भारत की सांस्कृतिक धारा में कुंभ महापर्व का अपना वैशिष्ट्य है।ये महापर्व केवल धार्मिक और आध्यात्मिक तपश्चर्या की प्राणवान धरोहर ही नहीं हैं।अपितु भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रकटीकरण और एकात्मता की भावाभिव्यक्ति के श्रेष्ठ आदर्शों को प्रस्तुत करता है। कुंभ का भारतीय समाज में जितना आदर धर्मनिष्ठा के रूप में है। ठीक, उतना ही राष्ट्र की सांस्कृतिक और सामाजिक एकजुटता के साक्षात् दर्शन को निरुपित करने के रूप में भी है। भारतवर्ष में जितने भी पर्व, त्योहार, मेले हैं ; इन सबके पीछे हमारे महान पूर्वजों की अन्तश्चेतना और सामाजिकता की वैज्ञानिकता है। जो सबको एकसूत्र में गुंफित कर सर्जन और निर्माण का पथ प्रशस्त करती है।महीनों चलने वाले कुंभ महापर्व में ईश्वरीय शक्तियों के साक्षात्कार का तो पथ प्रशस्त ही होता है। साथ ही व्यक्तिगत और सामाजिक आचरणों की दशा और दिशा तय होती है।जो समाज जीवन के विविध पक्षों में उपयोगि सिद्ध होती है।
वस्तुत: पवित्र भारत भूमि तो युगों-युगों से ईश्वर की लीला भूमि- पुण्यभूमि रही है। ये वही भूमि है जहां ईश्वर भी मनुज रुप में अवतार लेते रहे हैं। ऋषि- महर्षि अपनी मेधा और तपबल से राष्ट्र को पोषित करते रहे हैं। यहां के कंकर-कंकर में ‘शंकर’ अर्थात् भगवान ‘शिव’ तथा बच्चे-बच्चे में ‘राम’ और बालिका में ‘देवि’ अर्थात् ‘शक्ति’ को देखने और पूजने की दृष्टि और परंपरा विकसित हुई है। प्रकृति के पञ्च तत्वों यथा — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश को ईश्वर माना गया।नदियों को माँ की संज्ञा देकर उनकी पूजा की जाती है। यह अगर कहीं संभव हो सकता है तो वो केवल भारत भूमि ही है। जब-जब पृथ्वी पर अधर्म का भार बढ़ा-तब-तब परमात्मा ने हर युग में अवतार लिए। पृथ्वी के संताप का हरण कर धर्म की संस्थापना की। भारतीय जीवन दर्शन में प्रायः चतुर्युगों और चार पुरुषार्थों की मान्यता है। सतयुग, त्रेता द्वापर और वर्तमान कलियुग तो वहीं — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रुपी चार पुरुषार्थ हैं। भगवान विष्णु के दशावतारों के रुप में ईश्वर ने यहां समय-समय पर हर युग में धर्म का महत् संदेश दिया। प्राणिमात्र के कल्याणार्थ व्यष्टि-समष्टि और परमेष्ठि के एकीकृत स्वरूप को प्रकट किया। इसी धरा धाम में-इसी पुण्यभूमि में भगवान श्रीरामचन्द्र जी और गीतोपदेशक -धर्मोपदेशक भगवान श्रीकृष्ण के आदर्श कण-कण में व्याप्त हुए ।
जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए भारतीय जन-जीवन के अंदर गहरे समाए हुए हैं। इसी लीलाभूमि में ऋषि-मुनियों के तप, त्याग, वैराग्य के महान मूल्यों और आदर्शों से श्रेष्ठ समाज की रचना हुई। ज्ञान-भक्ति और अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित हुई। प्रभु राम के पूर्वज भागीरथ की कठोर तपस्या से ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को माँ गंगा भगवान शिव की जटाओं से होते हुए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुईं। इसी क्रम में समुद्र मंथन के समय अमृत की चार बूंदों में से एक-एक बूंद प्रयागराज और हरिद्वार में गंगा में, एक बूंद उज्जयिनी में क्षिप्रा में और नासिक में गोदावरी में गिरा। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार बृहस्पति के कुंभ राशि में और सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा के किनारे पर कुंभ आयोजित होता है। इसी प्रकार बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने के साथ -साथ सूर्य और चंद्र के मकर राशि में होने पर प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुंभ का आयोजन होता है। वहीं नासिक में गोदावरी के तट पर बृहस्पति और सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर कुंभ का आयोजन होता है। उज्जयिनी में क्षिप्रा तट पर कुंभ बृहस्पति के सिंह राशि में और सूर्य के मेष राशि में प्रवेश करने पर आयोजित होता है। चूंकि दानवों से अमृत कुंभ को बचाने के लिए देवताओं के बीच 12 दिन का संघर्ष चला था। देवों के उन 12 दिनों की मनुष्य के 12 वर्षों के रूप में गणना की गई । इसी विधान के चलते प्रत्येक 12 वर्ष में कुंभ पर्व का आयोजन होता है। प्रयाग राज में कुंभ का वैशिष्ट्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां गंगा-यमुना और सरस्वती तीनों का संगम होता है। श्रीरामचरितमानस में बाबा गोस्वामी तुलसीदास ने प्रयागराज और कुंभ की महिमा के विषय में लिखा —
माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥॥
अर्थात् – माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं
आगे बाबा गोस्वामी तुलसीदास – प्रयागराज की महिमा बतलाते कहते हैं कि —
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥
अर्थात् — पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है? ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया।
भारतीय परंपरा के इन्हीं मानकों और मूल्यों के वाहक कुंभ का महात्म्य और उसकी पवित्रता भारतीय जनजीवन में गहरे रची बसी हुई है। कुंभ पर्व भारत की सहस्त्राब्दियों पूर्व की सांस्कृतिक एकता – एकात्मता, समरसता और अखण्डता का जीवन्त प्रतीक है। कुंभ का सनातन प्रवाह विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में कभी नहीं टूटा। क्रूर-बर्बर इस्लामिक और ब्रिटिश आक्रमणों के कालखंड में भी भारत अपनी ‘स्व’ की पताका को लिए दृढ़ अडिग खड़ा रहा। माँ गंगा की भांति अविरल स्वच्छ, धवल और कान्तिमय स्वरुप में ‘कुंभ पर्व’ प्रवहमान रहा आया। यदि हम गहराई के साथ कुंभ महापर्व के विविध पहलुओं पर दृष्टिपात करें तो कुंभ महापर्व भारत की सांस्कृतिक एकता के शाश्वत संगीत के रूप में दिखाई देता है। जो राष्ट्र की विविधता में एकता की भावना के स्वर को गुंजित करता है।मूल्यों की प्रेरणा-प्रकटीकरण के विराट और अनंत वैशिष्ट्य-स्वरुप की प्राणवान झांकी प्रस्तुत करता है।
कुंभ महापर्व की पावन झंकृति के साथ राष्ट्र माँ गंगा के पावन तट पर विशुद्ध धार्मिकता और आध्यात्मिकता के शंखनाद के यज्ञ- आहुतियों, भजन- संकीर्तन और धर्मानुसार आचरण के साथ भारत गतिशील रहा आया। संतों के आश्रमों में भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक लहराते भगवा ध्वज, वेदमन्त्रों की ह्रदयङ्गम गुञ्जार, संतों के ललाट पर चमकते शैव, वैष्णव , शाक्त और समस्त भारतीय परंपराओं के सुशोभित चंदन ; ये सहज ही दिखाई देने वाले सारे दृश्य अद्भुत-अनुपमेय रहते हैं। यह इसी का पुण्य प्रताप रहा है कि — कुंभ के दौरान विद्वतजनों की सभाओं, धर्मोपदेश और सत्संग के साथ समूचे राष्ट्र की एकता और एकात्मता का मंत्र गंगा तट से भारतवर्ष के कोने-कोने में जाता रहा आया। यह परंपरा भारतीय जन-जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में लोक की जीवनी-सञ्जीवनी शक्ति बन गई।
यदि वर्तमान में देखें तो माघ मास के आने के कई माह पूर्व से ही देश भर में कुंभ, कल्पवास की तैयारियां शुरु हो जाती हैं। राष्ट्र के पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण सभी दिशाओं में निवासरत समूचा समाज माघ मास में कुंभ स्नान-गंगा स्नान के लिए प्रयागराज आता है। हर-हर गंगे, हर-हर महादेव, जय सियाराम, राधे-कृष्ण, राधेश्याम रटता रहता है। गङ्गा स्नान करता है। सूर्य को अर्घ्य देता है। पूजन-अर्चन करता है। अपने को तपाता है। संस्कारित करता है। गङ्गा की पुण्यता से मन-वचन और कर्म की निर्मलता का अनुभव करता है। परमात्मा से एकात्म स्थापित करने के लिए उद्यत होता है। अपनी संस्कृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अपने मूल-वैशिष्ट्य के प्रति गौरवान्वित अनुभूत करता है।जीवन के महत् उद्देश्य के साथ साक्षात्कार करता है। पूर्वजों की महान विरासत के साथ एकात्म होता हुआ लोकमङ्गल की संस्थापना का संकल्प लेता है।
