अत्यंत प्राचीन काल से हम एक प्रगतिशील एवं सुसंस्कृत समाज के रूप में इस भूमि पर रह रहे हैं। सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज जीवन सर्वप्रथम यहां विकसित हुआ। उसके लिए यहां का भूगोल भी एक कारण है। उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से हमारी रक्षा होती है। वनस्पति की विविधता, नदियों की अधिकता इस भूमि में है। खेती के लिए विपुल जमीन उपलब्ध थी। समाज जीवन सीधा-साधा, सुरक्षित एवं शांत था। इस कारण अध्ययन, चिंतन, संशोधन, नए-नए प्रयोग करने के लिए वातावरण अनुकूल था। प्राचीन “प्रज्ञा प्रवाह” गतिमान रहा होगा। ज्ञान की अनेक शाखाओं का जन्म इस भूमि में हुआ है। मैं कौन? अस्तित्व यानी क्या? मेरा व इस अस्तित्व का कुछ संबंध है क्या? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या? जन्म मृत्यु क्या है? ऐसे प्रश्न किसी भी मानव समूह में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। हमारे पूर्वजों ने इसके जो उत्तर हजारों साल पहले खोजे वह विज्ञान की कसौटी पर आज भी सत्य हैं।
1. अस्तित्व की रचना अखंड मंडलाकार है। (अखंड मंडलाकारं व्याप्त सर्व चराचरं)
2. मानव – मैं अर्थात शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा।
3. पूरा अस्तित्व एक ही चेतना का आविष्कार है। (सर्वम खलु इदं ब्रह्म)
4. संपूर्ण मानव जाति भी इस अस्तित्व का अविभाज्य अंग है। (तत त्वम असि)
मानवी मन तथा बुद्धि की कल्पना शक्ति इतनी आश्चर्यजनक है कि मनुष्य इन तत्वों का अनुभव ले सकता है। इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
हमारे संविधान की मूल प्रति में 24 चित्रों का समावेश है। मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त तगड़े बैल का चित्र पहला है। दूसरा चित्र प्राचीन गुरुकुल का है। हमारा देश कृषि प्रधान और ऋषि प्रधान है। कृषि प्रधान याने खेती और ऋषि प्रधान याने ज्ञान। ज्ञान याने सत्य का ज्ञान!
मानव को मैं केवल शरीर नहीं यह ज्ञात होना चाहिए। एक ही चैतन्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है, यह समझना चाहिए। जैसे हमें भूख लगती है वैसे ही दूसरों को भी लगती होगी, यह उसके समझ में आना चाहिए। “इंटर” में पढ़ते समय उपनिषद की एक कथा पढ़ी थी। गुरुकुल की शिक्षा समाप्त कर दो भाई घर जाने वाले थे। गुरुकुल से निकलते समय राह में खाने के लिए सब्जी रोटी की पोटली बांधकर दी गई। दोपहर खाने के उद्देश्य से उन्होंने पोटली खोली। उसी समय एक याचक रोटी मिलेगी इस हेतु से उनके पास आया। छोटे भाई ने उसे रोटी देने से इनकार कर दिया। हमें ही कम पड़ेगी फिर हम तुमको कहां से दें? बड़े भाई ने छोटे भाई की पीठ पर एक मुक्का मारा और कहा “12 वर्ष विद्या पाठ करके ‘तत त्वम असि’ यह सत्य तुम भूल गए क्या? तुम्हारी चेतना व इसकी चेतना एक ही है। इसे यदि रोटी के लिए मना कर दिया तो तुम्हें भी रोटी को हाथ लगाने का कोई अधिकार नहीं है।” उस कथा का नाम ही “तत्व मसि” था।
1. सर्वम खलु इदं ब्रह्म
2. तत्व मसि ऐसे वैश्विक और शाश्वत सत्य पर आधारित जीवन शैली का विकास यहां हुआ, इसे ही “आध्यात्मिक जीवन शैली” कहते हैं।
आध्यात्मिक जीवन शैली, सबका मंगल हो, पर्यावरण पूरक, दीर्घकाल उपयोगी, मानवतावादी है। आध्यात्मिक विचार ‘तत्व मसि’ इस सत्य पर आधारित होने के कारण “मैं नहीं तू ही” यह विचार व्यवहार में सभी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्रियाकलापों में प्रभावी था। विषमता, ऊंच-नीच, भेदभाव इनका समाज जीवन में कोई स्थान नहीं था। सुख, समृद्धि, ज्ञान, आनंद देने वाला जीवन होना चाहिए। शांत, समरस, सरल आप- पर भाव विरहित समाज जीवन हजारों वर्षों से चल रहा होगा।
वर्तमान में हमारे देश में समाज की स्थिति देखने पर सभी का कल्याण हो, भेदभाव रहित, समरस जीवन यहां कभी था, इस पर विश्वास ही नहीं होता! समरसता की भावना कब और कहां लुप्त हो गई, यह समझ में ही नहीं आया!
