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संघ शाखा: एक विस्तारित परिवार

संघ शाखा: एक विस्तारित परिवार

by हिंदी विवेक
in संघ
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डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार संघ निर्माता कहे जाते हैं। भारत सरकार ने उनके जीवन पर एक ग्रंथ प्रकाशित किया है। अनेक प्रादेशिक भाषाओं में वह अनुवादित है। स्वतंत्रता के लिए चलने वाले सभी प्रकार के प्रयत्नों में उनकी सक्रिय सहायता थी। किसी भी प्रश्न का गहराई से विचार करना यह उनका स्वभाव था। स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए, इसलिए यदि आवश्यक हो तो बलिदान देने की सिद्धता भी होनी चाहिए, परंतु हमारी स्वतंत्रता मूलत: गई ही क्यों? जिस प्रकार ब्रिटिश हमारे नहीं थे वैसे ही मुगल, तुर्क, ग्रीक ये भी पराए ही थे। इन पराए लोगों से संघर्ष करने वाला मूल समाज कौन सा? इस देश को अपना मानने वाला, अपनी मातृभूमि मानने वाला समाज कौन सा?

इस देश को अपने देश का दर्जा देने वाला हिंदू समाज है। हिंदू समाज की आत्मविस्मृति के कारण क्षीण हुई राष्ट्रभक्ति की भावना, इस कारण उत्पन्न समाज की विघटित अवस्था, इसके परिणाम स्वरूप केवल अपना ही विचार करने की संकुचित मानसिकता ही परतंत्रता का मूल कारण है, इस निष्कर्ष पर वे पहुंचे थे। इस कारण हिंदू समाज की आत्मविस्मृति, विघटन तथा संकुचित मानसिकता इन त्रिदोषों से मुक्त करना यह राष्ट्र की उन्नति के लिए आवश्यक है, ऐसा उनका मन उन्हें कहने लगा।

आसेतु हिमालय फैले हुए हिंदू समाज को संगठित करने का ध्येय आंखों के सामने रखकर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।

“हिंदू समाज संगठित करना” ये शब्द, कहने के लिए बहुत सरल हैं।” संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन यह संकल्पना मन को आकर्षित करने वाली है, क्रांतिकारी है।

परंतु व्यावहारिक तौर पर क्या करना? सदस्य कौन होंगे? विस्तार करने के लिए कार्यक्रम क्या करने होंगे? संगठन का स्वरूप क्या होगा? डॉ. हेडगेवार ने कुछ भी लिखित नियमावली तैयार नहीं की। कार्यपद्धति के रूप में रोज की शाखा दी। त्रिदोष दूर करने वाले कार्यक्रम दिए। भगवा ध्वज के कारण आत्मविस्मृति दूर होती है तथा हम सभी हिंदू हैं इसकी अनुभूति उत्पन्न होती है।

सामूहिक कार्यक्रम के कारण विघटन के स्वभाव में परिवर्तन आता है, प्रार्थना के कारण राष्ट्रभक्ति का भाव मजबूत होता है। संकुचित विचारों में परिवर्तन होकर सामाजिक कर्तव्य की भावना निर्माण होती है।

डॉक्टरजी ही संघ निर्माता होने के कारण उनका उठना-बैठना, बोलना, पत्र लिखना, मिलना-जुलना, ये सब संघ के लिए होता था। उनके आचरण से संघ की रीति नीति निर्माण होती गई।

1 – कुमार माधव 11वीं की परीक्षा देकर नागपुर से कोकण जा रहा था। दोपहर को उसकी रेलगाड़ी थी। डॉक्टर साहब बरसात में भी पैदल चलकर उसे विदा करने के लिए रेलवे स्टेशन आए थे। घर पहुंचने पर पहुंचने का संदेश डाक द्वारा भेजने के लिए कहा। वह लड़का संघ के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया। वह पंजाब में संघ का प्रचारक बनकर गया।
( श्री माधवराव मुले)

