भारत को चिरयुवा है देश कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि भारत के ज्ञात इतिहास से अब तक भारत में लगभग एक चौथाई जनसंख्या युवाओं की रही है। आज भी भारत विश्व का सबसे युवा देश है। सुनने में तो यह बात बहुत अच्छी लगती है परंतु यह उस पीढ़ी का कर्तव्य बढ़ा देती है, जिन पर इन युवाओं को तैयार करने का उत्तरदायित्व होता है। हर पीढ़ी का युवा उस बहती हवा की तरह होता है जिसका सही उपयोग किया गया तो वह पवनचक्की से बिजली उत्पन्न करेगा और गलत दिशा में बहा तो स्वयं तो दूषित होगा ही सामने जो आएगा उसे भी ध्वस्त कर देगा। भारत में महापुरुषों की एक लम्बी श्रृंखला रही है।
उन सभी ने अपने जीवन के जो भी सर्वोत्तम कार्य किए वे अपनी युवावस्था में ही किए और साथ ही बदलते देश, काल, परिस्थिति के अनुसार अगली पीढ़ी के युवाओं के लिए कुछ मानदंड भी बनाए। भारत का युवा कैसा हो? इस प्रश्न के संदर्भ में उन सभी के अपने विचार हैं, अपना दृष्टिकोण है. परंतु यदि किसी के विचार कालातीत हैं तो वे हैं स्वामी विवेकानंद के। वे हर पीढ़ी के युवाओं के लिए आदर्श रहे हैं। उन्होंने भी भारत के युवाओं के सम्मुख कुछ मानदंड रखे हैं। उनके मानदंड युवाओं को उत्तम मनुष्य बनाते हैं। अतः वे कभी भी पुराने नहीं लगते। कई बार यह बात कही जाती है कि युवाओं को गढ़ना भगवान की मूर्ति को गढ़ने जैसा है जिसके लिए ‘मार’ और ‘आधार’ दोनों आवश्यक है, परंतु एक बात और ध्यान देने योग्य है कि न भगवान की मूर्ति को निर्जीव माना जाता है और न ही युवा निर्जीव होते हैं। भगवान की मूर्ति में भी सजीवता लाने के लिए उसकी प्राणप्रतिष्ठा की जाती है, दृष्टि के लिए नेत्र लगाए जाते हैं, उनके समक्ष नित्य मंत्रोच्चार किया जाता है और उन्हें उत्तम भोग लगाया जाता है। इसके बाद ही वह उपास्य बनती है।
उसी तरह युवाओं को सही अर्थों में सजीव बनाने के लिए उनमें शुद्ध आचरण, शारीरिक बल और अनुशासन की प्राण प्रतिष्ठा करनी होती है. उचित दृष्टिकोण विकसित करना होता है. नित्य राष्ट्रभक्ति का मंत्रोच्चार करना होता है और शुद्ध विचारों का आहार देना होता है। इससे जो युवा तैयार होते हैं वे ही अपना, समाज का और राष्ट्र का उत्थान कर पाते हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी का पदि विश्लेषण किया जाए तो कुछ आयामों जैसे तकनीक, विज्ञान, तर्क शास्त्र आदि में वे जन्मतः उन्नत हैं और कुछ आयामों जैसे इतिहास, अध्यात्म, सांस्कृतिक पहचान आदि में भ्रमित हैं। उनका बौद्धिक स्तर पिछली कुछ पीढ़ियों की तुलना में बहुत अधिक है, परंतु प्रतिस्पर्धा तनाव, पराजय आदि के कारण उत्पन्न होने वाली निराशा से जीतने में उनकी मानसिकता बहुत कमजोर पड़ जाती है। वे विदेशों में जाकर अपने सपने पूरे करना चाहते हैं, परंतु भारत की स्वर्णिम धरोहरों से अनभिज्ञ हैं।
ऐसे में उन्हें संस्कारित करने का दापित्व उनके परिवार और समाज का है। इसका बीड़ा कुछेक महापुरुषों पर नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज पर है। संस्कार करना किसी फैक्टरी में रंग चढ़ाने जितना आसान नहीं है। ये संस्कार बताकर नहीं किए जा सकते, वे व्यवहार में दिखाई देते हैं। कचरा इकट्ठा करने वाली गाड़ी का एक वयस्क ड्रायवर गाड़ी शुरू करने से पहले उसे प्रणाम करता है। उसे देखकर उसके सभी युवा साधी आवाक रह जाते हैं। उनके मनोभावों को पढ़कर वह वयस्क कहता है, गाड़ी कचरे की है तो क्या हुआ, यह हमारे सन्मार्ग से अर्थार्जन का साधन है। दूसरे दिन से वे युवा भी उस कचरे की गाड़ी को प्रणाम करने लगते हैं, ये संस्कार हैं।
युवाओं को समझाने से अधिक समझने की आवश्यकता है। केवल ये कहना कि युवा तो बिगड़ रहे हैं. पर्याप्त नहीं है। उनके बिगड़ने का कारण ढूंढ़कर उसका निरसन करना होगा। युवा यदि इम्स की चपेट में आ रहे हैं तो उन्हें समझाने से अधिक आवश्यक है उस कनेक्शन को ढूंढ़ना जो उन्हें इम्स दे रहा है। युवा यदि किसी महिला की प्रताड़ना कर रहे हैं तो यह देखना आवश्यक है कि उन्हें महिलाओं का सम्मान करने की शिक्षा क्यों नहीं दी गई। वे यदि मोबाइल गेम खेलने या एकांत में रहने के आदी हो रहे हैं तो यह देखना आवश्यक है कि उनकी दिनचर्या में मैदानी खेलों और मित्रों का समावेश क्यों नहीं है।
हाल ही में शतरंज का चैम्पियन बनने वाला गुकेश भी युवा ही है। भारत को स्वर्ण पदक दिलानेवाला नीरज चोपड़ा भी युवा ही है। इनके जैसे और भी उदाहरण हैं। इन युवाओं के सामने निश्चित लक्ष्य था। वे अपने लक्ष्य से हिंगे नहीं. इसके लिए उन्होंने अपनी कई अन्य पसंदीदा बातों को छोड़ा होगा, तब उन्हें सफलता मिली। युवाओं के सामने ऐसे आदर्श होने चाहिए। उन्हें ‘क्या नहीं करना है’ बताने से अच्छा है ये बताना कि ‘क्या करना है’। सकारात्मक विकल्पों का स्वागत हमेशा ही युवा पीढ़ी ने किया है। सामाजिक कार्य करने वाली संस्थाओं में, इस्कॉन या अन्य धार्मिक संस्थाओं में, रक्तदान नेत्रदान जैसे शिविरों का आयोजन करने वालों में, सड़कों पर घूमने वाले जानवरों की देखभाल करनेवालों में बहुत बड़ा युवा वर्ग स्वयंस्फूर्ति से कार्य करता है। उनके इन कार्यों को उनकी ही भाषा में ‘चैनलाइज’ करने की आवश्यकता है और यह काम ही वर्तमान पीढ़ी को करना है। हम सभी अपनी अगली पीढ़ी को, समाज को, अपने राष्ट्र को जैसा देखना चाहते हैं. वैसे ही संस्कार हमें आज के युवाओं में करने होंगे क्योंकि आज हम जो बोएंगे, भविष्य में वहीं काटेंगे।
खुपचं सुंदर सादरीकरण केले आहे
सार्थक विवेचन।साधुवाद।
एक सुदृढ़ एवं प्रगतिशील समाज / देश निर्माण के लिए बहुत ही सुंदर सामयिक एवं यथार्थ विचार।