अखाड़ों का निर्माण राष्ट्र एवं हिन्दू संस्कृति के लिए, देश और काल के अनुसार एक अनुपम देन थी जिसका निर्वाह आज भी उसी गौरव के साथ किया जा रहा है। यही नहीं, नागा संन्यासियों का इतिहास पढ़ने से ज्ञात होता है कि उन्होंने मुगलकाल में मुगल शासकों को अफगानों से बचाने में सहायता की है। बाबूलाल शर्मा का कहना है कि संन्यासी अखाड़ों का निर्माण शास्र और शस्त्र, धर्म तथा सेना, ब्रह्म तथा क्षत्रिय दोनों के समन्वित रूप से हुआ था। वैसे तो आचार्य शंकर ने वैदिक धर्म एवं वेदान्त के प्रचार-प्रसार के लिये समस्त संन्यासियों को संगठित किया था और उन्हें १० वर्गों में विभाजित किया था, जिन्हें तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती, पुरी नामों से जाना जाता है, किन्तु संन्यासी के रूप में तीर्थ, आश्रम, सरस्वती, भारती एवं दण्डी संन्यासियों को ही मान्यता है।
अखाड़ों का उद्देश्य शास्र-पठन, आध्यात्मिक चिंतन एवं मनन के साथ धर्म का प्रचार, सन्त-सेवा व जनता-जनार्दन की सेवा ही माना जाता है।
काल बदला और भारत में यवनों और मुगलों के आक्रमण हुए। मुगलों का शासन स्थापित हुआ। उनकी रीति एवं नीति के कारण हिन्दुओं पर अत्याचार बढ़ गये और हिन्दू धर्म का पतन होने लगा। ऐसी अवस्था में संन्यासियों ने शास्र को छोड़ शस्त्र का सहारा लिया और कई स्थानों पर मुगलों को परास्त किया। संन्यासियों की समुचित शक्ति का उपयोग करने के लिये देश के विभिन्न भागों में अखाड़ों की स्थापना की गई स्वाधीनता संग्राम में भी नागा संन्यासियों ने स्वाधीनता-सेनानी नाना साहब तथा झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ कन्थे से कन्धा मिलाकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने का पूर्ण प्रयास किया था।
कुम्भ में साधु समागम और प्रमुख अखाड़े
भारतवर्ष में कुम्भ पर्व का आयोजन यहां की धर्म और संस्कृति का आधार है। देश के चार मुख्य केन्द्रों पर आयोजित होने वाले इस सबसे बड़े जनसमागम में हिन्दुओं द्वारा संरक्षित साधु और संन्यासी, संत और महात्मा अत्यधिक संख्या में भाग लेते हैं। यह दृश्य एक विशाल मेले के रूप में दिखाई पड़ता है, जो कुम्भ मेले के नाम से प्रसिद्ध है। मेले में आने वाले अनगिनत साधु और संन्यासियों का एक संगठित स्वरूप भी भारत में मिलता है, जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि पारिवारिक बंधनों व सुखों को त्याग कर रहने वाले इन संतों का आश्रय स्थल भी संपूर्ण भारतवर्ष है। साधु-संन्यासी भारत में हिन्दुओं के प्रतिनिधि के रूप में देश के हर कोने में व्याप्त हैं। इनका कोई घर-परिवार नहीं होता है। कुम्भ मेले में इनके संगठित स्वरूप को देखा जा सकता है जहां ये मेले के आकर्षण का केन्द्र होते हैं। अखाड़े, मठ, आश्रम और हिन्दू देव मंदिर इनके निवास स्थल होते हैं। भारत में इनके वर्तमान संगठित स्वरूप का इतिहास भी बहुत प्राचीन है। नागा साधु और संन्यासी भारतवर्ष में हिन्दु के सर्वाधिक पवित्र व्यक्ति माने जाते हैं और कुम्म प्रयाग को इनका सर्वोपरि धार्मिक केन्द्र कहा जा सकता है। साधु, संन्यासी, संत, महात्मा, वैरागी, त्यागी, तपस्वी, योगी, बाबा इनके पर्यायवाची नाम है। गृहस्थ आश्रम का परित्याग कर तपस्या और साधना द्वारा ये प्रकृति के रहस्यों और विज्ञान का उद्घाटन करते हैं। साधु अपने शेष जीवन में ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करते हैं।
