प्रधानमंत्री मोदी पिछले कुछेक महीनों से अपने हर विदेश दौरों में कुंभ पर्व की चर्चा अवश्य कर रहे है।यहाँ वो स्थानीय भारत प्रेमी जनो के संग भारतवंशियों को संबोधित करते हुए उन्हें कुम्भ में सहभागिता का निमंत्रण भी दे रहे है।यही नही ऐसे सभी श्रोताओं को वो इष्ट मित्र परिचित एवं परिजनो के साथ कुंभ दर्शन हेतु भारत यात्रा को प्रेरित भी कर रहे है।आखिर कुम्भ इतना महत्वपूर्ण क्यों है?और क्या कुछ इसकी विशेषता है,इसका विचार करें तो यह मानव इतिहास का सबसे पुरातन,जीवंत एवं जागृत उत्सव है।समय की यात्रा में यह वैधानिक तौर पर अब केवल चार स्थानों पर ही लगता है।जहाँ प्रति छठे वर्ष आंशिक तो हर बारहवें वर्ष में पूर्ण योग वाले कुंभ पर्व का संयोग बनता है।इससे पहले अथवा बाद में कुंभ का आयोजन नही हो सकता है।कुंभ पर्व निर्णय नामक पुरातन ग्रंथ मे कहा गया है –
चन्द्र: प्रस्रवणाद रक्षां सूर्योविस्फोटनाद् दधौ
दैत्येभ्यश्य गुरु रक्षां शौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।
सूर्येन्दु गुरु संयोगास्तद्राशौ यत्र वत्सरे
सुधाकुंभप्लवे भूमौ कुंभो भवति नान्यथा।
वास्तव मे यह उत्सव सूर्य चंद्र और बृहस्पति के संयोग बिना घटित नही हो सकता है।आकाश में अवस्थित इन ग्रहों की दृष्टि जब इस योग के साथ धरती पर कुंभ नगरी विशेष में पड़ेगी तभी कुंभ पर्व होगा।खगोल के इस जटिल और विलक्षण घटना को लेकर पुराणों में स्पष्ट वर्णन है।सर्वाधिक विस्तारित व्याख्या स्कंद पुराण में है ,इस ग्रंथ में कहाँ और कब कुम्भ लगेगा इसे साफ तौर पर
बताया गया है।यहाँ इस संदर्भ में यह श्लोक है –
हरिद्वारे कुम्भयोगो मेषार्के कुम्भगे गुरौ।
प्रयागे वृषस्थे ज्ये मकरस्थे दिवाकरः।
उज्जयिन्यां च मेषार्के सिंहस्थे च बृहस्पतौ।
सिंहस्थेज्ये सिंहेऽर्के त्रयम्बके गौतमी तटे।
कुम्भ आयोजन का सौभाग्य धरती पर केवल हरिद्वार प्रयाग उज्जैन और नासिक नगरी को ही प्राप्त है।कुंभ की पुरातन गाथा अमृत कलश से संबंधित है।वेदों में वर्णित कथा के अनुसार धरती पर ऋषियों द्वारा आहवाहन उपरांत देवी गायत्री इसे लेकर स्वयं प्रकट हुई थी।जबकि पुराण कथानुसार यह समुद्र मंथन से प्राप्त हुआ है।किंतु दोनों ही कथाओं मे इसका उद्देश्य लोककल्याण ही है।कहते है की परपीड़क शोषक व्यभिचारी और दुष्ट दानवों से इसकी रक्षा के क्रम मे अमृत की चंद बूंदे पृथ्वी पर गिर पड़ी थी।अमृत की ये बूंदे जहां जहां धरती का स्पर्श की वो सभी स्थान पतित पावनी सलिलाओं के पावन तट पर अवस्थित तीर्थभूमि है।तब से ही यहाँ कुंभ मेला लगता आया है।इसी का प्रमाण तो यह वैदिक मंत्र है-
चतुरःकुंभांश्चतुर्धा ददामि,
क्षीरेणपूर्णान् उदकेन दध्ना।
अर्थव वेद का यह मंत्र कुंभ का उदघोष जयघोष जयकार और जय जयकार है।यह इसके अति प्राचीन होने का भी पुरातन सनातन प्रमाण है।भारतीय वांग्मय मे सर्वत्र कुंभ की चर्चा है।पुराणों में नारद पुराण से वायु पुराण तक कुंभ गाथा आई है।वायु पुराण अनुसार कुंभ पर्व पर श्राद्ध तर्पण का विशेष महत्व है।वैसे हर कुंभ नगरी का अपना एक अतीत एक प्रमाणिक इतिहास और महत्व है।बात प्रयागराज की करे तो यह तीरथराज है।विश्व इतिहास के सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य रामायण में इस स्थान की सविस्तार चर्चा है।इस महागाथा के सर्वाधिक जनप्रिय लोकप्रिय संस्करण रामचरित मानस मे इसका अदभुत वर्णन है।इसके बालकांड में गोस्वामी तुलसीदास याज्ञवल्क्य- भारद्वाज संवाद के माध्यम से प्रयाग माहात्म्य को प्रगट करते है।यहाँ कहते है की-
