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मुसलमानों में सुधारवाद का आगाज

मुसलमानों में सुधारवाद का आगाज

by अमोल पेडणेकर
in चेंज विशेषांक - सितम्बर २०१८, साक्षात्कार, सामाजिक
1

मुस्लिम समाज में अब सुधारवाद को समर्थन मिलने लगा है। मदरसा शिक्षा के बजाय वे अब आधुनिक शिक्षा की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का इसमें बड़ा योगदान है। प्रस्तुत है पिछले 70 वर्षों में मुस्लिम समाज में आए विभिन्न बदलावों पर वरिष्ठरा.स्व.संघ प्रचारक तथा मु.रा. मंच के प्रमुख मा. इंद्रेश कुमार जी से हुई बातीचीत के महत्वपूर्ण अंश-

मुस्लिम समाज के प्रति आपके मन में क्या भाव हैं?

हमारे देश के 99% मुसलमान मूलत: भारतीय ही हैं। पीढ़ियों पहले वे कन्वर्ट हुए और मुसलमान ही रह गए। परंतु भारतीय होने का भाव उन लोगों के मन में प्रस्थापित करने और जागृत रखने का कार्य नहीं हुआ। अत: हम सभी को एक पक्ष यह दिखाई देता है कि यहां की मिट्टी और यहां के महापुरुषों से वे खुद को जोड़ नहीं सके; बल्कि उन्होंने मुस्लिम आक्रांताओं से खुद को जोड़ रखा है। इसलिए आक्रमणकारियों द्वारा किए गए अत्याचार भी उन्हें न्यायोचित लगते हैं।

भारत से ही बौद्ध, जैन आदि कई मत निकले परंतु उन्होंने यहां के लोगों के नाम, अभिवादन के तरीके, ग्रंथ, झंडे इत्यादि को नहीं बदला। परंतु जब इस्लाम आया तो उन्होंने यह सब बदल दिया। यहां के कन्वर्ट हुए मुसलमानों को यह सिखाया गया कि कुरान में राष्ट्रीयता जैसी कोई चीज नहीं। यह सत्य नहीं था परंतु उन्हें यही सिखाया गया। इसलिए यहां के लोग खुद को मक्का और अरब से जोड़ते हैं। उन्हें वंदे मातरम गाना, जणगणमन गाना, देशभक्ति करना बुरा लगता है। हम अगर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि कासिम से लेकर औरंगजेब तक सभी के मकबरे तो बनवाए गए, परंतु एक भी अस्पताल, विश्वविद्यालय या उद्योग-कारखाना नहीं शुरू किया गया।

परंतु दूसरा पक्ष यह भी है कि जो मुस्लिम बन गए थे, उनमें से भी कुछ लोग ऐसे थे जिनमें देशभक्ति जागृत थी। बाबर के विरुद्ध राणा सांगा का साथ देने हसन खान मेवादी अपनी दस हजार सैनिकों की सेना लेकर था। ये सभी मुसलमान बन चुके लोग थे। हल्दी घाटी के युद्ध में भी अकबर के विरुद्ध राणा प्रताप के साथ हाकिम खान सूरी लड़ा था। उसकी सेना में भी वे भील थे जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिए था। आजादी के युद्ध में भी मुसलमान थे। हमारे विकास पुरुषों में अब्दुल कलाम भी हैं।

सन 1947 से लेकर अभी तक 71 वर्षों में मुसलमानों के देश के मुख्य प्रवाह से न जुड़ने के पीछे क्या राजनैतिक कारण भी हैं?

