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हिंदवी स्वराज्य : एक परिपूर्ण व्यवस्था

हिंदवी स्वराज्य : एक परिपूर्ण व्यवस्था

by हिंदी विवेक
in सामाजिक
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जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत १७३१, तदनुसार अंग्रेजी दिनांक ६ जून १६७४, बुधवार को छत्रपति शिवाजी महाराज का, स्वराज्य की राजधानी रायगड में राज्याभिषेक हुआ. वे सिंहासनाधीश्वर हुए. हिन्दूपदपादशाही की स्थापना हुई. सैकड़ों वर्षों के बाद इस देश में पुनः शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य की नींव रखी गई.

यह साधारण घटना नहीं थी. इस देश का भाग्य बदलने वाला इतिहास, रायगड में लिखा जा रहा था. यह स्वराज्य यूं ही नहीं प्राप्त हुआ था. ‘मुस्लिम आक्रांताओं को परास्त कर, अपना एक राज्य स्थापन करना’, इतना सीमित उद्देश इसका नहीं था. हजारों वर्षों से अक्षुण्ण ऐसी एक समृध्द संस्कृति को, उस संपन्न विरासत को, पुनः प्रस्थापित करने का यह सफल प्रयास था. हिन्दूपदपादशाही, या शिवशाही का अर्थ था, ‘सभी को उचित न्याय मिलने वाला, प्रजा के सुख की चिंता करने वाला, बहू / बेटियों को, बुजुर्गों को उचित सम्मान देनेवाला, लोक कल्याणकारी राज्य.‘ शिवाजी महाराज ने इसके अंतर्गत राज्यव्यवहार के, कुशल प्रशासन के तथा कठोर व निष्पक्ष न्याय के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए.

किसी व्यक्ति का आकलन, उसने किए हुए कार्य पर तो होता ही हैं. किन्तु उस व्यक्ति के जाने के बाद, उस व्यक्ति के सिध्दांतों का, विचारों का समाजमन पर क्या प्रभाव पड़ा, यह महत्वपूर्ण होता हैं. शिवाजी महाराज की मृत्यु हुई सन १६८० में. अगले ही वर्ष, मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी पांच लाख की चतुरंग सेना लेकर स्वराज्य पर आ धमका. सारी जोड़-तोड़ करने के बाद, वह संभाजी महाराज से मात्र २ – ४ दुर्ग (किले) ही जीत सका. आखिरकार छल कपट कर के, ११ मार्च १६८९ को औरंगजेब ने संभाजी महाराज को तड़पा तड़पा के, अत्यंत क्रूरता के साथ समाप्त किया. उसे लगा, अब तो हिंदुओं का राज्य, यूं मसल दूंगा. लेकिन मराठों ने, शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र – राजाराम महाराज के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा. आखिर ३ मार्च १७०० को राजाराम महाराज भी चल बसे. औरंगजेब ने सोचा, ‘चलो, अब तो कोई नेता भी नहीं बचा इन मराठों का. अब तो जीत अपनी हैं.‘

किन्तु शिवाजी महाराज की प्रेरणा से सामान्य व्यक्ति, मावले, किसान… सभी सैनिक बन गए. मानो महाराष्ट्र में घास की पत्तियां भी भाले और बर्छी बन गई. आलमगीर औरंगजेब इस हिंदवी स्वराज्य को जीत न सका. पूरे २६ वर्ष वह महाराष्ट्र में, भारी भरकम सेना लेकर मराठों से लड़ता रहा. इन छब्बीस वर्षों में उसने आग्रा / दिल्ली का मुंह तक नहीं देखा. आखिरकार ८९ वर्ष की आयु में, ३ मार्च १७०७ को, उसकी महाराष्ट्र में, अहमदनगर के पास मौत हुई, और उसे औरंगाबाद के पास दफनाया गया. जो औरंगजेब हिंदवी स्वराज्य को मिटाने निकला था, उसकी कब्र उसी महाराष्ट्र में खुदी.