पूजहिं माधव पद जलजाता।
परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
अर्थात लोग यहाँ श्री विष्णु के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं।वही कुम्भ व माघ महात्म्य को प्रकाशित करते हुए यहाँ ये कुछ कहा गया है – तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा।जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
तीर्थराज प्रयाग में ऋषि -मुनियों का समाज जुटता है।प्रातःकाल सभी उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान् के गुणों की कथाएँ कहते हैं।यहाँ सर्वत्र साधना एवं भक्तिमय वातावरण होता है।इसलिए रामचरित मानस में कहा गया है-
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं।
पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
मतलब इसी प्रकार सभी माघ के महीने भर स्नान करते हैं और फिर अपने -अपने आश्रम एवं घरों को चले जाते हैं।ठीक ऐसा ही विचार तो आज भी कुम्भ और तीर्थ सेवन का है।लोगबाग आस्था एवं विश्वास के साथ इस पुरातन परंपरा का पालन करते आये है।ऐसे में प्रयागराज का यह पूर्ण कुंभ,महाकुंभ निश्चित ही विशेष है।इसे आगामी मकर संक्रांति से शिवरात्रि तक चलना है।इसको लेकर श्रद्धालुओं मे अतिशय आकर्षण है।उत्तर प्रदेश शासन के पर्यटन विभाग के आँकड़ो की बात करे कुंभ की चर्चा मात्र से ही पर्यटकों की संख्या में भारी उछाल आया है।जितने लोग पूरे वर्ष भर मे पिछले साल प्रयागराज आए थे उतने केवल इस वर्ष के पहले छह माह में ही आ चुके है।इन देशी एवं आ रहे विदेशी यात्रियों का आधिकारिक आँकड़ा करोड़ो में है।ऐसे में प्रशासन आगामी कुंभ में अहिन्दी भाषियों के लिए बहुभाषी यात्री सुविधा वाले कर्मियों की तैनाती कर रहा है।वही कुंभ अब वैश्विक चर्चा का विषय है।यह यूनेस्को की धरोहर सूची से लेकर भारत सरकार द्वारा दुनिया भर में प्रचारति एक विशेष उत्सव है।ऐसे मे सनातन संस्कृति के विश्व संचार मे इसकी भूमिका पर चर्चा तो बनती ही है।दरसल यह वो जगह है जहाँ युग युगांतर से साधु संत बैठ कर विश्व कल्याण मानवीय मूल्यों के स्थापन और प्रकृति संरक्षण के विचारों को लेकर मंथन चर्चा करते आये है।समाज में समरसता सहचर्य सहअस्तित्व सहयोग और आस्तिकता कैसे बढ़े ये भी उनकी प्राथमिकताओं मे रहा है।इसके साथ ही ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ मंत्र के साथ ही इस विश्व को श्रेष्ठ बनाने के सदप्रयास पर भी चर्चायें होती रही है।दानवीर राजा यहाँ इन पावन उद्देश्यों के लिए दिल खोल कर दान करते रहे है।जबकि शूरवीर साम्राज्य के विस्तार को लालायित धर्मप्रेमी शासक आशीष एवं प्रेरणाओं से भर दिग्विजय पर निकलते थे।किंतु सर्वाधिक महती भूमिका साधु समाज की रही है।सनातन धर्म संस्कृति के प्रचार विश्व संचार हेतु उन्हें यही संकल्पित और पुरस्कृत किया जाता रहा है।इसलिए यहाँ के वैराग्य दीक्षा का जहाँ अतिशय महत्व है।यह संतों मे पदवी एवं उपाधियों के वितरण का एक आधिकारिक वैधानिक एवं महत्वपूर्ण स्थान है।