1947 में जब विभाजन हुआ तो वह हिंदू-मुस्लिम का आधार लेकर हुआ, जबकि कांग्रेस की मांग तो पूर्ण स्वतंत्रता की थी, विभाजन की नहीं। परंतु अंग्रेजों की कूटनीति और तात्कालिक स्वार्थ के कारण विभाजन हो गया और भेदभाव का एक बीज हमेशा के लिए बो दिया गया। मुसलमानों को अल्पसंख्यक बना कर एक अलग राह पर धकेल दिया गया। उस समय मुस्लिम नेता यह समझ नहीं पाए और कांग्रेस को भी इसका अनुमान नहीं लगा कि यह अल्पसंख्यक बनाने की क्रिया कितनी महंगी पड़ सकती है। संविधान में तो समान कानून, समान झंडा, समान नागरिकता का प्रावधान था। इस अल्पसंख्यक विचारधारा का प्रवेश जब राजनीति में हुआ तब वह जातिगत और पंथगत हो गई। इसके कारण जिन अन्य जातियों का भी मूल प्रवाह में विलय होना था, वह भी रुक गया।

इस वातावरण से तुष्टीकरण और नफरत दो मार्ग निकले। परंतु दोनों से ही संतोषजनक रास्ता न निकलने के कारण एक तीसरे विचार की आवश्यकता महसूस हुई। यह तीसरा विचार क्या हो, उसका नेतृत्व कौन करें ये प्रश्न उठने लगे। परंतु आज यह प्रश्न नहीं हैं। इस समस्या से निकलने के कई मार्ग दिखाई देने लगे हैं।

क्या मुस्लिम समाज में सुधारवाद की आवश्यकता है?

रा.स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक मा. सुदर्शन जी ने ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध तथा अन्य पंथों के प्रतिनिधियों से मिलकर यह बात कही थी कि इस देश में पंथों के आधार पर जितने गुट हैं वे अलगाववाद की ओर न जाएं, बल्कि एकता के मार्ग पर चलें; अत: इन सभी का राष्ट्रीयकरण, भारतीयकरण हो।

मेरे साथ भी कुछ घटनाएं घटीं। कश्मीर में एक ओर आतंकवादियों ने मेरा अपहरण करने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर मुझे ज्ञानी फकीर समझकर एक मुस्लिम परिवार ने अपने घर बुलाया और मेरे साथ एकात्मता की और ईश्वर तथा अल्लाह के चराचर में होने की चर्चा की। तब मुझे लगा कि जिस प्रकार एक घर में अच्छे और बुरे स्वभाव या कर्म वाले बेटे होते हैं, उसी प्रकार हमारे देश में भी अच्छी और बुरी विचारधारा के लोग हैं। परंतु हमें उनसे तादात्म्य बनाकर सभी को एक धारा में लाने का प्रयत्न करना होगा। समाज में समय के साथ कुछ न कुछ कुरीतियां आती हैं, जिसके कारण उसमें सुधार की आवश्यकता महसूस होने लगती है। मुस्लिम समाज के कुछ लोगों को भी इस सुधारवाद की आवश्यकता महसूस होने लगी और यहीं से कई नामों का विचार करने के बाद ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ की नींव पड़ी।

देखा जाए तो मुस्लिम समाज असहिष्णु है और रा.स्व. संघ के प्रति उनके मन में विष है। अत: यह काम कठिन भी और खतरनाक भी है, परंतु असम्भव नहीं है।

‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के कार्य का विस्तार मुसलमानों में किस तरह हो रहा है?

देखिए, मुस्लिम कभी रा.स्व.संघ के पक्ष में नहीं थे। जब हम उनके परिवारों में जाते थे तो यह मुद्दा लेकर जाते थे कि हमारे पूर्वज एक हैं, देश एक है, परम्पराएं एक हैं। अगर हम आपस में मिलजुलकर नहीं रहेंगे तो हमारी सुरक्षा कैसे होगी? विकास कैसे होगा? हमारे निरंतर प्रयत्नों ने हमें काफी अच्छी सफलता दिलाई है और लोग हमसे जुड़ने लगे हैं। आज लगभग 25 प्रांतों के 335 जिलों में इसकी इकाइयां काम कर रही हैं। लगभग 4 से 5 हजार मौलाना, इमाम, मौलवी और हाफिज हमारे सम्पर्क में हैं। चार से पांच लाख लोगों के साथ कुछ अखबार भी हमारे सम्पर्क में हैं।

मुस्लिम महिलाओं में खतना या तीन तलाक को लेकर आक्रोश है। इन विषयों पर मुसलमानों में अंतर्गत सुधार लाने हेतु क्या प्रयास हो रहे हैं?