2 – यवतमाल का नवी कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी छुट्टी के दिनों में अपनी मौसी के घर नागपुर आया था। मौसी के घर के पास ही विद्यार्थी शाखा लगती थी। खेलों के आकर्षण के कारण यह लड़का भी शाखा में आने लगा। डॉक्टर जी जब उस शाखा में गए तब उनकी पहचान उस लड़के से हुई। शाखा के बाद डॉक्टर जी उसके साथ ही मौसी के घर गए। डॉक्टर जी नागपुर में प्रसिद्ध थे। अपने छोटे बच्चों के कारण इतना बड़ा आदमी घर आया, इसका घर के लोगों को बहुत आनंद हुआ। इस लड़के के कारण यवतमाल में एक नई शाखा प्रारंभ हुई।

3 – श्री नानाजी देशमुख (चित्रकूट ग्राम विकास प्रकल्प के प्रणेता) ने अपने स्कूल के समय की यादें लिख कर रखी हैं। वे उस समय छठवीं में पढ़ते थे। श्री गंधे वकील का घर उनके पड़ोस में ही था। एक दिन उनके घर बहुत से लोगों का आना जाना हो रहा था। मालूम पड़ा कि डॉक्टर हेडगेवार वहां आए हुए हैं। डॉक्टर जी को देखा नहीं था, पर उन्हें देखने की इच्छा थी। हमारी परीक्षा थी। चार मित्रों के साथ हम गंधे वकील के यहां गए। डॉक्टर जी ने हम चारों मित्रों को बुलाया और अत्यंत प्रेम से व्यक्तिश: हमारी पूछताछ की। हमारा डर अब समाप्त हो गया था। हम परीक्षा देने जा रहे हैं यह मालूम पड़ने पर गंधे वकील को दही शक्कर लाने के लिए कहा। चारों के हाथ पर दही शक्कर देकर कहा, जाओ, तुम्हारा पेपर अच्छा होगा।

4 – प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य अत्रे ने एक संस्मरण लिखकर रखा है। डॉक्टर जी हमारे यहां आए उनका व्यक्तित्व अति भव्य, गंभीर तथा शांत था। उनके हमारे घर आने पर हमें ऐसा लगता था  कि जैसे हमारे घर का कोई बड़ा व्यक्ति दूसरे गांव से आया है। उन्होंने सहजता से बातचीत प्रारंभ की। वातावरण की औपचारिकता दूर होकर प्रसन्नता महसूस होने लगी।

5 – विदर्भ प्रांत का समरसता महाशिविर हुआ। 30000 से अधिक की संख्या थी।
परम पूजनीय डॉक्टर जी के समय से ही स्वयंसेवक बने हुए 100 -125 प्रौढ़ व्यक्तियों का एक ग्रुप शिविर देखने आया था। पूजनीय सरसंघचालक राजेंद्र सिंह जी और माननीय सरकार्यवाह शेषाद्री जी के साथ परिचय बैठक हुई। माननीय शेषाद्रि जी ने कहा, ” मैंने तथा मा. रज्जू भैया ने पूजनीय डॉक्टर जी को नहीं देखा। आपने देखा है, उन्हें सुना है। आप हमको कुछ बताइए। चार-पांच वरिष्ठ स्वयंसेवकों ने कुछ बताने का प्रयत्न किया, बोलना शुरू करते ही आंसू बहने लगे। “डॉक्टरजी याने प्रेम, प्रेम, प्रेम! इतना कह कर वे नीचे बैठ जाते थे।

संघ का कार्य हमेशा ही स्नेह, प्रेम और आत्मीयता पर आधारित है। “शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है” ऐसा एक गीत शाखा में गाया जाता है। भ्रातृत्व भाव जैसे परिवार में होता है वैसा ही शाखा में भी होता है। परिवार में छोटे-बड़े प्रत्येक व्यक्ति को महत्व होता है। शाखा में शिशु, बाल, तरुण, प्रौढ़ प्रत्येक आयु वर्ग के स्वयंसेवक होते हैं और उन्हें स्वतंत्र महत्व प्राप्त है। परिवार में एक व्यक्ति यदि बीमार हो जाए तो पूरे परिवार को उसकी चिंता होती है। वैसी ही बीमार स्वयंसेवक के संबंध में संपूर्ण शाखा को चिंता होती है। परिवार में मंगल प्रसंग के अवसर पर घर के सभी सदस्य काम करते हैं। शाखा के किसी स्वयंसेवक के घर में यदि कोई बड़ा मंगल प्रसंग हो तो शाखा के अनेक स्वयंसेवक उसके घर काम करते हैं। सबकी ईमानदारी परिवार की आत्मा है। संघ शाखा का आधार स्वयंसेवक की प्रमाणिकता तथा परस्पर विश्वास का है। संघ शाखा याने विस्तारित परिवार! संघ बढ़ रहा है वह शाखा में मिलने वाले सहज आत्मीयता के व्यवहार के कारण ही!

