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प्रशांत किशोर बनेंगे दूसरा केजरीवाल

प्रशांत किशोर बनेंगे दूसरा केजरीवाल

by हिंदी विवेक
in अक्टूबर २०२४
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प्रशांत किशोर ने अपनी राजनीतिक यात्रा शुरु करते समय म. गांधी, डॉ. लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय आदि महापुरुषों के नाम की भरपूर भुनाया। बड़े-बड़े विकास और बदलाव की बात कर इन्होंने अपने समर्थन में एक बड़ा वर्ग तैयार किया। हिंदू जनता के कल्याण की बात ती की जी खोखली लगी, लेकिन दिल में मुस्लिमों के प्रति अति संवेदना रखी।

‘नया मुल्ला प्याज कही ज्यादा खाता है’ ये कहावत पुरानी है, किंतु इसकी प्रासंगिकता हमेशा के लिए है। वर्तमान में ये बात प्रशांत किशोर के लिए 100 प्रतिशत प्रासंगिक है। राजनीति के नौसिखिए पी.के वैसे तो मूलतः चुनाव सर्वेक्षणकर्ता हैं किंतु राजनैतिक दलों के बीच आत्मविश्वास की कमी और चेहरे चमकाने की होड़ ने इन्हें अतिशय प्रसिद्धि दिलाई है। इस नाते ये एक सफल चुनावी प्रबंधन एवं योजनाकार के रूप में भी उभरे। जिसके उपरांत इनकी उबाल मारती राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने एक नए राजनैतिक मंच की गुंजाइश पैदा की जिसे जनसुराज नाम दिया गया। इससे पहले की इस मंच की बात करें इनके बयानों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है। बिहार में राजनीतिक जमीन तलाश रहे प्रशांत इन दिनों सीएए, एनआरसी और वक्फ संशोधन बिल को लेकर बेहद मुखर हैैं। इनके अनुसार ये सभी कानून मुस्लिम विरोधी हैं। जो भी राजनैतिक दल इससे सहमति रखते हैं वे निश्चित ही मुसलमानों के शत्रु हैैं। जबकि इन मुद्दों पर प्रबल विरोध नहीं करने वाला विपक्ष भी इस समुदाय का शुभचिंतक नहीं है। ऐसे में पूरे समुदाय की ये जिम्मेदारी बनती है कि आगामी चुनावों में सम्पूर्ण मत इनको ही जाए। इसके लिए इन्होंने घोषणा भी की है कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में ये चालीस मुस्लिम प्रत्याशी को चुनावी मैदान में उतारेंगे। इसके साथ ही प्रशांत की मस्जिद एवं मजारों पर जाने वाली यात्राएं शुरू हो गईं। ऐसे कई वीडियो सामने आए हैैं जिसमें वे नमाज पढ़ते सजदा करते दिखे हैं।

अपने मंच से लेकर कई जगहों के दौरों तक मुस्लिम तौर तरीकों का भरपूर पालन करते दिख रहे हैं। इसमें मुसलमानी तहजीब के कपड़े और कुरान की आयतों के भरपूर उपयोग तक सब दिखाई दे रहा है। इसकी भी सम्भावना है कि तुष्टिकरण की आड़ मे इनकी अगली मांग समान नागरिक संहिता के विचार के विरोध में न सामने आए। कही ये लगे हाथ शरीयत विधानों को संविधान सम्मत एवं कानूनी रूप से लागू किए जाने की मांग न कर बैठे। बात इनके मंच जनसुराज की करें तो यह जन स्वराज्य का संक्षिप्त नाम है। इसे इन्होंने महात्मा गांधी से सम्बध मान कर प्रचारित किया है। इसका गठन गांधी जयंती के अवसर पर 2 अक्टूबर 2022 में बिहार के भितिहरवा ग्राम में किया गया था। पश्चिमी चम्पारण जिले के इसी ग्राम से महात्मा गांधी ने चम्पारण सत्याग्रह का प्रारम्भ किया था। अतएव इसे ध्यान में रखकर इन्होंने एक पदयात्रा की शुरुआत की थी। उन्हें लगभग 3 हजार किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए बिहार के सभी जिलों में जाना था। इसे गांधी विचार यात्रा कह कर प्रचारित किया गया। बहुसंख्यक लोगों को लगा कि यह तो सिद्धांत विचार एवं शुचिता वाली राजनीति की पहली यात्रा है। यह गांधी के रामराज्य, डॉ लोहिया के समाजवाद और भारतभक्ति तथा दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म व मानवाद विचार की यात्रा है। यही लोग इन विचारों को जमीन पर उतारेंगे। प्रशांत किशोर शुरुआत से ही जानते थे कि इन महापुरुषों के नाम को भरपूर भुनाया जा सकता है। इनके अनुयायियों के बल पर समर्थकों का एक बड़ा वर्ग तैयार किया जा सकता है। जबकि सर्वसमावेशी विकास और प्रशासन एवं राजनीति के पुराने ढर्रों में बदलाव की बात करके इन्होंने निश्चित ही एक बड़ा जमावड़ा तैयार किया है। ऐसे में जहां नए लोगों को इनके विचार बेहद आकर्षक लगे। वहीं म. गांधी, लोहिया और पं. दीनदयाल के वैचारिक अनुयायियों के लिए यह एक नया प्रयोग था। जबकि राजनैतिक दलों के तौर तरीकों से क्षुब्ध कार्यकर्ता एवं नेताओं के लिए अब ये उनका नया आशियाना है।