महिलाएं समाज का आधा हिस्सा हैं; अत: उनके लिए हमने शुरू से ही सकारात्मक बातों का प्रचार करना शुरू किया। पहला प्रचार हमने यह किया कि कुरान में लिखा है कि ‘मां के कदमों में जन्नत है।’ कुरान में मां शब्द ही लिखा है। दूसरी बात जो पैगंबर मुहम्मद साहब ने कही थी कि जन्नत मिलने के मार्ग में जो सबसे बड़ा रोड़ा है वह है ‘तलाक’। तलाक गुनाह है और मुझे सबसे ज्यादा नापसंद है। मर्द के द्वारा औरत पर किए जाने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए पैगंबर मुहम्मद ने यह कहा था, परंतु इस्लाम के ठेकेदारों ने यह बात प्रचारित ही नहीं की। अत: मुसलमान ठीक उसके विपरीत कार्य करने लगा।

जब सन 1975 में मुस्लिम महिलाओं के द्वारा एक आंदोलन चलाया गया तो राजीव गांधी मुसलमानों की कट्टरता के सामने झुक गए और इस आंदोलन को दबा दिया गया। परंतु इस बार मुस्लिम महिलाएं खतना और तीन तलाक के विरोध में लाखों की संख्या में सड़कों पर आ गईं। मीडिया में भी वे आक्रामक रूप से सामने आने लगीं। इन सभी के पीछे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का अध्ययन था। मंच ने सत्य सभी के सामने रखा। मुझे लगता है कि यह सदी का सबसे बड़ा आंदोलन है, जिसने साढ़े आठ करोड़ भारतीय मुस्लिम महिलाओं को उनका हक दिलाया और अत्याचार से मुक्त किया।

मंच के इस प्रयास को मुस्लिम महिलाएं किस दृष्टि से देखती हैं?

उनका दृष्टिकोण बहुत ही सकारात्मक है; क्योंकि जहां भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यकर्ता जाते हैंं, महिलाएं उनसे मिलकर धन्यवाद देती हैं। मुझे भी कई महिलाओं ने आकर धन्यवाद दिया और कहा कि आपने इस्लाम में जो गंदगी आ गई थी उसे खत्म कर दिया है। साथ ही एक बात और और दिखाई देती है कि इतने वर्षों तक राजनीति से प्रेरित होकर जिन नेताओं ने, पार्टियों ने मुस्लिम महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों का समर्थन किया उनके प्रति भी मुस्लिम महिलाओं के मन में रोष आने लगा है और वह प्रत्यक्ष दिखाई भी देता है। परंतु मंच के प्रति उनका रवैया सकारात्मक है।

मुस्लिम महिलाओं से सम्बंधित हलाला और बहुपत्नीत्व जैसी जो कुप्रथाएं मुस्लिम समाज में हैं, उससे बाहर निकालकर महिलाओं को मुख्य धारा में लाने के लिए आपने कौन सा पक्ष रखा है?

हलाला का तो कुरान शरीफ में उल्लेख ही नहीं है। यह तो उन्मादी धर्मगुरुओं और बहशी राजनेताओं के द्वारा शुरू की गई कुप्रथा है, जिससे मुस्लिम महिलाओं का केवल शरीर ही नहीं मन भी आहत होता है।

