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छद्म-सेकुलरवाद का एक और भद्दा चेहरा

छद्म-सेकुलरवाद का एक और भद्दा चेहरा

by हिंदी विवेक
in सामाजिक
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हाल ही में कुछ ऐसा हुआ, जिसने हिंदू-मुस्लिम संबंध में पेंच और भारतीय ‘सेकुलरवाद’ के भद्दे स्वरूप को फिर से उजागर कर दिया। बीते 16 दिसंबर को आतंकवादी और पैरोल पर बाहर आए सैयद अहमद बाशा ने तमिलनाडु के कोयंबटूर स्थित एक निजी अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। इसके अगले दिन जब प्रदेश की डीएमके सरकार से भारी सुरक्षाबलों के बीच उसकी पांच किलोमीटर लंबी शव यात्रा निकालने की अनुमति मिली, तब इसमें न केवल सैंकड़ों-हजार स्थानीय मुस्लिमों की भीड़ उमड़ पड़ी, साथ ही प्रदेश के राजनीतिक दलों के नेता-विधायक और कई इस्लामी संगठन के लोग भी इसमें शामिल हुए और शोक व्यक्त किया। यह स्थिति तब है, जब बाशा सजायाफ्ता आतंकवादी था। इस घटना के विरोध में भाजपा और उनके सहयोगी संगठनों ने 20 दिसंबर को ‘काला दिवस’ भी मनाया। आखिर बाशा के महिमामंडन का विरोध क्यों जरूरी है?

कोयंबटूर में जन्में बाशा के जिहादी साम्राज्य और मजहबी कट्टरता का काला इतिहास 1980 के दशक से शुरू होता है। तब उसने 1983 में हिंदू नेताओं पर हमला किया, तो 1987 में मदुरै रेलवे स्टेशन पर हिंदू मुन्नानी के एक नेता की हत्या का प्रयास किया। बाशा ने बाबरी ढांचा विध्वंस के एक साल बाद 1993 में ‘अल-उम्माह’ नामक जिहादी समूह की स्थापना की, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘पैगंबर के अनुयायी’ है। इस संगठन पर चेन्नई स्थित आरएसएस कार्यालय पर बम धमाका करने का आरोप लगा। इसका नाम साल 2013 में कर्नाटक के मल्लेश्वरम में हुए बम धमाकों के समय भी सामने आया था।

Madras HC Grants Three-Month Interim Bail To Al-Umma Founder & Convict In 1998 Coimbatore Serial Blasts Case - The Commune

बाशा ने अपना दायरा बढ़ाया और उसके संगठन ने अन्य जिहादियों के साथ मिलकर 14 फरवरी 1998 को ‘ऑपरेशन अल्लाह-हू-अकबर’ कोडनेम के तहत कोयंबटूर में 11 स्थानों पर 12 सिलसिलेवार शक्तिशाली बम धमाके कर दिए। इस हमले का मकसद भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की हत्या करना था, जो उस वक्त चुनाव प्रचार के लिए शहर स्थित आरएस पुरम में बैठक करने वाले थे। विमान उड़ने में विलंब के कारण आडवाणी को पहुंचने में देरी गई और उनकी जान बच गई। लेकिन इस भीषण हमले में 58 बेगुनाहों (अधिकांश हिंदू) की मौत हो गई, तो 230 से अधिक घायल। इसके बाद ‘अल-उम्माह’, ‘जिहादी कमेटी’ और ‘तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कड़गम’ के कई सदस्यों की गिरफ्तारी हुई। परंतु कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व ने इन उन्मादी मुस्लिम संगठनों को क्लीनचिट देते हुए न केवल बम धमाकों का आरोप आरएसएस पर लगा दिया, बल्कि यहां तक कह दिया— “अगर बम भाजपा के अलावा किसी और ने लगाया होता, तो ऐसा करने वाले ने निश्चित रूप से आडवाणी को मार देते।” वर्ष 2002 में सुनवाई शुरू होने के पांच साल और 1300 गवाहों से पूछताछ के बाद अदालत द्वारा सैयद अहमद बाशा के साथ फखरुद्दीन और इमाम अली आदि को भी दोषी ठहराया गया। इस बाशा के हौसले कितने बुलंद थे, यह इस बात से जगजाहिर है कि उसने जुलाई 2003 में अदालत परिसर में पत्रकारों से बात करते हुए तब कोयंबटूर का दौरा कर रहे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुलेआम जान से मारने की धमकी दी थी।