दुनिया भर के हिंदू धर्माचार्य यहाँ आते भले ही पुण्य लाभ के लिए है किंतु ये वो जगह है जो उन्हें एक पहचान सर्वस्वीकृत तथा सम्मान भी दिलाती है।विगत कुछेक दशकों में कई विदेशी मूल के संत और विदेशों में कार्य करने वाले भारतवंशी गुरु कुंभ मेलो मे सम्मानित हो चुके है।इनमें इंग्लैंड के फ्लाइंग योगी नाम से मशहूर भारतविद्या लेखक जेम्स मैलिन्सन है।इनको रामानंद संप्रदाय के बारह भाई त्यागी परंपरा के अंतर्गत महंत की पदवी से प्रयागराज कुंभ में सम्मानित किया गया है।ऐसा ही एक नाम परमहंस स्वामी विश्वानन्द का भी है।मॉरीशस के बिहारी मूल वाले ये भारतवंशी साधु जर्मनी से सनातन धर्म का प्रचार करते है।एक गिरमिट मजदूर परिवार से आने वाले इन स्वामी ने दसियों हजार लोगों को सनातन धर्म के वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित किया है।जर्मनी से लेकर यूरोप के कई देशों में इनके द्वारा स्थापित मंदिरों की संख्या अब 50 से भी अधिक है।इन्हें नासिक कुंभ 2015 मे महामंडलेश्वर की उपाधि मिली थी।इसी प्रकार का एक नाम स्वामी माधवानंद का भी है।
राजस्थान से आने वाले स्वामी माधवानंद ने साम्यवादी दौर के शासन से अब तक पूर्वी यूरोपीय देशों में सनातन धर्म के प्रचार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।इन्हें 1991 हरिद्वार कुंभ में महामंडलेश्वर तो 2001 के प्रयाग कुंभ पर्व मे विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित किया गया है।किंतु ये नाम एकलौते नही है ऐसे कई उदाहरण है।परंतु इससे पूर्व सनातन धर्म का भारत के बाहर प्रचार को लेकर कुछेक बातों को जानना नितांत आवश्यक है।आधुनिक काल में सनातन धर्म योग,वेदांत एवं भक्ति के माध्यम से अभारतीयों के बीच गया है।जिसने समय के साथ हिंदू कर्मकांड और भारतीय रीति रिवाज को भी अंगीकार किया है।सनातन धर्म के इस वैश्विक प्रचार में निश्चित तौर पर स्वामी विवेकानंद,स्वामी शिवानंद और भक्तिवेदांत प्रभुपाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।इन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बल पर इस पुरातन धर्म के लिए भारत के बाहर एक जमीन तैयार की है।किंतु ये नाम ना तो प्रथम और ना ही इकलौते है।
स्वामी श्री आनंद आचार्य नामक एक बंगाली संन्यासी द्वारा पूरा जीवन नार्वे मे गुजार देने की कहानी सामने आई है।यह आधुनिक दौर के पहले ज्ञात हिंदू धर्माचार्य है जिन्होंने नॉर्डिक देशों को अपना ठिकाना बनाया था।बाद के वर्षों में महर्षि महेश योगी उन कुछेक प्रसिद्ध भारतीय आचार्यो मे से एक है जिन्होंने पश्चिम को हिंदू विद्या से चमत्कृत किया है।स्वामी शिवानंद के शिष्यों ने योग विद्या,दयानंद सरस्वती अनुयायियों ने वेद शिक्षा और प्रभुपाद के भक्तों ने भक्ति के सर्वत्र संचार मे कोई कमी नहीं छोड़ी है।गिरमिट कैरेबियन देशों में आर्य समाज का अब भी प्रभाव है।