एक से अधिक निकाह के सम्बंध में भी कुछ नियम हैं। पहला तो यह कि कोई भी मुस्लिम मर्द चार से अधिक निकाह कर ही नहीं सकता। दूसरा नियम यह है कि दूसरा निकाह करने के लिए उसे पहली पत्नी की सहमति लेना आवश्यक है। तीसरा नियम यह है कि वह केवल उसी महिला से निकाह कर सकता है जिसे किसी भी प्रकार से आश्रय की आवश्यकता हो और चौथा नियम यह है कि उस आदमी की हैसियत सभी पत्नियों को समान रूप से संभालने की होनी चाहिए। अर्थात यह प्रथा समाज के समर्थ पुरुषों द्वारा पीड़ित महिलाओं के उत्थान के लिए शुरू की गई थी; न कि पुरुषों की ऐयाशी के लिए।

कुरान शरीफ में तो यहां तक लिखा है कि जरूरत से ज्यादा धन, अनेक पत्नियां और बच्चे हुए तो बंदे को खुदा को याद करने का वक्त ही नहीं मिलेगा। अधिक बच्चे रहेंगे तो खर्च भी अधिक होने के कारण वे पढ़ नहीं पाएंगे, अशिक्षित रहेंगे, बेरोजगार रहेंगे और अपराध की ओर अग्रसर होंगे।

मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के द्वारा इन सभी का अध्ययन करने के बाद जब हमने मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों को यह बातें बताईं तो अब महिलाएं और कुछ समझदार पुरुष भी हमारे साथ खड़े हो गए हैं। वे सभी इन कुप्रथाओं से मुस्लिम समुदाय को निकालर समाज की मुख्य धारा में लाना चाहते हैं।

शरिया कानून जैसे इस्लामी कानून की मांग लगातार बढ़ रही है। यह भारत के लिए कितना घातक सिद्ध होगा?

मूलत: यह बहुत ही विचित्र है कि इस देश में संविधान के अलावा किसी अन्य कानून की मांग हो। इस देश में वे मत भी हैं जिनका उद्भव यहां से हुआ है और वे भी हैं, जो बाहर से आए हैं। परंतु धार्मिक कानून को लागू करने के लिए मुसलमानों के अलावा अन्य कोई बहस नहीं कर रहा है। जब ईसाई, जैन, बौद्ध, सनातनी, आंबेडकरवादी, निरंकारी, नामधारी, प्रकृतिपूजक, मूर्तिपूजक आदि सभी लोग यहां के कानून को मान सकते हैं तो मुसलमान क्यों नहीं? इससे भी बड़ी बात है कि कुछ बातों के लिए वे संविधान चाहते हैं और कुछ बातों के लिए शरिया कानून। यह तो हो ही नहीं सकता। वास्तविकता यह है कि आम मुसलमान और कट्टरपंथी मुसलमानों की सोच में बहुत अंतर है। खुदा ने भी अपनी ताकत से इसे पुष्ट कर दिया है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मीटिंग करके जब शरिया कानून के समर्थन में मुसलमानों से सहमति पत्र देने का आवाहन किया, तो पंद्रह-सोलह करोड़ की आबादी वाले मुस्लिम समाज में से केवल 10 पत्र ही प्राप्त हुए। उसमें से भी 3 ही को सही माना गया; बाकी सब रद्द कर दिए गए। इसका अर्थ साफ है कि भारत का आम मुसलमान संविधान में विश्वास रखता है और संविधान के अनुसार ही चलना चाहता है, न कि शरिया कोर्ट के अनुसार।

शरिया कोर्ट न चाहने के पीछे एक और बड़ा कारण यह है कि अगर शिया सुन्नी में झगड़ा हो जाए तो वे कहां जाएंगे? मस्जिद वाले सुन्नी और दरगाह वाले सुन्नी में झगड़ा हो तो कौन से कोर्ट में जाएंगे? इसके विपरीत भारतीय संविधान में भारत के हर नागरिक को अपना जीवन अपने अनुसार जीने की पूर्ण स्वतंत्रता है।

एनआरसी के मुद्दे पर ममता बैनर्जी द्वारा गृह युद्ध की चेतावनी देना क्या इशारा देता है?