“मैं नहीं तू ही” इस अहंकार रहित जीवन शैली का लोप हो गया। अहंकार को बढ़ाने वाली जीवन शैली प्रभावी हो गई। शिक्षा का, संपत्ति का, परिवार का अपने गुट का अहंकार, व्यापार का, भाषा का, वेष का, प्रत्येक चीज का अहंकार यहां के व्यक्ति का स्वभाव बन गया। “मैं और मेरा” यह विचार प्रभावी होता गया। मनुष्य- मनुष्य के बीच की दूरी बढ़ती गई। विदेशी चक्र के सामने देश टिक नहीं सका। करीब करीब 1000 वर्ष देश गुलामी में रहा। वंश श्रेष्ठता, ऊंच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य, अनैतिकता ऐसे अनेक रोगों ने हिंदू समाज में पैठ बना ली।
स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, वीर सावरकर, छत्रपति शाहू महाराज, महात्मा फुले, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर, पंडित मदन मोहन मालवीय, पूज्य नारायण गुरु इत्यादि महापुरुषों ने इन रोगों से हमारा समाज मुक्त करने के कई प्रयत्न किये। इन रोगों ने जो समाज में अपनी पैठ बनाई थी, थोड़ी ढीली पड़ी, परंतु रोग पुराना होने के कारण मनुष्य के अंदर व्याप्त है। यह केवल कुछ महापुरुषों के प्रयत्नों से मुक्त नहीं होगा। मनोरोग से पीड़ित प्रत्येक व्यक्ति को इस रोग से मुक्त होने की तीव्र इच्छा होनी चाहिए। “जाति तोड़ो अहंकार छोड़ो” केवल ऐसी घोषणाओं से, आंदोलनो से यह रोग संपूर्ण समाज से नहीं जाएगा। इसके लिए जालिम उपाय करना पड़ेगा। रोग मुक्त तथा बंधुत्व के नाते से भरपूर एकसंध समाज निर्माण होने तक धीरज रखकर दीर्घकाल तक दवाई लेनी पड़ेगी। हम किसी असाध्य रोग की दवाई ले रहे हैं, ऐसा नहीं लगना चाहिए। होम्योपैथिक की दवाई के समान उपचार होना चाहिए। साबूदाने जैसी शक्कर की गोली खाते समय हम औषधि खा रहे हैं, ऐसा लगता भी नहीं है।
संघ निर्माता डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने समाज की विघटित अवस्था तथा पराजय का गहन चिंतन किया था। ऊंच-नीच तथा अस्पृश्यता निर्माण होने के कारण समाज के लोग एक दूसरे से दूर हो रहे थे। वर्ण श्रेष्ठता का भाव तो था ही। जाति-उप जाति का भेद भी भरा हुआ था। मुंबई में धारावी बस्ती सर्व परिचित है। मरे हुए जानवर के शरीर की खाल निकालने वाला एक परिवार और उस चमड़े से चप्पल बनाने वाला दूसरा परिवार! यह दोनों परिवार एक दूसरे के घर नहीं जाते, पानी नहीं पीते। उनके बीच रोटी का व्यवहार नहीं है, बेटी व्यवहार तो दूर की कौड़ी। यदि भेदा-भेद खोजने जाए तो दलदल में पैर गहराई में ही धँसता जाएगा।
डॉ. जी का निरीक्षण, विश्लेषण, निष्कर्ष सभी से अलग व सभी को जंचने वाला था। “समाज के बन्धुओं का एक दूसरे से दूर जाने का स्वभाव बन गया था”। ऐसा कौन सा विषय है कि जिस पर मतभेदों से ऊपर उठकर एक साथ आने की प्रेरणा सबको मिले। भारत हमारी माता है, हम सब उसकी संतान हैं, भारत माता को वैभवशाली बनाना यह हमारा कर्तव्य है। यह विचार हमेशा पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरणा देता रहेगा। डॉक्टर जी ने प्रयोग के रूप में संघ शाखा प्रारंभ की। डॉक्टर जी ने और एक प्रेरणा सूत्र संघ शाखा से जोड़ा- “तू हिंदू मैं हिंदू, हम दोनों बंधु-बंधु”। जाति का वर्ण का विचार ही नहीं। 