डॉक्टर जी के जीवित रहते अर्थात 1940 तक संगठन को अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त हो चुका था। डॉक्टरजी की आत्मीयता का अनुभव सर्वत्र महसूस किया जा रहा था। हम संघ का याने किसी और का काम कर रहे हैं, ऐसा किसी के मन में भी नहीं आता था। अपने ही परिवार का काम हम कर रहे हैं, यह भावना डॉक्टर जी ने स्वयंसेवक के मन में निर्माण की थी।

1940 के नागपुर के तृतीय वर्ष प्रशिक्षण वर्ग में दीक्षांत समारोह में उनका उद्बोधन यानी हिंदू समाज संगठन के स्वरूप की स्पष्टता/व्याख्यान है। उन्होंने कहा “मेरे एवं आपके बीच यत किंचित परिचय ना होते हुए भी ऐसी कौन सी बात है कि जिसके कारण मेरा अंत:करण व आपका अंत:करण एक दूसरे की ओर आकर्षित हो रहा है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तत्वज्ञान इतना प्रभावी है की जिन स्वयंसेवकों का आपस में परिचय भी नहीं उन्हें भी देखते ही एक दूसरे के विषय में प्रेम निर्माण होता है। बोलते-बोलते क्षण भर में वे एक दूसरे के हो जाते हैं। केवल परस्पर को देखकर स्मित हास्य करते ही उनकी एक दूसरे से पहचान हो जाती है। भाषा भिन्नता और आचार भिन्नता होते हुए भी पंजाब, बंगाल, मद्रास, मुंबई, सिंध प्रांत के स्वयंसेवकों पर परस्पर इतना प्रेम क्यों? तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घटक है इसलिए। अपने संघ में प्रत्येक स्वयंसेवक दूसरे स्वयंसेवक पर सगे भाई से ज्यादा प्रेम करता है।

वर्ग में करीब-करीब एक से डेढ़ हजार स्वयंसेवक थे। वे सब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के “घटक” हैं, ऐसा डॉक्टर जी ने कहा। “सदस्य” हैं ऐसा नहीं कहा। “मैं संघ का सदस्य हूं” ऐसा कहना यानी “मैं” और “संघ” अलग-अलग हैं, ऐसा अर्थ होता है। मेरी इच्छा है तब तक सदस्य रहूंगा। “घटक” हूं ऐसा कहना याने मैं ही संघ हूं। हम सब वर्ग समाप्त होने के बाद संघ के रूप में ही अपने-अपने गंतव्य तक जाने वाले हैं। नवजात बालक भी जन्म लेते ही उस परिवार का घटक हो जाता है, वह बालक यानी संपूर्ण परिवार होता है। मेरा हिंदू समाज में जन्म हुआ, मैं हिंदू समाज का “घटक” हो गया। “घटक” हुआ कहने पर हिंदू समाज का आनंद व मेरा आनंद अलग नहीं हो सकता। ऐसी घटक भावना व्यक्ति-व्यक्ति में निर्माण करना यानी हिंदू समाज संगठन करना है।

“एक बड़ा परिवार हमारा, पुरखे सबके हिंदू हैं” ऐसी पारिवारिक भावना संपूर्ण देश में उत्पन्न हो, यह काम संघ को करना है। 1940 के वर्ग में दीक्षांत उद्बोधन में डॉक्टर जी ने आग्रहपूर्वक इसका प्रतिपादन किया है। हिंदू जाति का अंतिम कल्याण इस संगठन के माध्यम से ही होना है। दूसरा कोई भी काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नहीं करना है। संघ आगे क्या करने वाला है? यह प्रश्न निरर्थक है। संघ यही संगठन का कार्य आगे भी तीव्र गति से करेगा। इस मार्ग पर चलते-चलते ऐसा सुवर्ण दिन निश्चित ही आएगा कि उस दिन संपूर्ण हिंदुस्तान संघमय हुआ दिखेगा।