ममता बैनर्जी का यह बयान असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, देश को भड़काने वाला और तोड़ने वाला बयान है। यहां मैं पूरे विश्वास से कहना चाहूंगा कि यह मुद्दा किसी भी तरह हिंदू-मुस्लिम का नहीं है। यह तो भारतीय और विदेशी घुसपैठियों का मामला है। असम में लगभग 40 लाख घुसपैठियों का पता चला, परंतु पूरे भारत का विचार करें तो उनकी संख्या करोड़ में होगी। ये घुसपैठिए भारतीय सम्पत्ति, रोजगार, भारतीय लोगों की सुविधाएं और उनके हक का अवैध रूप से उपभोग कर रहे हैं। जिन भारतीय लोगों से वे ये सारी चीजें छीन रहे हैं, वे मुख्यत: गरीब तबके से हैं। गरीबों में भी अधिकतम संख्या मुसलमानों की या अनुसूचित जाति/ जनजातियों की है। ये बाहर से आए हुए लोग भारतीय मुस्लिम आबादी की ही हानि कर रहे हैं क्योंकि वे मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में ही रहने लगे हैं। रिक्शा चलाने, बोझा ढ़ोने, मजदूरी करने, घर का काम करने जैसे कामों में ये घुसपैठिए भारतीय मुसलमानों के साथ खड़े हो गए। ऐसे में भारत पर लगभग एक करोड़ बेरोजगारों का अतिरिक्त बोझ पड़ गया। अब ऐसे लोगों पर जब कार्रवाई हो रही है तो उन लोगों के पेट में ही दर्द हो रहा है जो अपने वोट बैंक के लिए भारतीय लोगों पर हो रहा अन्याय तो सहन कर सकते हैं परंतु विदेशी घुसपैठियों का नुकसान नहीं सह सकते। ऐसे लोग भारत में रहकर भारत के ही विरोधी हो रहे हैं। जब इन लोगों की सच्चाई भारत के लोगों को पता चलेगी तो वोटों के रूप में वे और अधिक सिमटते चले जाएंगे।

इनसे जो सबसे बड़ा खतरा है वह है देश की सुरक्षा का। क्योंकि इनमें कुछ ऐसे तत्व हैं जो अराजक, अमानवतावादी, आपराधिक प्रवृत्ति के हैं। इसके कारण देश में हथियार आने लगे, तस्करी होने लगी, नकली मुद्रा का प्रसार होने लगा, हिंसा की वारदातें होने लगीं। इसके लिए मेरा यह मत है कि भारत और बांग्लादेश सरकार को मिलकर इस दिशा में कार्य करना चाहिए। इन लोगों की पहचान कर उन्हें बांग्लादेश के नागरिक के रूप में पुन: बसाना चाहिए या फिर अगर सम्भव हो तो यूएनओ की अदालत में जाकर विश्व के सारे देशों को इन लोगों को बांटने पर विचार किया जाना चाहिए।

धारा 370 तथा अन्य संवेदनशील विषयों की ओर मुस्लिम युवा किस दृष्टि से देखता है?

हम जब इन युवाओं से बात करने जाते हैं तो उनके सामने अपना कोई मत लेकर नहीं जाते बल्कि उन्हें ही परिस्थिति का विश्लेषण करने के लिए कहते हैं। जैसे हमने नहीं कहा कि धारा 370 सही है गलत है। हमने उनसे कहा- आप खुद सोचिए कि धारा 370 से आपने क्या खोया, क्या पाया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि छह महीने के एनालिसिस के बाद 7 लाख मुस्लिम युवाओं ने अपने हस्ताक्षर करके महामहिम राष्ट्रपति को यह पत्र दिया कि धारा 370 से न भारत का कुछ फायदा हुआ और न ही कश्मीर का। इतनी बड़ी इस घटना को किसी मीडिया ने नहीं दिखाया।

गोहत्या को लेकर मुसलमानों के विरोध में समाज में बड़ा आक्रोश दिखाई देता है। आपकी राय क्या है?