1 घंटे की शाखा में खेल का बहुत महत्व है। बाल, किशोर, युवा खेल के आकर्षण के कारण संघ शाखा में एकत्रित होने लगे। खेलों में कबड्डी को ज्यादा महत्व है। कबड्डी में आउट हुआ खिलाड़ी फिर से जीवित हो जाता है। “अमरत्व का संदेश देने वाला खेल”। अस्पृश्यता का नामो निशान नहीं! कबड्डी याने समरसता का जलप्रपात। संघ शाखा यानी होम्योपैथि की शक्कर की गोली।
“तत्व मसि” इस शाश्वत सत्य के प्रकाश में शाखा चलती है। “दूसरों की चिंता करना” यह शाखा की सफलता की चाबी है। बंधु मानकर एक दूसरे के यहां सहज आना जाना, कठिन समय में एक दूसरे की सहायता करना, कोई बीमार है तो उसकी विशेष चिंता करना, यह शाखा की सफलता का राज है। एक संघ स्वयंसेवक का दूसरे संघ स्वयंसेवक की रसोई तक संपर्क होना चाहिए। संघ शाखा यानी समरसता का व्यवहार। “मैं नहीं तू ही” का आचरण यानी संघ शाखा।
शरीर में रक्त संचार का जो महत्व है उतना ही समाज में समरसता का। रक्त वाहिनियों में कोई ब्लॉकेज होता है तो एंजियोप्लास्टी या ओपन हार्ट सर्जरी कराना पड़ती है। डॉ. बाबासाहेब ने बायपास सर्जरी (ओपन हार्ट सर्जरी) कर बुद्ध धर्म का मार्ग खुला किया। समरसता की सरस्वती प्रवाहित कर जो भी छोटे-बड़े अवरोध समाज में हैं उन्हें सरस्वती के प्रबल प्रवाह में प्रवाहित करना होगा। बंधु भाव का “तत्वमसि” यह धार्मिक आधार जागृत करना पड़ेगा। शाश्वत तथा वैश्विक सत्य पर आधारित (आध्यात्मिक सत्य पर आधारित) समाज जीवन की पुनर्रचना करनी होगी।
किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित एकरस हिंदू समाज जीवन निर्माण करना संघ का उद्देश्य है। इस अवस्था को ही संघ “हिंदू संगठन” कहता है।
डॉ. हेडगेवार, श्रीगुरुजी एवं श्री बालासाहब देवरस यह तीनों संघ की प्रारंभिक अवस्था से ही सहयोगी रहे हैं। 1925 से 1994 तक अर्थात संघ के प्रारंभ से ही लगभग 70 वर्ष यही तीन स्वयंसेवक एक के बाद एक परम पूजनीय सरसंघचालक के पद पर रहे। संघ स्वयंसेवकों को उनके द्वारा दिया गया मार्गदर्शन, उदाहरण के रूप में उन्हीं के शब्दों में देखें-
संघ निर्माता पूजनीय डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार –
“हमारा कार्य संपूर्ण हिंदू समाज का होने के कारण समाज के किसी भी अंग की उपेक्षा करना संभव नहीं। सभी हिंदू बंधुओ से हमारे स्नेह पूर्ण संबंध होना चाहिए। किसी भी हिंदू को हीन समझकर उसे अपने से दूर करना पाप है। संघ स्वयंसेवक के मन में इस प्रकार की संकुचित भावना पनपना ही नहीं चाहिए। भारत पर प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति से हमारा व्यवहार बंधुता का ही होना चाहिए। लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं इसको कोई अर्थ नहीं। हमारा व्यवहार यदि आदर्श होगा तो सारे हिंदू हमारी ओर आकर्षित होंगे।”