वही स्वामी शिवानंद सरस्वती के अनुयायियों ने भारत के बाहर भी गुणवत्तापूर्ण योग केंद्र इजरायल से लेकर लैटिन अमेरिकी देशों तक खोले है।बात प्रभुपाद के शिष्य प्रशिष्यों की करे तो इनकी उपलब्धि सर्वाधिक मायने रखती है।दुनिया का कोई कोना इनके संकीर्तनों से अछूता नहीं है।जिस प्रकार प्रभुपाद बिना किसी भय के क्रूर शासन के बीच साम्यवादी देशों का दौरा करते थे।ठीक उसी प्रकार उनके ये साधु हर देश में सनातन धर्म की ध्वजा लेकर जा रहे है।रूस कजाकिस्तान और बेलारूस मे इन्हें दमन और विरोध का सामना भी करना पड़ा है।किंतु ये कभी भी इससे विचलित नही हुए है।इसी निष्ठा और समर्पण का परिणाम है की कई इस्कॉन साधुओं ने एक लंबी लकीर खिंची है।
हंगरी के इस्कॉन प्रमुख स्वामी शिवराम को वहाँ अपनी सेवाओं के नाते द्वितीय सर्वोच्चय नागरिक सम्मान मिला है।वैदिक ग्राम,सनातनी हिंदू और मंदिरों की श्रृंखला की दिशा में कार्य प्रभुपाद के शिष्य हर जगह कर रहे है।स्वामी नारायण संप्रदाय के संस्थापक स्वामी सहजानंद जिनका लोकप्रिय नाम स्वामी नारायण था इन्होंने भारतवर्ष के बाहर कभी यात्रायें नही की थी।परंतु इनके अनुचरों ने भारत के बाहर भी विशालकाय मंदिरों की स्थापना की है।भारतीय शिल्पकला के ये अप्रतिम निर्माण पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों से लेकर अफ्रीका महाद्वीप के विभिन्न देशों तक मे है।यही नही रोमन कैथोलिक ईसाई मान्यताओं को लेकर बेहद कट्टर लैटिन अमेरिकी देशों में भी इनके मंदिर खड़े है।
इन सबो के कार्य और प्रयास ने एक ऐसा वातावरण खड़ा किया है जिस नाते सनातन संस्कृति का सर्वत्र संचार हो सकता है।इस नाते रामकृष्ण मिशन से लेकर चिन्मय मिशन तक वेदांत प्रचार को समर्पित आध्यात्मिक संस्थाओं ने दुनिया भर में अपने केंद्र खोले है।योगविद्या मे स्वामी शिवानंद मठ के केंद्र से लेकर प्रसिद्ध योगी आयंगर के योग संगठन मंडल सब खुल रहे है।ऐसे में इन सभी संस्थाओं तक आने वाला हर कदम अंततः सनातन धर्म और भारतभूमि की तरफ ही आना है।इन बड़े आध्यात्मिक संस्थाओं तथा स्वनामधन्य गुरुओं के अतिरिक्त भी कुछेक हिंदू गुरुओं के कार्य निश्चित तौर पर चर्चा योग्य है।इनमें से श्री श्री रविशंकर और सदगुरू जग्गी वासुदेव दो प्रभावी नाम है।रविशंकर अशांत इराक एवं सीरिया से लेकर कोलंबिया तक शांत स्थापना प्रक्रिया के बीच एक बड़े नाम के तौर पर देखे गए है।सामान्यतः ऐसे मसलों मे ईसाइयों के पोप अथवा मुस्लिम जगत के नाम देखने सुनने को मिलते है।बात जग्गी वासुदेव की करे तो वो केवल एक लोकप्रिय हिंदू गुरु ही नही है।वे दुनिया भर के पुरातन संस्कृतियों का प्रमाणों के आधार पर रहस्योद्घाटन भी करते है।पुरातन संरचना एवं चिन्हों के आधार पर लेबनान से रोमानिया तक कई देशों के पौराणिक इतिहास पर उनकी समचीन व्याख्या उपलब्ध है।जिसे अपनी यात्रा एवं वक्तव्यों के द्वारा सनातन धर्म से जोड़ कर प्रस्तुत करते रहे है।बात हिंदू धर्म के वैश्विक प्रचारकों की करे तो ऐसे कुछ नाम भारतीय तो कुछ भारतवंशियों मे से भी है।वैसे इस दौर में उन कुछेक देशों के मानस को समझना भी जरूरी है जहाँ सनातन धर्म तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।
रूस यूक्रेन आयरलैंड लिथुनीय और बुल्गारिया उन कुछेक देशों मे है।बात कारणों की करे तो एक समृद्ध इतिहास, सनातन धर्म से समानता वाला अतीत और अपने पुराने रीति रिवाज को जानने तथा अनुष्ठानों के पुनर्स्थापना हेतु इनका आकर्षक हिंदू धर्म मे जगा है।ऐसा ही कुछ अफ्रीका के घाना और दक्षिण अमेरिका के ग्वाटेमाला देश का भी मसला है।ग्वाटेमाला से पेरू और मैक्सिको तक स्थानीय समुदाय द्वारा हिंदू माया सांस्कृतिक संवाद सम्मेलन शुरू किये गए है।वैसे इस प्रकार के प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा भी शुरू किये गए है।दुनिया भर के पुरातन संस्कृतियों के बीच बंधुत्व भाव लेकर ऐसे वैश्विक आयोजन प्रतिवर्ष कही न कही हो रहे है।बात घाना की करे तो भारत के बाहर वो भी स्थानीय समुदाय के द्वारा सनातन हिंदू धर्म के जबरदस्त प्रचार यह एक विशिष्ट उदाहरण है।घानाई मूल के स्वामी घनानंद सरस्वती द्वारा स्थापित यह मुहिम अड़ोस पड़ोस के देशों में भी अब अपना प्रभाव दिखा रहा है।टोगो मे घाना मूल के स्वदेशी अफ्रीकन हिंदुओं के प्रयास नाते हजारों लोग हिंदू बने है।यूरोप के सर्बिया मे भारतीय मूल के मोहन आचार्य के प्रभाव से करीब पाँचेक हजार लोग हिंदू धर्म की ओर आकृष्ट हुए है।अमेरिकी मूल के कीर्तनकार हृदयानंद गोस्वामी और जमैका से आनेवाले मुजी बाबा के भजनों की थाप पर सर्बिया से पुर्तगाल तक लोग राम शिव का कीर्तन कर रहे है।
बदलते वक्त में भारत के बाहर के भारतवंशी समुदाय से भी कई प्रभावी संतों का आगमन हुआ है।इसमें परमहंस विश्वानन्द स्वामी और भारत से श्रीलंका होते मलेशिया मे बसे परिवार से आने वाले दंडपाणि स्वामी इत्यादि है।जबकि श्रीलंका के जाफना से हुए योगा स्वामी की परंपरा भी चर्चा योग्य है।इस परंपरा के श्वेत मूल के सिवाय सुब्रमुनियस्वामी और बोधिनाथ वेयलास्वामी हवाई द्वीप से न्यूजीलैंड तक शैव हिंदू धर्म के प्रचार हेतु जाने जाते है।ये शैव तालापत्रो पर लिखे आगम साहित्य के संरक्षण से लेकर दुनिया भर के हिन्दू धार्मिक गतिविधियों के संकलन हेतु पत्रिकाओं के प्रकाशन का भी काम करते है।द्रविड़ शैली के कई सुंदर मंदिरों का निर्माण दुनिया के अलग अलग देशों में भी इनके प्रयास से हुआ है।स्वामी दंडपाणि लातिन अमेरिकी देश कोस्टारिका से सनातन धर्म का प्रचार कर रहे है।ये अपने प्रभावी वक्तव्य एवं ऑन लाइन प्रस्तुतियों के लिए भी जाने जाते है।वैसे ब्राजील के जोनास मसेट्टी के नाम बिना ये चर्चा अपूर्ण है।इन्होंने पिछले सात वर्षों में सवा लाख से अधिक लोगो को निशुल्क ऑन लाइन वेदांत शिक्षा दी है।इनके द्वारा भारतीय धर्म विद्या का प्रचार स्पेन के स्वामी अमृत सूर्यानंद और ग्रीस के इस्कॉन प्रमुख दयानिधि दास की तरह ही हो रहा है।योग को यूनेस्को द्वारा सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता हेतु स्वामी अमृत सूर्यानंद ने भारत एवं पुर्तगाल सरकार को सन् 2015 मे प्रस्ताव भेजा था।ये तीनों विदेशी मूल के होने के बावजूद भारतप्रेमी है।इनमें से अमृत सूर्यानंद महाराज को अपनी सेवाओं के लिए भारत का पद्म श्री सम्मान भी मिला है।दरसल हिंदू धर्म के चिन्ह अमेजन की घाटी से पापुआ न्यू गिनी तक सर्वत्र मिलेगा।यही नहीं दुनिया भर के सभी पुरातन संस्कृतियों संग सनातन संस्कृति का एक अदभुत रिश्ता है।