हमने गाय के विषय पर भी उनसे बात की। हमने कहा- हिंसक लोग तीन प्रकार के होते हैं। पहले वे जो दूसरों का दिल दुखाते हैं, दूसरे वे जो प्रतिक्रिया के रूप में हिंसा करते हैं और तीसरे वे हैं जो राजनीति से प्रेरित होकर हिंसा करते या करवाते हैं। ये तीनों ही खराब हैं और खत्म होने चाहिए।

दुनिया के किसी भी धर्म के इतिहास में गोमांस खाने का कोई प्रमाण नहीं है। लगभग सभी मत कहते हैं कि जीव हिंसा पाप है। जिस तरह नशा करने के सम्बंध में कोई यह नहीं कहता कि यह बहुत अच्छा है इसे करो। उसी तरह मांसाहार के संदर्भ में कोई यह नहीं कहता कि मांसाहार बहुत अच्छा होता है, करना चाहिए। कुरान शरीफ में जो सबसे बड़ा अध्याय है उसका नाम गाय पर है और बीमारियों के इलाज से सम्बंधित बातें इसमें लिखी हुई हैं। ये बातें जब मुसलमान समझने लगे तो गौसंवर्धन और गौशालाओं के प्रति उनका लगाव बढ़ा और अब कई मुसलमान स्वयं गाय को पाल रहे हैं या गौशाला का खर्च वहन कर रहे हैं।

सच कहें तो ये सारे मुद्दे आम मुसलमानों को कट्टरपंथियों द्वारा भड़काने के मुद्दे हैं। चाहे वह गाय का हो, तीन तलाक का हो, अभी आया हुआ शरिया कोर्ट का हो या राम मंदिर का हो।

अयोध्या में राम मंदिर बनाने को लेकर मुस्लिम समाज में सहमति कैसे बनेगी?

मुसलमान समझ गए हैं कि जिस तरह चर्च तो दुनिया भर में बहुत हैं परंतु वेटिकन एक ही है। मस्जिदें बहुत हैं परंतु मक्का-मदीना एक ही है। उसी प्रकार मंदिर बहुत हैं परंतु रामजन्मभूमि एक ही है। यहां मूल विवाद या प्रश्न केवल मंदिर का भी नहीं वरन रामजन्मभूमि का है। लोग ये जानने लगे हैं कि कुरान में जिन एक लाख चौबीस हजार पैगंबरों का उल्लेख किया गया है राम उन्हीं में से एक हैं। राम को अरब में ‘इमामे हिंद’ कहा गया है। फिर बात निकली कि बाबर कौन था, तो जवाब आया कि बाबर तो आक्रमणकारी था।

मस्जिद बनाने के संदर्भ में भी कुरान में जिन पांच बातों का आधार लिया जाता है उन पर भी तथाकथित बाबरी मस्जिद खरी नहीं उतरती। पहला आधार है जमीन पाक-साफ अर्थात दान में मिली होनी चाहिए, दूसरा है वह अपने पैसों से खरीदी होनी चाहिए, तीसरा आधार है कि वह अन्य किसी मत सम्प्रदाय के अधिकार में नहीं होनी चाहिए, चौथा आधार यह कि किसी अन्य मत-सम्प्रदाय की इमारत को तोड़कर नहीं बनाई जानी चाहिए और पांचवां है कि मस्जिद कभी भी इंसान या बादशाह के नाम पर नहीं बनाई जाएगी। इनमें से किसी भी आधार पर यह मस्जिद खरी नहीं उतरती। ऐसी मस्जिद के बारे में कहा गया है कि इस प्रकार की मस्जिद में अगर नमाज की गई तो वह अल्लाह को कबूल नहीं होती।