“संगठन शास्त्र छुआछूत नहीं पहचानता फिर वह ब्राह्मण हो या सफाई कर्मचारी। अमीर-गरीब का भेद संगठन नहीं पहचानता। ब्राह्मण या सफाई कर्मचारी, अमीर या गरीब, विद्वान या मूर्ख ऐसे सब लोगों को संघ में प्रवेश है, फिर वह नागपुर में जन्म लिया हो या गंगोत्री में, संघ में प्रत्येक हिंदू को प्रवेश है।”
“जाति-पाति, अमीर-गरीब, शिक्षित- अशिक्षित, शहरी-ग्रामीण ऐसा कोई भी भेद न मानते हुए हिंदू बांधव संघ में आ सकते हैं”। इसकी अनुभूति शाखा की कार्य पद्धति के कारण स्वयंसेवकों को होने लगी थी। 1934 में वर्धा में हुए संघ शिविर में सभी जातियों के स्वयंसेवक देखकर तथा सबके निवास, भोजन, पीने के पानी की एकत्रित व्यवस्था देखकर महात्मा गांधी भी प्रभावित हुए थे। 1940 में नागपुर में हुए संघ शिक्षा वर्ग में देशभर से आए हुए करीब 1500 स्वयंसेवक बंधुभाव से 40 दिन एकत्र रहे। परम पूजनीय डॉक्टर जी, श्रीगुरुजी एवं बालासाहब देवरस इत्यादि सभी लोग यह देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। भेदभाव रहित, समरस, एकरस हिंदू समाज का यह दृश्य वे अनुभव कर रहे थे।
समरसता की सरस्वती का लुप्त प्रवाह डॉ. हेडगेवार जी की यज्ञाहुति के कारण पुनः प्रवाहित हुआ। श्रीगुरुजी ने उसकी गति और बढ़ाई और उस प्रवाह को संपूर्ण भारत में प्रवाहित किया। 700 शाखाओं की 11000 शाखाएं हो गई। ऐसा ही संघ कार्य बढ़ते जाता तो समरस समाज का चित्र सभी को पहले ही देखने मिलता।
परंतु नियति के मन में संघ शाखाओं के समरस समाज निर्माण करने की कार्यपद्धति को कठोर चुनौती देने की इच्छा क्यों हुई? यह समझ में नहीं आता। महात्मा गांधी की हत्या का झूठा आरोप स्वतंत्र भारत की सरकार ने संघ पर लगाया। शाखाएं बंद हो गई, संघ प्रवाह कम हो गया। संघ हिंसा का समर्थन करता है, वर्ण व्यवस्था-जाति व्यवस्था का समर्थक है, ब्राह्मणवादी है, ऐसा जहर जनमानस में फैलाया गया।
न्यायालय ने संघ को निर्दोष ठहराया। फिर भी बंदी हटाने को सत्याग्रह करना पड़ा। बंदी उठाई गई, शाखा कार्य पुनः प्रारंभ हुआ। एकरस-समरस समाज निर्मिति का ध्येय सामने रखकर संघ शाखाएं पुनः कार्यरत हुई। परंतु पूर्वाग्रह तथा गलतफहमी के कारण समाज व संघ के बीच दूरी बढ़ गई। समरसता के बढ़ते प्रवाह के बदले जगह-जगह जमे हुए गंदे पानी जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई।
ऐसे कठिन काल में डॉ. हेडगेवार द्वारा चुने गए श्री माधव सदाशिव गोलवलकर-
(परम पूजनीय श्रीगुरुजी) सरसंघचालक के पद पर थे। आध्यात्मिक साधना से “एक ही चैतन्य सर्वत्र विराजमान है” की अनुभूति लिए हुए उनका जीवन था। जेल से बाहर आने पर अपने पहले ही प्रवास में उन्होंने संघ स्वयंसेवकों को जो मार्गदर्शन दिया, वह किस प्रकार का था, यह देखें-
1 – ” गत डेढ़ वर्ष रुका हुआ कार्य हम पुनः उत्साह से शुरू करें। हम किसी के भी प्रति द्वेष भाव ना रखें। शुद्ध व पवित्र मन से धीरज रखकर परंतु गति के साथ काम कर संघबंदी के काल की कसर पूरी करना है। अपने ही समाज बंधुओ के प्रति द्वेष तथा घृणा की भावना रखना हमें नहीं भाता। अपने ही दांत एवं अपनी ही जीभ। जीभ को दांतों ने चबाया इसलिए कोई अपने दांतों को नहीं तोड़ता। जो कुछ हुआ, वह सब भूल जायें।