भारत इसीलिए भारत है क्योंकि यह धर्म रुपी आत्मा और संस्कृतिनिष्ठ, प्रकृतिनिष्ठ काया का अनुपमेय सम्मुचय है। ‘यत् पिंडे-तत् ब्रम्हाण्डे’ के साथ ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ की धर्मोदात्त चेतना से संपृक्त है। भारत के इसी वैशिष्ट्यपूर्ण सांस्कृतिक चेतना से समृद्ध और धर्म से अलंकृत कुंभ महापर्व में शुभ्रता और पुण्यता की आभा के साथ भारत के लोक के विराट दर्शन होते हैं। प्रयागराज में महाकुंभ के अवसर पर हम अपने ‘राष्ट्र’ का साक्षात् दर्शन पाते हैं। यहां हर पंथ और उपासना को मानने वाले लोग मिलेंगे। यहां राष्ट्र के हर प्रांत से आने वाले वे लोग मिलेंगे जिनकी बोली और भाषाएं परस्पर भिन्न हैं। वे लोग मिलेंगे जिनके पहनावे, रहन-सहन, खान-पान सब अलग-अलग हैं। वे लोग मिलेंगे जिनकी सामुदायिक और जातीय पहचान अलग-अलग रूप में जानी जाती है। यहां एक ओर वे लोग भी मिलेंगे जिनके पास अथाह संपत्ति है तो एक ओर वे लोग भी दिखाई देंगे जिनका जीवन यापन भी चुनौतीपूर्ण होता है। ज्ञानी-ध्यानी, शहरी- ग्रामीण समेत जितने भी प्रकार की भिन्नताएं होती हैं – वो गङ्गा तट में ‘अभिन्न’ स्वरुप में परिवर्तित हो जाती हैं। फिर महाकुंभ में सारी विविधताएं—एकता के सर्वोच्च मानक के रूप में दिखाई देती हैं।
कुंभ में सबकी अलग-अलग पहचानें तिरोहित हो जाती हैं और सबके सामने एक पहचान अपनी संपूर्ण आभा के साथ आलोकित होती है। वह एक पहचान होती है भारतीय होने की—सनातनी मूल्यों को जीने वाले हिन्दू होने की। यह पहचान एक ऐसी अमिट पहचान होती है।जो तमाम विद्रूपताओं, भेदभावों और पृथकता को समाप्त कर देती है और एकत्व की उद्घोषणा करती है।
भारत मूल रूप से जो है-उसके ‘तत्व’ को ‘सत्व’ को और ‘सत्य’ को प्रकट करती है। फिर कुंभ महापर्व में प्रकट होता है भारत का विराट दर्शन जो भारत के सनातन काल से चले आ रहे सामाजिक और सांस्कृतिक एकत्व को प्रतिबिंबित करता है।कुंभ पर्व केवल आध्यात्मिक होने के भाव में होने का बोध नहीं प्रदान करता है। अपितु कुंभ महापर्व धार्मिकता के साथ सबको एकता के इस मंत्र से दीक्षित करता है —
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
अर्थात् — हम सब एक साथ चलें। एक साथ बोलें। हमारे मन एक हों। प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा । इसी कारण वे वंदनीय हैं।
भारतीय समाज की सामाजिकता के संस्कारों का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यदि देखना है तो महाकुंभ में इसके दृश्य सहज ही दिखाई देंगे। यहां आने वाला हर व्यक्ति केवल धर्म-अध्यात्म, ज्ञान-भक्ति, तपस्या और कर्मनिष्ठा के एक ध्येय को जीने वाला होता है । सबके अंदर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान उदात्त भावना संचारित होती है। यह अपने को विस्तारित करती हुई ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः’ के स्वरूप में दृष्टिगोचर होती है। कुंभ में आने वाला जन-जन लोककल्याण की भावना से ओत-प्रोत रहता है। यहां लोक बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी की ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ भावना के अनुसार आचरण का संकल्प लेता है। साथ ही कुंभ की पावनता में ‘तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु’ को आत्मसात करते हुए प्राणिमात्र के कल्याण के लिए जीवन को समर्पित करने के पथ पर अग्रसर होता है।
कुंभ माँ गङ्गा की पावनता के साथ ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ के मन्त्र को आत्मसात करते हुए समदर्शी होने-समरस होने के तत्वबोध को जागृत करता है। कुंभ महापर्व भारतीय संस्कृति का एक ऐसा सेतु है जो अपने महाविराट स्वरूप में सबको समावेशित करता है। सबको ‘तप’ के तत्वबोध और सत्य के प्रताप से दीक्षित करता है। पवित्र करता है। सामाजिक और सांस्कृतिक एकता के सूत्रों को दृढ़ बनाता है। लोक को उत्सवधर्मिता के बहुरङ्गों और ह्रदय से ह्रदय के बंध को जोड़ता है। ‘स्व’ के मूल्यों को आत्मसात करने और तदानुसार आचरण के लिए प्रेरित करता है। यह कुंभ महापर्व ही है जो-
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ के बोध को जागृत करता है। सत्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और पथ प्रदर्शित करता है। आवश्यकता है कि राष्ट्र अपनी इस गौरवपूर्ण विरासत के साथ गतिमान हो और राष्ट्र निर्माण के पथ पर अग्रसर रहे। कुंभ महापर्व में सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक एकरुपता का जो दर्शन मिलता है उसे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में आचार और व्यवहार में उतारें। सर्जन का ध्येय वाक्य सूत्रवाक्य लेकर जाएं और राष्ट्रीयता के मूल्यों से अनुप्राणित होकर माँ गङ्गा सा अविरल सनातन प्रवाहित होते रहें..।
~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल