महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर मेरा सर्वस्व समर्पण होता है अपने प्रभु महागुरु सदाशिव विश्वनाथजी के प्रति। यदि परम कारुणिक महादेव मेरे जीवन में नहीं होते तो मेरा यह वर्तमान शरीर केवल कष्ट सहते, विष पीते समाप्त हो जाता।इस सृष्टि में उपलब्धि नामक शब्द मेरे जीवन में नहीं होता। २९ वर्ष की अवस्था तक जीवन को सर्व कष्ट सहते पार किया।राहु की महादशा ने भोजन, शयन, आवास, वस्त्र तक केलिए व्यथित किया। केवल देवगुरु बृहस्पति ने विद्या के क्षेत्र में कभी पीछे नहीं होने दिया।
छात्र जीवन में काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के विश्वनाथ मंदिर में सायंकाल प्रायः विश्वनाथजी का दर्शन करने जाया करता था। मंदिर के विशाल परिसर से ही फूल या पत्ते तोड़कर शिवजी को समर्पित करता था।उन दिनों महाकवि जगद्धरभट्ट के कुछ उलाहना परक श्लोकों को प्रभु को सुनाया करता था।अब समझ में आता है कि वे श्लोक केवल स्तोत्र परक नहीं थे।मूलतः वे उलाहना परक थे।यदि समझदारी होती या असह्य वेदना नहीं होती तो मैं इन श्लोकों को प्रभुको नहीं सुनाता। एक श्लोक निम्नवत् है
सर्वज्ञ शंभु शिव शंकर विश्वनाथ
मृत्युंजयेश्वर मृड प्रभृतीनि देव!
नामानि तेsन्य विषये फलवंती किंतु
त्वं स्थाणुरेव भगवन् मई मन्दभाग्ये।।
प्रभु आपके सार्थक नाम सर्वज्ञ, शंभु, शिव, शंकर, विश्वनाथ, मृत्युंजय, मृड (सुख देने वाला) आदि आपके अन्य भक्तों के लिए फलीभूत होते हैं परंतु मेरे लिए तो आपका स्थाणु नाम ही फलीभूत होता है। स्थाणु के दो अर्थ होते हैं.. अचल और लकड़ी का सूखा ठूंठ। जगद्धर भट्ट कहते हैं.. प्रभु आप मेरे लिए निष्प्रयोजक ठूंठ मात्र हैं। वे आगे कहते हैं…
यद्यपि मैं अपने ही कुकृत्य से अधोगति को प्राप्त हुआ हूं पर कुएं में गिरे पशु को करुण जन बाहर तो निकालते ही हैं।फिर आप ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं। जगद्धर भट्ट अपूर्व भक्त कवि हैं। उनकी ” स्तुतिकुसुमांजलि ” ग्रन्थ शिव के प्रति है जिसके टक्कर का कोई अन्य भक्ति महाकाव्य नहीं है। इन श्लोकों को सुनाने के अतिरिक्त मैं प्रभु विश्व नाथ को स्वरचित हिंदी कविता भी सुनाता था….
क्षितिज के पार से आलोक ले
उषा के हाथ में मेंहदी सजी सी
द्युति तारकों की छट रही
घनकेश पर बिजुरी जुड़ी सी।
नटन कर रश्मियों पर क्रोध से
मही पर छींट दी कुंकुम छवि
लोचन प्रफुल्लित शिव के हुए
तब ले प्रसाद निकला रवि ।
कल जघन पर धर विपंची
रति सेतु पर नव तान गाने
मृड की कलाई थाम कर
सुरभारती आरती के बहाने।
शत वर्ष तक डमरु ध्वनि से
जग का फट बिखर जाए विषाद
जड़ता पर तांडव मानवता का
मिले जगत को शिव प्रसाद ।
श्रद्धा सुमन भर अंजुरी
हे आदि देव! अर्पित तुम्हे
नभ राजियां निज पुंज ले
आजन्म करें गर्वित तुम्हे ।।
मैं भविष्य से सर्वथा अनजान था। कभी नहीं सोचा कि
शिव को दी उलाहना और उनके प्रति स्व रचित भाव से समर्पण का प्रतिदान मुझे अपार यश:संपत्ति को देगा।यह एक अलग विषय है कि१८ वर्ष की आयुसे की जाने वाली प्रार्थना प्रायः ४२ वर्ष बाद फली जब श्री दक्षिणेश्वर विश्वनाथ मंदिर के गर्भ गृह में माता पार्वती के कहने पर अपने इस भक्त का अनुरोध स्वीकार कर प्रभु विराजमान हुए। तब अनायास मुंह से निकल पड़ा….
“” राजराजेश्वर काशीपुराधीश्वर जय श्री दक्षिणेश्वर।।””
“” जय शंकर शांत शशांक..रुचे
वर देंहूं , छवि कभी ना बिसरे ।। “”
फिर वही विद्यार्थी जीवन की प्रार्थना बहुत वर्षों बाद अविकल फूट पड़ी.. क्षितिज के पार से…… ।
कान में एक ध्वनि गूंज उठी …. अभी कोई और उलाहना है? मैं एक कोने में सभी की आंखों से हट कर धारा सार रो रहा था। अपनी भूल का पश्चाताप हो रहा था। ऐसा लगा कोई कह रहा हो…””शिवरात्रि में रात्रि जागरण कर परिवार के साथ मेरा अर्चन करो।जन्म जन्मांतर के पाप धूल जाएंगे। तुम्हारे पापों को काटने केलिए विश्वेश्वरी ने बहुत यत्न किया है। तुमने काशी को प्राप्त कर लिया है।””
२०२१ की महाशिवरात्रि से निरंतर अपने महादेव
” परम कारण कारणाय ” को जागकर परिवार परिजन के साथ अभिषेक का क्रम चल रहा है।
हे विश्वेश्वर! आदिदेव !! आपकी कृपा से हरि हर के पद में मेरी जन्म जन्मांतर में भी अनुरक्ति भक्ति बनी रहे। अब कभी नहीं कहूंगा आप मेरे लिए स्थाणु हैं। एक और निवेदन करुणा सागर,भक्त समुद्धारक शिव आपसे है…
प्रभु दक्षिणेश्वर को कभी नहीं छोड़ेंगे। अन्य जीवन में विस्मरण के बाद भी आपका दर्शन करता रहूं। आप जीवन के पश्चिम वय में मेरे निवेदन पर आए यह मेरा परम सौभाग्य है महादेव। नित्य आपका आभास नई ऊर्जा भर देता है। कभी कमल पुष्प कभी गुलाब,शमी से आपका अर्चन करता रहूं यह प्रतिफल शिवरात्रि जागरण का मिलता रहे।
हे शर्वाणि! हे शर्व!! इस महाशिवरात्रि में भी आप दोनों की उपस्थिति का अहसास मुझे बना रहे,यही याचना है।
तव शरणम् करवाणि महादेव! महादेवि!!