2 – सबको एकत्रित लाकर पंथ और जाति आदि के आधार पर नहीं तो समाज, राष्ट्र का चिरंतन आधार लेकर एक सुसूत्र, एकरस, संगठित समाज खड़ा करना है। किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रखना है। यह संघ का विचार है।
अस्पृश्यता या छुआछूत सवर्णों के संकुचित मन का रोग है। अस्पृश्यता समाप्त करना याने सवर्णों की संकुचित मानसिकता में परिवर्तन करना।
” अस्पृश्यता यह धर्म का अंग है और धर्म का उल्लंघन यह महा पाप है” ऐसी समाज के बहुसंख्य सामान्य जनों की समझ है। स्वत: को उच्च वर्ण का समझने वाले लोग तथाकथित अस्पृश्य व्यक्ति से बराबरी का व्यवहार करने को तैयार नहीं है। राजस्थान में एक हरिजन युवक द्वारा मूंछ रखने के कारण उसे इतना मारा गया कि उसकी मृत्यु हो गई। यह समाचार अभी-अभी समाचार पत्रों में पढा। क्यों? तो मूंछ रखना यह केवल क्षत्रियों का अधिकार है। किसी धर्माचार्य ने इस घटना का विरोध नहीं किया।
4 – ” अस्पृश्यता धर्म को मान्य नहीं” ऐसा धर्माचार्यों ने घोषित करना चाहिए, ऐसा प्रयत्न श्रीगुरुजी ने किया। 1969 के विश्व हिंदू परिषद के उडुपी में हुए अधिवेशन में उपस्थित सभी धर्माचार्यों ने एकमत से यह प्रस्ताव पारित किया की अस्पृश्यता को किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में स्थान नहीं। “हिन्दव: सोदरा सर्वे”। यह मंत्र समाज को दिया।
5. 40 वर्ष पूर्व बनारस हिंदू विद्यापीठ में मैं पढ़ता था। तब एक हरिजन विद्यार्थी ने उसके भोजन की समस्या मुझे बताई। मैंने मित्रों के साथ चर्चा की। सभी ने उस विद्यार्थी की अपने साथ भोजन की निशुल्क व्यवस्था करना मान्य किया। यह व्यवस्था 2 वर्ष चली।
6. जीर्ण शीर्ण जाति व्यवस्था तथा वर्ण व्यवस्था को छोड़कर एक वर्ण निर्माण करने का समय आ गया है। उसी में से नवीन समाज रचना निर्माण होगी।
7. कोई भी प्राचीन व्यवस्था जा रही हो, उसके लिए आंसू बहाने की आवश्यकता नहीं और कोई नई रचना आ रही हो तो उसका आगे बढ़कर स्वागत करना चाहिए। समाज में एकता कायम रखने के लिए यह महत्वपूर्ण है।
पू. बालासाहब देवरस जी कहते थे कि –
“संपूर्ण हिंदू समाज के हित के लिए हिंदू समाज को एकात्मक, चरित्रवान, स्वाभिमानी, पराक्रमी तथा पुरूषार्थी बनाने के लिए संघ कार्यरत है। किसी एक जाति तक वह मर्यादित नहीं रह सकता। सबको अपने अनुभव से यह पता लग गया है कि हम जातिभेद तथा छुआछूत नहीं मानते। चातुर्वर्ण्य हमें स्वीकार नहीं। संपूर्ण हिंदू समाज एक है, समान है, यह प्रारंभ से ही हमारी धारणा है और हम हमारी विशेष कार्य पद्धति से जातिगत दुर्भावना समाप्त कर रहे हैं। मैं गर्व से यह कह सकता हूं कि जाति-जाति, संप्रदाय-संप्रदाय, भाषा-भाषा में जितना सामन्जस्य और सौहार्द संघ में है उतना और कहीं नहीं।”
“सामाजिक विषमता का आविष्कार अस्पृश्यता है। यह हमारे समाज के लिए अत्यंत दुखदायक व दुर्भाग्यपूर्ण है। अस्पृश्यता पाप नहीं है तो विश्व में कुछ भी पाप नहीं है। it must go lock stok and barrell इस देश के उद्धार के लिए हिंदू संगठन आवश्यक है और हिंदू संगठन के लिए सामाजिक समता आवश्यक है”।