यह संबंध ईश्वरीय अवधारणा से लेकर विभिन्न रीति रिवाज तक परिलक्षित होता है।बहुलतावाद सहअस्तित्व और प्रकृति प्रेम इसका आधार है।ऐसे में हर जगह बीज रूप मे मौजूद सनातन धर्म को बस थोड़े से खाद पानी की आवश्यकता है।इसका प्रयास संत समाज और आध्यात्मिक संस्थाओं के द्वारा एक लंबी अवधि से चल रहा है।जिसका प्रभाव अब अखिल विश्व में दिख भी रहा है।इसी का परिणाम संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब में हिंदू धर्म को लेकर मिली छूट है।अब तो सऊदी प्रिंस के विजन 2030 मे रामायण महाभारत से धर्म ग्रंथ और योग आयुर्वेद के जैसे हिन्दू विद्या पाठ्यक्रम का हिस्सा होने जा रहा है।किंतु हर जगह अनुकूलताये नही है।कई देशों में हिंदू समाज समान व्यवहार और धार्मिक अधिकारों से वंचित है।कई स्थानों पर यह अज्ञानता तो कई स्थानों पर दुराग्रह अथवा पूर्व निर्धारित धारणाओं के नाते भी ऐसा हो रहा है।किंतु ऐसे हर जगह पर सनातन संस्कृति के प्रसार हेतु प्रयास जारी है।इसके लिए वहाँ के स्थानीय भारत विद्या प्रेमी जन तथा अप्रवासी भारतीय,भारतीय उपमहाद्वीप के दूसरे देशों से गये हिंदू अथवा भारतीय मूल के हिंदू लोग सभी की भूमिका प्रशंसनीय है।ऐसे कई नाम चर्चा योग्य है।
इनमें से एक यूरोप एस्टोनिया के इंगवर विल्लेक्लो है जो की एक भारत विद्या प्रेमी लेखक है।इन्होंने न केवल साहित्य के माध्यम से अपना योगदान दिया है। अपितु यहाँ एक सुंदर शिवालय का भी निर्माण किया है।ऐसे ही अर्जेंटीना के गुस्तावो केन्ज़ोब्रे,अमेरिका के डेविल फ्राँउली भी है।ये सब अपने लेखन वक्तव्य एवं गतिविधियों के माध्यम से अपने देशों में हिंदू धर्म की पुरजोर वकालत करते है।ठीक इसी प्रकार थाईलैंड की राजकुमारी महाचक्री और चिरापर प्रपंडविद्या जैसे थाई विद्वान अपने प्रभावी व्यक्तित्व नाते हिंदू धर्म के लिए अतुलनीय सेवा दे रहे है।बात भारतवंशियों के प्रयास की करे बेल्जियम मे वैधानिक मान्यता का मसला और ताइवान मे बने सबका मंदिर इसके दो प्रसंशनीय उदाहरण है।ताइवान के पहले हिंदू मंदिर का निर्माण एक भारतीय मूल के उद्यमी एंडी सिंह आर्य ने कराया है।जबकि बेल्जियम मे हिंदू धर्म के आधिकारिक मान्यता को लेकर प्रयास करने वाले मार्टिन गुरविच एक भारतीय पिता और स्पेनिश माता की संतान है।वैसे भारत के बाहर हिंदू हितों को लेकर काम करने वाले संगठन की भूमिका भी बेहद सार्थक है।म्यांमार मलेशिया से लेकर आधुनिक यूरोप के कई देशों तक ऐसे संगठन सक्रिय है।इनमें म्यांमार का हिंदू सेंट्रल काउंसिल और सनातन धर्म स्वयंसेवक संघ है।इसी प्रकार मलेशिया में
हिन्ड्रॉफ्,यूरोप का हिन्दू फोरम और विश्व भर में काम कर रहे हिंदू स्वयंसेवक संघ इत्यादि है।