यह सब कैसे संभव हुआ..? छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात, जो सत्ताईस वर्ष का संघर्ष चला, उस संघर्ष की प्रेरणा थे, शिवाजी महाराज. उन्होने जो विचार दिया, वह सामान्य जनता के हृदय में जा बसा – “यह ईश्वरी कार्य हैं. अपने स्वराज्य का निर्माण यह तो ईश्वर की इच्छा हैं. यह धर्म का कार्य हैं.“

औरंगजेब के पहले तक के लगभग सारे मुगल बादशाहों के नाम, या तो हमे रटे हैं, या फिर उनका उल्लेख बार बार आता हैं. अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ…. वगैरा. लेकिन औरगजेब के बाद..? किसी मुगल बादशाह का कोई नाम स्मरण आता हैं, आपको ? नहीं आयेगा. क्यूंकी औरंगजेब के दफन होने के बाद, मुगल सल्तनत इतनी कमजोर हो गई, की उसको मराठे चलाने लगे. जिस दिन रायगड पर शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हो रहा था, उसी दिन मुगल साम्राज्य की उलटी गिनती प्रारंभ हो चुकी थी.

सन १७१९ में मराठों ने दिल्ली पर धावा बोला. तत्कालीन बादशाह ने घबराकर शरणागति स्वीकार की. उसने मराठों को ‘दिल्ली की सल्तनत का रक्षक’ कहा. वैसा करार (समझौता) उनके साथ किया. बाद में, पानीपत के तीसरे युध्द के बाद भी, सन १८०३ तक दिल्ली के लाल किले पर, हिंदवी साम्राज्य का भगवा ध्वज गर्व के साथ लहरा रहा था.

शिवाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य की एक परिपूर्ण व्यवस्था तैयार की थी. अपने देश में मुस्लिम आक्रांताओं के आने से पहले, राज – काज संस्कृत में, या संस्कृत प्रचुर स्थानिक भाषाओं में होता था. किन्तु मुस्लिम आक्रांताओं ने इस देश के व्यवहार की भाषा को फारसी में बदल दिया. ऐसी भाषा, जो जन-सामान्य को समझती ही नहीं थी. सारे आज्ञापत्र फारसी में ही निकलते थे.

शिवाजी महाराज ने इसको बदला. राज्याभिषेक के समय, उन्होने रघुनाथ पंडित ‘अमात्य’ और धुंडीराज़ व्यास, इन दोनों के माध्यम से ‘राज व्यवहार कोश’ बनवाया. इसमे, दैनंदिन उपयोग में आने वाले सभी फारसी शब्दों के पर्यायवाची संस्कृत और प्राकृत (मराठी) शब्द दिये हुए हैं. स्वराज्य की सभी सूचनाएं और आज्ञापत्र, इस कोश की सहायता से संस्कृत और प्राकृत में लिखे जाने लगे.

इस हिंदवी साम्राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए शिवाजी महाराज ने अष्ट प्रधानों की योजना की. एक प्रकार से मंत्रिमंडल जैसा इसका स्वरूप था. इनके माध्यम से कार्यों का बटवारा और जिम्मेदारियों का विकेन्द्रीकरण अच्छे से होता था. अधिकारियों की जिम्मेदारियां (accountability) भी बनती थी. ये अष्ट प्रधान थे –
१. पंतप्रधान (जिन्हे पेशवा भी कहा जाता था) २. पंत अमात्य (वित्त मंत्री)
३. पंत सचिव (कार्यालय प्रमुख) ४. मंत्री (शिवाजी महाराज के व्यक्तिगत सचिव)
५. सेनापति (सेना प्रमुख) ६. पंत सुमंत (विदेश मंत्री)
७. न्यायाधीश ८. पंडितराव दानाध्यक्ष (धर्मविभाग के प्रमुख)

इन सभी प्रधानों को मिलने वाला वेतन अच्छा खासा होता था. इनको औसत दस हजार से पंद्रह हजार सोने के ‘होन’ (शिवाजी महाराज के समय की मुद्रा. १ होन लगभग ३ ग्राम का होता था.) यह वार्षिक वेतन था. शिवाजी महाराज अपने लोगों की बहुत चिंता करते थे. किन्तु इसी के साथ वे बड़े कठोर अनुशासन की अपेक्षा रखते थे. पन्हालगड (कोल्हापुर) के युध्द के समय, सेनापति नेतोजी पालकर विलंब से पहुंचे. शिवाजी महाराज की रणनीति गड़बड़ा गई. एक हजार मराठे मारे गए. शिवाजी महाराज ने तत्काल प्रभाव से नेतोजी पालकर को बर्खास्त किया.