जिन्हें एकरस समाज का परिवर्तन चाहिए वे महिलाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते। समाज का 50% भाग महिलाओं का है। समाज का यह भाग दुर्बल रहे यह स्वीकार नहीं।
“उत्पादन से होने वाला लाभ संपूर्ण समाज में इस प्रकार पहुंचना चाहिए कि जिससे सामान्य व्यक्ति का जीवनस्तर बढे।”
आज के संघ का स्वरूप तीन सरसंघचालकों के मार्गदर्शन के अनुसार तैयार हुआ है। समाज के अनेक क्षेत्रों में स्वयंसेवकों ने संस्थागत काम खड़े किए हैं। समरसता तथा एकरसता के संस्थागत कामों में महिलाओं की सहभागिता बढ़ रही है। काम का प्रकार कोई भी हो समरसता तथा एकरसता साध्य करना महत्वपूर्ण है। अंतरजातीय विवाह को संघ का विरोध नहीं है। अनेक स्वयंसेवकों ने ऐसे विवाह किये भी हैं। परंतु उसका प्रचार करना याने जाति न भूलना ऐसा होगा। परम पूज्य श्रीगुरुजी व श्री बालासाहब देवरस ऐसे विवाहों में उपस्थित रहे हैं। आपातकाल में संघ पर प्रतिबंध लगाया गया था। प्रकृति के खेल का अनुभव मिला। 1948 के प्रतिबंध के कारण संघ कार्य की बहुत हानि हुई थी। (महात्मा गांधी की हत्या का झूठा आरोप सरकार ने लगाया था)। 1975-76 के प्रतिबंध के कारण संघ कार्य की ओर देखने का समाज का दृष्टिकोण बदल गया। संघ कार्य दुगनी गति से बढ़ने लगा। वर्तमान में शाखाओं की संख्या 80000 है। समरसता की सरस्वती का प्रवाह प्रत्येक गांव में पहुंचे, ऐसे प्रयत्न चल रहे हैं।
ऐसा लगता है स्वामी विवेकानंद का वचन जल्द साकार होगा। “ईश्वर पर श्रद्धा का शुभ कवच धारण किए हुए दीन दलितों के प्रति अपार करुणा रखने वाले हजारों युवा-युवतियां हिमालय से कन्याकुमारी तक संचार करेंगे, कर रहे हैं। मुक्ति, सेवा, सामाजिक उत्थान, सभी प्रकार की समानता का वे आव्हान करेंगे तथा यह देश पौरुष युक्त होकर उठेगा, ऐसा मुझे विश्वास है।”
“तत्वमसि” यह वैश्विक सत्य ही सामाजिक समरसता, बंधुभाव समतापूर्ण व्यवहार का आधार हो सकता है। “मैं नहीं तू ही” के आचरण से किसी भी प्रकार का भेदभाव शेष नहीं रहेगा।
“बहिष्कृत भारत” के एक अंक में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर लिखते हैं कि “हिंदू धर्म का सिद्धांत ईसाई तथा मुस्लिम धर्म के सिद्धांतों की अपेक्षा कई गुना समता के सिद्धांत का पोषक है। मानव ईश्वर की संतान हैं साथ ही ईश्वर स्वरूप भी है। ऐसा हिंदू धर्म बड़ी निडरता से बताता है। जहां सभी ईश्वर के रूप हैं वहां ऊंच-नीच का भेदभाव करना संभव नहीं। यह हिंदू धर्म का महान ऊर्जा देने वाला तत्व है। समानता का साम्राज्य स्थापित होने के लिए इससे बड़ा आधार मिलना कठिन है।
“तत्व मसि” इस आध्यात्मिक सत्य के बारे में राष्ट्रव्यापी समाज प्रबोधन करना होगा। जो अन्य शाखाएं हैं वे समाज में आए इस हेतु से समरसता गतिविधि के नाम से एक स्वतंत्र विभाग संघ ने प्रारंभ किया है। साधु संत धर्माचार्य आध्यात्मिक प्रबोधन कर सकते हैं। untouchability should go lock, stock and barrel यही राष्ट्रीय इच्छा होनी चाहिए।
-मधु भाई कुलकर्णी