए जाते हैं? पिछले कुछ वर्षों या दशकों में इन त्योहारों और उत्सवों का स्वरूप बदल गया है। इससे इन त्योहारों और उत्सवों का मूल स्वरूप और उद्देश्य लुप्त होता जा रहा है। इन त्योहारों और उत्सवों में नवीनता और आधुनिकता के नाम पर कई गलत प्रथाएं, गलत बातों की जड़ें जमाती नजर आ रही हैैं। त्योहारों और समारोहों की पवित्रता को नष्ट किया जा रहा है। जिनसे सामाजिक मानस पुनः प्रदूषित होता है। दरअसल, इन त्योहारों और उत्सवों को मनाने का मूल उद्देश्य सभी को पता होना चाहिए। आज ये त्योहार अपने उत्सवी स्वरूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते चले गए हैं, लेकिन उनका उद्देश्य क्या है या आज का युवा कितना जानता है? ये सवाल सोचने पर मजबूर करने वाला है।

सदियों से लेकर 30-40 सालों पहले तक ये सभी उत्सव जन-सम्मेलन के माध्यम थे, जिनमें नियत समय, नियत स्थान पर लोग बिना निमंत्रण के अपने आप बड़ी संख्या में पहुंचते थे। उन्हें सुयोग्य मार्गदर्शकों द्वारा सामयिक एवं चिरस्थायी समस्याओं के समाधान का उद्बोधन दिया जाता था। आज तो छोटे-छोटे जनसमूह एकत्र करने में भी प्रचार व आमंत्रणों में ढेरों शक्ति खर्च करनी पड़ती है, तब कहीं कुछ लोग आ जाते हैं। तब यह सब झंझट बिलकुल भी नहीं करनी पड़ती थी। उत्सवों के आयोजन एवं नियोजन की व्यवस्था भी अपने आप सहज ही बनती चली जाती थी। लेकिन आज उत्सवों के नियोजन में राजनीतिक एवं समाजिक गलत धारणाओं का प्रवेश हो गया है। इस कारण लोगों की सामूहिक – सामाजिक उत्सव के प्रति रुचि कम होती जा रही है।

कई लोग व्यक्तिगत व्रत-उपवास, जप-अनुष्ठान, पूजा-पाठ भी करते हैं, किंतु प्रचलन उत्सवों को सामूहिक रूप में मनाने का ही है। उन मान्यताओं के साथ तालमेल बैठाते हुए व्यक्ति को ऊंचा उठाने वाला और समाज को आगे बढ़ाने वाला लोक-शिक्षण हमारे पारम्परिक व्रत एवं उत्सवों से भली भांति सम्पन्न हो सकता है। भारतीय संस्कृति के सभी उत्सव असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर बढ़ने का त्योहार है।

यदि उत्सवों के माध्यम से रूखे सूखे उपदेश दिये जाते तो लोग उनसे कतरातेे, लेकिन त्योहारों और प्रतीकों के प्रयोग से यह संस्कृति हमारे जीवन में रच-बस गई है। त्योहारों से मन प्रसन्न होता है, पारिवारिक रिश्ते मजबूत होते हैं, सामाजिक जागरूकता का विस्तार होता है। हमें इससे सही सबक लेना चाहिए। आज के युग में वैचारिक सीमाओं को लांघकर उसके अनुरूप आचरण करना अपेक्षित है। हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में आत्मबल, संगठन शक्ति, अन्याय निवारण का स्रोत निर्माण हो यही उत्सव का मुख्य उद्देश्य है। सदियों से चले आ रहे इसी उद्देश्य के कारण उत्सव का पर्व श्रेयस्कर रहा है। त्योहार मनाते समय व्यक्तिगत सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर सही संतुलन होना चाहिए। हमारे सभी त्योहार व्यक्ति, परिवार, समाज के संगठन मूल्यों को स्थापित कर उसी के आधार पर राष्ट्र का हित साधने के उद्देश्य से मनाने आवश्यक हैं। यह सच है कि त्योहार का मतलब ‘धमाल’, ‘मौजमस्ती’ है लेकिन इसे ‘उन्माद’ में नहीं बदलना चाहिए। आज की हमारी पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जरूरतों को ध्यान में लेकर  उत्सव के संदर्भ में अगली पीढ़ी में यह धैर्य और विवेक पैदा करना समय की मांग है।

 

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