यह बात आम मुसलमानों को भी समझ में आने लगी है कि वे लोग खुदा को छोड़कर बादशाह के नाम को रट रहे थे। कोर्ट में भी इस केस का नाम अब ‘रामजन्मभूमि बनाम विवादित ढांचा’ हो गया है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान जब रामजन्मभूमि की खुदाई शुरू हुई तो केरल के मलयालम मुसलमान भूगर्भशास्त्री के.के. मोहम्मद उसके इंचार्ज बने। सभी ने उन्हें स्वीकार किया। हिंदू तथा मुसलमान दोनों पक्ष के लोगों के सामने खुदाई का काम शुरू हुआ। मुसलमानों ने यह कहा है कि अगर खुदाई में कोई भी इस्लामी चिह्न नहीं मिलेगा तो हम केस वापस ले लेंगे। काफी गहराई तक खुदाई करने के बाद भी कोई इस्लामिक चिह्न नहीं मिला। अत: के.के. मोहम्मद ने भी कहा कि चूंकि कोई चिह्न नहीं है अत: केस वापस लिया जाए। अत: जमीन रामजन्मभूमि की ही रहेगी और इसका बंटवारा भी नहीं हो सकता।

‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के द्वारा मुसलमान समाज के हित में हो रहे इन सभी कामों का मुस्लिम युवाओं पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?

वे सभी इसका स्वागत ही कर रहें हैं। क्योंकि मंच के किसी भी कार्यक्रम में कभी दंगे-फसाद, हाथापाई या अन्य किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना नहीं घटी है। उनमें से कोई भी यह नहीं कहता कि यह काम गलत है या जो बातें ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के द्वारा कही जाती हैं वे गैर इस्लामिक या गैर कुरानी हैं। बल्कि वे मान रहे हैं कि अब हमें सही बातें पता चल रही हैं अत: उनका इंटरेस्ट भी बढ़ रहा है। अशिक्षा, कुसंस्कार, गरीबी, बेरोजगारी इन सभी के कारण उनमें अज्ञानता अधिक है। इसी से कट्टरता और हिंसा का भी प्रमाण अधिक होता है। परंतु अब विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी परिवर्तन दिखाई देता है और ऐसा लग रहा है कि सुधारवाद की हवा बह रही है।

आज अगर हम दुनिया के नक्शे पर मुसलमानों की स्थिति देखें तो हमें संघर्ष ही अधिक दिखाई देते हैं। ऐसे में मंच की भूमिका क्या है?

आपकी बात सही है। इस्लाम एक ऐसा मजहब है जिसका अन्य देशों से और उसके अंतर्गत आने वाले अन्य मतों-सम्प्रदायों से कोई सुसंवाद नहीं है। इसी का परिणाम है कि सभी जगह संघर्ष है। यह संघर्ष अन्य देशों के साथ भी है और इस्लाम के अंतर्गत आने वाले विभिन्न मतों में भी है। अत: हमने मंच के माध्यम से उनसे संवाद साधने का प्रयत्न शुरू किया है। आज अन्य कोई भी संस्था मुसलमानों से इतने व्यापक स्तर पर संवाद करते हुए दिखाई नहीं देगी। अत: मैं इस साक्षात्कार के माध्यम से यह आवाहन करना चाहता हूं कि सुधारवाद का बीज हमने जमीन में बो दिया है। अब इसका रक्षण करने, सिंचने और फलने-फूलने के लिए अत्यधिक प्रयत्न करने आवश्यक हैं। जो इस आंदोलन में हमारा सहयोग करना चाहते हैं वे हमसे जरूर सम्पर्क करें।

पाकिस्तान की सत्ता अब पूर्व क्रिकेटर इमरान खान के हाथ में है। प्रधानमंत्री के रूप में इमरान खान केसामने क्या चुनौतियां हैं?