मिर्झा राजे जयसिंग से पराभव और बाद में उनसे समझौता करना और फिर आग्रा जाना, यह शिवाजी महाराज के जीवन का दुखद अध्याय रहा. इस समझौते में, उन्होने अपने ‘प्राणों से प्यारे’, २३ दुर्ग (किले) मुगलों को दे दिये. ५ मार्च १६६६ को शिवाजी महाराज आग्रा जाने के लिए निकले. १२ मई को वे आग्रा पहुंचे और १७ अगस्त १६६६ को शिवाजी महाराज आग्रा से निकल चुके थे. स्वराज्य में वापस आने के बाद, शिवाजी महाराज ने अपनी इस त्रासदी पर गहन चिंतन किया. आज की भाषा में जिसे SWOT Analysis (Strength, Weakness, Opportunity, Threats) कहते हैं, उसपर विचार किया. आग्रा जाते समय शिवाजी महाराज के पास मात्र १७ दुर्ग (किले) शेष बचे थे. उनके आग्रा प्रवास के दरम्यान, जीजाबाई ने एक किला और जीत लिया था. याने संख्या हुई १८. आने के बाद, पूरे सवा तीन वर्ष शिवाजी महाराज ने इस विषय पर, तथा स्वराज्य की मजबूती पर मनन – चिंतन किया. दुर्ग यह स्वराज्य की सुरक्षा के आधारस्तंभ हैं, यह बात एक बार फिर उन्होने अधोरेखित की.

इसके बाद, शिवाजी महाराज ने कई निर्णय लिए. तब तक स्वराज्य की राजधानी राजगढ़ थी. इसके पास तक शत्रु सेना पहुंच जाती थी. इसलिए, राजधानी की सुरक्षा के लिए, उन्होने दुर्गम पहाड़ पर बनाएं हुए रायगड दुर्ग को अपनी राजधानी बनाया. सवा तीन वर्ष के बाद, उन्होने कोंडाणा (सिंहगड) लेने के लिए तानाजी को कहा. यह उनका १९ वा किला था.

इसके बाद शिवाजी महाराज ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. अगले मात्र ८ वर्षों में, अर्थात १६७८ तक, उन्होने २६० दुर्ग (किले) जीत लिए थे. हिंदवी स्वराज्य, एक मजबूत आकार ले रहा था…!

शिवाजी महाराज यह शक्तिशाली, समृध्द और परिपूर्ण ऐसी हिन्दू संस्कृति के संवाहक थे. अखिल हिंदुस्तान को आक्रांताओं से मुक्त करने का, काशी – मथुरा – अयोध्या को पुनः प्राचीन वैभव दिलाने का उनका स्वप्न था.

१९६१ में, महाराष्ट्र राज्य की स्थापना होने के पश्चात, मुंबई में ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ पर शिवाजी महाराज की भव्य अश्वारूढ़ प्रतिमा का अनावरण हुआ. अध्यक्षता कर रहे थे, तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण. उन्होने अपने भाषण में कहा, “यदि शिवाजी महाराज नहीं होते, तो पाकिस्तान की सीमा, महाराष्ट्र के अंदर होती…”

इसी बात को कविराज भूषण ने बड़े ही प्रखरता से कहा हैं –
देवल गिरावते फिरावते निसान अली ऐसे डूबे राव राने सबी गये लबकी,
गौरागनपति आप औरन को देत ताप आप के मकान सब मारि गये दबकी.
पीरा पयगम्बरा दिगम्बरा दिखाई देत सिद्ध की सिधाई गई रही बात रबकी,
कासिहू ते कला जाती, मथुरा मसीद होती, सिवाजी न होतो तौ सुनति होत सबकी॥
सांच को न मानै देवीदेवता न जानै अरु ऐसी उर आनै मैं कहत बात जबकी,
और पातसाहन के हुती चाह हिन्दुन की अकबर साहजहां कहै साखि तबकी.
बब्बर के तिब्बर हुमायूं हद्द बान्धि गये दो मैं एक करीना कुरान बेद ढबकी,
कुम्भकर्न असुर औतारी अवरंगज़ेब कीन्ही कत्ल मथुरा दोहाई फेरी रबकी,
खोदि डारे देवी देव सहर मोहल्ला बांके लाखन तुरुक कीन्हे छूट गई तबकी.
भूषण भनत भाग्यो कासीपति बिस्वनाथ और कौन गिनती मै भूली गति भव की,
चारौ वर्ण धर्म छोडि कलमा नेवाज पढि सिवाजी न होतो तौ सुनति होत सबकी॥

अगर शिवाजी न होते, तो सुन्नत होत सबकी…!
– प्रशांत पोळ

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