Lessons Learnt From the Coimbatore Blasts Case: A Judge Reflects

इस पूरे घटनाक्रम में ऐसा भी मोड़ आया, जिसने देश में सेकुलरवाद के नाम पर इस्लामी कट्टरता को मिल रहे प्रत्यक्ष-परोक्ष ‘राजनीतिक संरक्षण’ का भी भंडाफोड़ कर दिया। कोयंबटूर धमाकों को लेकर 31 मार्च 1998 को भड़काऊ भाषणों के लिए कुख्यात अब्दुल नासर महदनी की भी केरल से गिरफ्तारी हुई थी। 24 जुलाई 2006 को एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि कैसे कोयंबटूर आतंकी हमले के आरोपियों के लिए तत्कालीन द्रमुक सरकार ने जेल को मसाज सेंटर में बदल दिया था। तब उस खबर में यह भी बताया गया कि प्रदेश सरकार 2001 से महदनी की आयुर्वेदिक मालिश का खर्च वहन कर रही थी और उसकी पत्नी गिरफ्तारी वॉरंट जारी होने के बाद भी महदानी से बेरोकटोक मिल सकती थी।

Coimbatore terror plot: The timeline of the blast and its aftermath

जब इस्लामी कट्टरता-आतंकवाद को ‘न्यायोचित’ ठहराने हेतु वर्ष 2006 से देश में कांग्रेस नीत तत्कालीन संप्रग सरकार द्वारा फर्जी ‘हिंदू आतंकवाद’ का नैरेटिव गढ़ा जा रहा था, तब सबूतों के अभाव में महदनी 2007 में जेल से बाहर आ गया। परंतु इसके एक साल पहले ही 16 मार्च 2006 को केरल विधानसभा में विशेष सत्र बुलाकर कांग्रेस और वामपंथियों ने महदनी को रिहा करने पर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दिया था। यही महदनी 2008 के बेंगलुरु श्रंखलाबद्ध बम धमाका मामले में आज भी मुख्य आरोपी है। ऐसी राजनीतिक हमदर्दी इशरतजहां, याकूब मेमन, अफजल गुरु, बुरहान वानी और आदिल अहमद डार जैसे घोषित आतंकवादियों को भी मिल चुकी है। अब कुछ सियासी दल मुस्लिम वोटबैंक के मोह में कोयंबटूर आतंकी हमले के बाकी दोषियों को भी छोड़ने की मांग कर रहे है।

अब एक ऐसा व्यक्ति, जो 1998 के कोयंबटूर आतंकवादी हमले का मुख्य साजिशकर्ता हो, जिसने 58 मासूम लोगों को मौत के घाट उतारा हो, जिसका अपराध अदालत द्वारा दोषी सिद्ध हो, समाज में मजहब के नाम पर घृणा फैलाता और जो कई वर्षों से इन्हीं कारणों से सजायाफ्ता रहा हो— उसे देश का एक वर्ग, विशेषकर मुस्लिम समाज का एक हिस्सा कैसे ‘नायक’ या ‘शहीद’ मान सकता है? क्या यह उन लोगों के प्रति अन्याय नहीं, जिन्होंने बाशा के कारण अपनों को हमेशा के लिए खो दिया। आखिर यह कैसी मानसिकता है?

सच तो यह है कि मुस्लिम समाज के एक वर्ग का यह चिंतन न ही हालिया है और न ही बाशा या महदनी तक सीमित है। वास्तव में, इसी फलसफा ने तत्कालीन राजनीतिक शक्तियों (ब्रिटिश और वामपंथी) के समर्थन से इस्लाम के नाम पर 1947 में भारत का रक्तरंजित विभाजन भी कर दिया था। दुर्भाग्य से यह जहरीला दर्शन आज भी खंडित भारत में छद्म-सेकुलरवाद के नाम पर राजनीतिक दलों द्वारा पोषित है। जब तक देश में एक मुस्लिम वर्ग द्वारा भारतीय संस्कृति पर भीषण आघात करने वाले कासिम, गजनवी, घोरी, बाबर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान आदि क्रूर इस्लामी आक्रांताओं को ‘नायक’ की तरह प्रस्तुत किया जाएगा, तब तक बाशा जैसे ‘जिहादियों’ का यशगान और हिंदू-मुस्लिम संबंध में तनाव बरकरार रहेगा।

हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है।

-बलबीर पुंज

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Tags: #hindivivek #world #india #south #news#blast

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