कुम्भ पर्व के अवसरों पर इनकी जीवनचर्या और संगठनों का स्वरूप देखने को मिलता है। मेले में आने वाले हिन्दू गृहस्थ इनके प्रति आस्थावान दिखायी देते हैं। पर्व के विशेष अवसरों पर इनका दर्शन शुभ माना जाता है। स्नान पर्वों पर ये अपने अखाड़ों और धार्मिक प्रतीकों के तले नंगे पांव पवित्र नदियों में स्नान के लिये. समूह में निकलते हैं। यात्रा मार्ग में रेत पर पड़ने वाले इनके पदचिह्नों पर हिन्दू गृहस्थ महिलाओं का लेट कर दंडवत करना और उस स्थान की मिट्टी को प्रसाद के रूप में घर ले जाना भारतीय हिन्दू जनता की आस्था और धर्मपरायणता को दर्शाता है।
कुम्भ पर्व पर हठयोगी, शारीरिक क्रियाओं का प्रदर्शन करने -वाले साधु और तपस्या या साधना में लीन संन्यासी भी तीर्थयात्रियों के आकर्षण के मुख्य केन्द्र होते हैं। पारिवारिक बंधनों का परित्याग करने वाले इन संतों को हिन्दू गृहस्थ आदर की दृष्टि से देखते हैं और ‘सिद्धि’ के लिए भटकने वाले, स्वर्ग में स्थान की कामना करने वाले, सांसारिक सुखों की इच्छा करने वाले, इनसे आशीर्वाद प्राप्त करने को उत्सुक रहते हैं। ये संत अखाड़ों में अपनी परिपाटी एवं धार्मिक पूजा पद्धति के अनुसार रहते है तथा कुम्भ के विशेष स्नान पर्वो पर शाही शोभायात्रा में सामूहिक स्नान के लिये नदी तट तक यात्रा करते हैं। शाही यात्रा में अखाड़े, साधु-संन्यासी एवं धर्माचार्यं परम्परागत तरीकों से बैंड-बाजे, चांदी के हौदे, छत्र, चँवर, पालकी, रथ और आकर्षक परिधानों में निकलते हैं। शाही शोभायात्रा में नग्न चलने वाले संतों की एक लम्बी कतार देखने को मिलती है, जो: कुम्भ पर्वो का मुख्य आकर्षण होती है।
कुम्भ पर्व साधु-संत के मेला क्षेत्र में प्रवेश के बाद ही आरम्भ होता है। अखाड़ों में विशेषकर श्री पंचदशनाम जूना अखाड़े के संन्यासी बहुचर्चित रहते हैं तथा शैव मतावलम्बी दशनामी अखाड़े के साधु वरीयताक्रम में प्रथम स्नान करते हैं। कुम्भ पर्वा पर साधु-संन्यासियो को चार श्रेणियों में देखा जा सकता है : शैव (नागा संन्यासी), वैष्णव (वैरागी मुण्डी), उदासी तथा निर्मल-
शैव मतानुयायी (नागा संन्यासी) : इनके निम्नलिखित अखाड़े है–
1. श्री तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, पंचायती
2. श्री पंचायती आनन्द अखाड़ा,
3. श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा
4. श्री पंच आवाहन अखाड़ा
5. श्री अग्नि अखाड़ा
6. पंचायती अखाड़ा महा निर्वाणी
7. श्री पंच अटल अखाड़ा
वैष्णव मतानुयायी (वैरागी) साधुओं के अखाड़े-
8. निर्मोही अखाड़ा 9. दिगम्बर अखाड़ा 10. निर्वाणी अखाड़ा
उदासी
11. नया पंचायती उदासीन अखाड़ा 12. बड़ा पंचायती उदासीन अखाड़ा
निर्मल
13 . निर्मल अखाड़ा
इन अखाड़ों का एक केन्द्रीय संगठन ‘अखाड़ा परिषद्’ है। कुम्भ पर्व को मेले के रूप में देखने पर यह कहा जा सकता है कि साधु-संन्यासी कुम्भ पर्व के केन्द्र होते हैं और इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि कुम्भ पर्व पर साधु नहीं तो कुम्भ नहीं।