ये सभी हिंदू धर्म की सर्वस्पर्शी सह अस्तित्व वाली मूल भावनाओं के साथ वहाँ के लोगों के बीच अपनी गतिविधियों का संचालन करते रहे है।वैसे योग विद्या के वैश्विक मान्यता,आयुर्वेद के बढ़ते चलन और भारतीय नृत्य संगीत,भाषा एवं साहित्य इत्यादि के प्रभाव नाते भी बड़ी संख्या में लोगबाग हिंदू धर्म की ओर आकृष्ट हुए है।मोदी सरकार के प्रयास से योग दिवस और कुंभ पर्व को मिली वैश्विक स्वीकृति भी अति महत्वपूर्ण है।इस नाते कुंभ पर्व का प्रचार संयुक्त राष्ट्र संघ से संबद्ध 194 देशों में हो रहा है।पिछले एक दशक में राष्ट्रीय पुरस्कारों को लेकर भारत सरकार की बदली नीति तथा योग विद्या के वैश्विक प्रचार का प्रयास भी अब परिणाम ला रहा है।पिछले दस वर्ष में दुनिया के कई देशों के उन लोगो को पद्म पुरस्कार मिले है जिन्होंने अपने देश में भारतीय विद्या एवं धर्म का प्रचार प्रचार किया है।इस नाते सऊदी अरब से मिश्र और ईरान,फ्रांस से बोलिविया तक अनेकों सनातन धर्म प्रेमी भारत भक्त पैदा हुए है।भारतीय प्रधानमंत्री मोदी अपनी हर विदेश यात्रा में ऐसे व्यक्ति एवं समूहों से अवश्य मिलते है।इन सभी कारणों से उत्साहमय वातावरण है।बस आवश्यकता ऐसे सभी लोगों के कुंभ पर्व में सहभागिता की है।
ऐसा भी नही है की ये लोग कुंभ में नही आते है।व्यक्ति और समूह के तौर पर इनमें से बहुतेरों का कुंभ मेले में आना होता ही है।कुंभ में आकर उनमें से कईयों को अपने गुरु तो कई यहाँ संन्यास वैराग्य दीक्षा मिलती है।भारत के बाहर के संतों मे से हर नाम को उपाधियाँ भी यही आकर मिलती है।क्योंकि कुंभ उत्सव इसके लिए एक सर्वाधिक उपयुक्त अवसर है।इसके साथ ही कुंभ धर्म नीति धर्म प्रचार से संबंधित संवाद तथा विवादों के निपटारे हेतु भी एक सुअवसर है।बात भारत के बाहर फैल रहे सनातन धर्म की चुनौतियों के बिना पूर्ण नही होगी।चर्चा इन संकटों की करे तो सर्वाधिक बड़ा मुद्दा वहाँ के स्थापित धर्म ओर से खड़े किये जाने वाले अवरोध है।यह विरोध धर्म प्रचार से लेकर धार्मिक गतिविधियों पर रोकथाम तक होता है।इसकी जद में हिंदू संस्था और संत से लेकर वहाँ के आम हिंदू तक सभी होते है।संत एवं संस्थाओं को बदनाम करने के सुनियोजित घृणित प्रयास किये जाते है।
हिंदुओं को उनके संस्कार तक से रोका जाता है।यहाँ तक की अंत्येष्टि और सार्वजनिक तौर पर उत्सवों के मनाये जाने पर रोक है।कई देशों में अब भी शासन की नीतियां अत्यंत भेदभावपूर्ण है।जबकि कई मामलों में उस देश में सक्रिय संत परंपराओं की मनमानी व्याख्या के साथ ही स्वेच्छाचारी व्यवहार भी करने लगते है।ऐसे में इन देशों में सक्रिय हिन्दू संस्था,संत और वहाँ के हिंदू समुदाय के साथ कुंभ में चर्चा नितांत आवश्यक है।तभी सनातन धर्म का वास्तविक विश्व संचार संभव होगा। इसके लिए साधु संत तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदू संगठनों को पहल करनी चाहिए।इस दिशा में भारत सरकार का निमंत्रण भी निश्चित ही सनातन प्रेमी भारत भक्त लोगों को दुनिया भर से कुंभ में आने का एक माध्यम बनेगा।किंतु इस कुंभ मेले को लेकर कुछ सवाल भी है।संतों का आपसी वैमत्य और कोई अहिन्दू कुम्भ मे प्रवेश नही करे ये सब अनुचित है।आवश्यकता समय रहते इनके निराकरण की भी है।तभी कुंभ सार्थक सदुपयोगी और सनातन के विश्व संचार वाला उत्सव होगा।