कल्पनाओं और सपनों को बेचने में माहिर पी. के. ने सभी को सत्ता में आने का भरोसा दिला दिया है। वैसे इनकी ये सारी रणनीति और वक्तव्यों को देखते हुए इनके दूसरे अरविंद केजरीवाल होने की प्रबल सम्भावना है। बस दो अंतर हैैं पहला केजरीवाल भ्रष्टाचार विरोधी एक आंदोलन को भुना कर नेता बने थे और वो सत्ता में आने के पूर्व मुस्लिम तुष्टिकरण के पहले भारतभक्ति का प्रदर्शन दिखाते रहे हैं। जबकि प्रशांत संसाधनों के अत्यधिक व्यय के बावजूद किसी भी आंदोलन को खड़ा नहीं कर पाए हैं। दूसरी ओर इनका जोरदार मुस्लिम प्रेम निश्चित ही इनके बहुसंख्यक बहुतायत वोटों को इनसे दूर करेगा। ये जिस बिहार में बदलाव की बात करते हैं वो वैश्विक तौर पर शिक्षा और सांस्कृतिक पर्यटन के आकर्षण का केंद्र रहा है। क्या इन्होंने कभी इसकी इस विरासत एवं पहचान को लेकर कोई प्रयास किया है? यहां शिक्षा एवं स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था ही नहीं अपितु रोजगार के पर्याप्त अवसर भी नहीं हैं। बिहार की छवि एक बीमारू बेहाल प्रदेश की है। जहां अपराध, जातिवाद और बेरोजगारी चरम पर है। ऐसे में क्या इन्होंने बिहार की सकारात्मक छवि निर्माण के लिए कोई प्रचार अभियान चलाया है? अन्यथा इसको लेकर कोई धरना प्रदर्शन या आंदोलन इत्यादि छेड़ा है?

जबकि इनके संगठन विस्तार एवं इनके व्यक्तिगत प्रचार के लिए पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है।

बिहार के विभिन्न अनुमंडल एवं प्रखंड मुख्यालयों तक सक्रिय इनके वेतनभोगी कर्मचारी मोटी रकम प्राप्त करते हैं। हर कार्यक्रम का खर्च बजाय जनसहयोग के पार्टी की ओर से आ रहा है। यही नहीं माहौल बनाने के लिए संगठन द्वारा 100 गाड़ियां प्रतिदिन बिहार के विभिन्न जिलों में लगातार चल रही है। पिछले 2 वर्षों में ऐसे अगणित प्रचार-प्रसार अभियान चलते आए हैं, जबकि पार्टी की विधिवत घोषणा आगामी गांधी जयंती पर होना है। गांधी के सच्चे अनुयायी सत्ता में आने के घंटे भर के अंदर शराबबंदी कानून के निरस्तीकरण की बात सार्वजनिक तौर पर कह रहे हैैं। यही नहीं जाति एवं धर्म विशेष की राजनीति के सख्त विरोध का दम भरने वाले खुद टिकट वितरण के नाम यही सब कर रहे हैं। नीतीश कुमार को चुनौती देते हुए वे अपनी जाति की संख्या उनसे कहीं अधिक बताते हैं। जबकि तेजस्वी इनके लिए जातिवादी एवं परिवारवादी राजनीति की उपज है। आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के निमित्त इनके यहां हर किसी के लिए दरवाजा खुला है। ऐसे में भला क्या बदलावों वाली राजनीति होगी।

प्रशांत किशोर की पार्टी के मंच पर भले ही सामाजिक कार्यकर्ता और नेतागण दिखते हैैं किंतु निर्णय, योजना एवं क्रियान्वयन में इनकी भूमिका बेहद सीमित होती है। ये केवल बैठक एवं सभाओं की भीड़ अथवा मंच की शोभा मात्र हैं। इनके सभी कार्यक्रम एवं संगठन सम्बंधित निर्णय प्रशांत किशोर की पुरानी पहचान से सम्बंध सर्वे एजेंसी आईपैक से जुड़े कर्मचारी लेते हैं। किसी विषय विशेष पर इनकी राय ही पार्टी की अंतिम और इकलौती राय है। क्या यह राजनीति का गांधीवादी तरीका है! इसे ना तो सैद्धांतिक राजनीति का नमूना कह सकते है और ना ही एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में यकीन करने वाला दल। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे चुनिंदा देशों के हित पोषक संस्था के इस पूर्व कर्मी का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है। प्रशांत पैसों के लिए भ्रष्टाचारी जगन मोहन रेड्डी से लेकर देश विरोधी दल कांग्रेस के साथ भी काम कर सकते हैैं। ये भले ही अभी बिहार में भाजपा जदयू गठबंधन के विरुद्ध खुद को बदलाव लाने वाला अगुआ बता रहे हैं। राजद की जगह खुद को मुस्लिमों का सच्चा रहनुमा कह रहे हैं। किंतु ये चुनाव बाद की परिस्थितियों में किसी भी गठबंधन या दल के साथ सत्ता के लिए जा सकते हैं। ये वही हैं जिन्होंने ममता बनर्जी को नफरत के आधार पर चुनाव जीतने का नुस्खा सुझाया था। इनके दिए सुझावों पर अमल करते हुए बंगाल चुनावों में बंगाली बनाम बिहारी का मुद्दा बना था। जबकि बंगाल के लोग कभी भी अन्य प्रदेश के लोगों को लेकर दुराग्रही नहीं रहे हैैं। ऐसे में आवश्यकता न केवल इनके संसाधनों के जांच की है अपितु राजनीति के ऐसे नवीन चलन से भी पर्याप्त दूरी बरतने का है। अन्यथा इस देश को एक और जिन्ना या केजरीवाल ही अंततः मिलेगा।

 -अमिय भूषण

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