भारत की स्वतंत्रता से लेकर अभी तक कोई दिन ऐसा नहीं गुजरा होगा जब पाकिस्तान की ओर से भारत पर फायरिंग न की गई हो। अत: इमरान खान के सामने पहली चुनौती यह होगी कि क्या वे सीमा को फायरिंगरहित बना सकेंगे? क्या पाकिस्तान में भारतीय झंड़ा फहराने और हिंदुस्तान जिंदाबाद बोलने की इजाजत देंगे? और अगर नहीं तो क्या जो लोग भारत में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हैं उन्हें ऐसा करने से रोक सकेंगे? यह उनके सामने बहुत बड़ा इम्तिहान होगा। यह चुनौती यहां के मुसलमानों के सामने भी है कि वे लोग हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे लगाएंगे कि नहीं।

हम भारत को विश्वगुरू बनाने का जो स्वप्न देख रहे हैं, उसमें मुस्लिम समाज किस प्रकार सहायक हो सकता है?

मुझे मिलने वाले सब लोग कहते हैं कि मिलजुलकर रहा जा सकता है तो मैंने इस पर एक प्रयोग करके देखा। विभिन्न मत सम्प्रदाय के लोगों के बीच जाकर मैंने उन सभी से कहा- हम सभी पंथों और सम्प्रदायों के मंत्रों का उच्चारण करेंगे। जैसे- रामराम, अल्ला हू अकबर, प्रभु ईशु, जय भीम, वाहे गुरू, नमो बुद्धाय, नमो अरिहंताणं, राधे-राधे आदि। सभी ने तीन-चार बार इन्हें दोहराया। फिर मैंने उनसे पूछा कि आपमें से कितनों को ऐसा लगता है कि आपका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है? किसी ने हाथ ऊपर नहीं उठाया। फिर मैंने पूछा कि कितनों को लगा कि आज हम सही मायनों में भारतीय बन गए हैं? इसके उत्तर में सभी ने अपने दोनों हाथ उठा लिए। एकता का भाव बढ़ाने के लिए इसी प्रकार के प्रयोग विभिन्न स्थानों पर करने होंगे। भोगवादी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए दुनिया के विभिन्न देश हैं। परंतु आध्यात्मिक उन्नति के लिए सभी भारत की ओर देखते हैं। अत: जीवन मूल्यों पर चलकर सभी भारतीय भारत को विश्वगुरू बनाने में योगदान दे सकते हैं। इसलिए आज समाज में जातिगत या सम्प्रदायगत बहस के स्थान पर समाज के दुर्गुणों का निर्मूलन करने के लिए बहस होनी चाहिए।

आप विगत तीन दशकों से अधिक समय से मुस्लिम समाज में परिवर्तन लाने हेतु प्रयत्नशील हैं। इतने वर्षों में मुलसमानों में हुए किन मुख्य परिवर्तनों का आप उल्लेख करना चाहेंगे?

पहले वहां सुधारवाद की कोई गुंजाइश नहीं थी। अब लोग इसका समर्थन करने लगे हैं। पहले उनकी कट्टरता या हिंसा का विरोध नहीं होता था, परंतु अब विभिन्न माध्यमों से उनका विरोध होने लगा है। एक महत्वपूर्ण परिवर्तन शिक्षा में दिखता है कि वे अब मदरसा शिक्षा की चौखट से निकलकर आधुनिक शिक्षा की ओर भी प्रवृत्त हो रहे हैं। भारत से तथा अपने पूर्वजों से जुड़ने और विदेशियों को पहचानने की प्रवृत्ति जागृत हुई है।

मुस्लिम महिलाएं अभी तक हर तरह के अन्याय को चुपचाप सह रहीं थीं। अगर कोई महिला इसके विरुद्ध आवाज उठाती तो उसे चुप करा दिया जाता था। परंतु अब वे सामूहिक रूप से संगठित होकर अपने ऊपर हो रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने लगी हैं।

अत: अब यह परिवर्तन देखा जा सकता है कि मुसलमान समाज भी कट्टरपंथी सोच कम करके अन्य भारतीयों की तरह जीवन जीना चाहता है।

 

 

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अमोल पेडणेकर

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अपना द़ृष्टिकोण स्पष्ट करता संघ

Comments 1

  1. श्रीमती सुरेखा वरघाडे says:
    7 years ago

    अमोलजी आपने आर्टिकल बहोतही अच्छा लिखा है !

    Reply

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