“संघ विचारधारा और कार्य पद्धति यानी डॉक्टर हेडगेवार जी की कल्पनाओं का उत्तरोत्तर अविष्कार है”
ऐसा स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगड़ी कहते थे। दिनांक 15 जून 1940 को मा. यादव राव जोशी को पास बुलाकर डॉक्टर जी ने पूछा कि “संघ का सबसे वरिष्ठ अधिकारी दिवंगत होने पर उसका अंतिम संस्कार सैन्य सम्मान जैसा करोगे क्या? फिर स्वत: ही स्पष्टीकरण किया। संघ यह एक बड़ा परिवार है। यह कोई सैन्य संगठन नहीं। परिवार के लोग, परिवार प्रमुख का जैसा अंतिम संस्कार करते हैं वैसा ही उसका सरल एवं हमेशा का रूप होना चाहिए।

डॉक्टर जी ने संघ का गणवेश स्वीकार किया। अनुशासन निर्माण हो इसलिए समता (परेड) पथ संचलन (रूट मार्च) जैसे कार्यक्रम स्वीकार किये। आत्मविश्वास बढ़ाने वाले दंड की शिक्षा प्रारंभ की, परंतु इसके पीछे हिंदू समाज का रक्षण करने के लिए इधर-उधर दौड़ने वाले हिंदू समाज के अंतर्गत लड़ाऊ युवकों का कोई दल खड़ा करने की कल्पना डॉक्टर जी के मन में पहले दिन से नहीं थी।

आसेतू हिमालय फैला हुआ यह विराट हिंदू समाज पारिवारिक भावना के साथ खड़ा हो गया तो हिंदू समाज की ओर तिरछी नजरों से देखने की किसी की हिम्मत नहीं होगी और सभी सामाजिक प्रश्न सरलता से हल किये जा सकेंगे।

आवश्यकता को ध्यान में रखकर एक अनाथ विद्यार्थीगृह का प्रारंभ डॉक्टर जी ने नागपुर में किया। इस विद्यार्थी गृह में अस्पृश्यता, जाति भेद को बिल्कुल स्थान नहीं था। इस विद्यार्थी गृह को महात्मा गांधी, सर शंकर नारायण, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय आदि लोगों ने भेंट दी थी। (भारत सरकार प्रकाशन, डॉ हेडगेवार) डॉक्टर हेडगेवार भी बचपन में मां और पिता की मृत्यु होने के कारण एक अर्थ से अनाथ ही थे, परंतु बड़े भाई और उनकी पत्नी ऐसा परिवार था। अनाथ विद्यार्थी गृह प्रारंभ करते समय वह सहज रूप से वहां गए।
“संपूर्ण समाज को ही परिवार के रूप में परिवर्तित करने से ऐसी समस्या का समाधान सहज हो सकता है। कोई भी अनाथ क्यों रहे?”

हिंदू युवा परिषद के लिए डॉक्टर जी पुणे गए थे। डॉक्टर जी को रथ में बिठाकर उनकी शोभायात्रा निकाली गई। शोभायात्रा की इतनी आवाज में भी डॉक्टर जी को उनके रथ के पीछे लकड़ी के आधार से उत्साह पूर्वक दौड़ने वाला एक बालक दिखा। चौक में थोड़ी देर के लिए रथ रुकते ही उन्होंने उस बालक को पास बुलाया और जैसे हम फूल उठाते हैं उतनी सहजता से उसे उठाकर अपने पास रथ में बिठाया। पराया कोई भी नहीं, सभी अपने परिवार के। घूमने वाले, विमुक्त, गिरीवासी, वनवासी, मछुआरे, वंचित, पीड़ित, अपंग सभी अपने, पराया कोई भी नहीं।. शिवरायांचे कैसे बोलणे | शिवरायांचे कैसे चालणे || शिवरायांचे सलगी देणे । कैसे असे || अर्थात   शिवाजी कैसे बोलते थे, कैसे चलते थे, कैसे मेलजोल बढ़ाते थे। समर्थ रामदास स्वामी की इस उक्ति की यहां याद आती है।

“संघ आगे क्या करेगा? यह प्रश्न ही निरर्थक है, संघ इस संगठन कार्य को आगे भी बहुत गति से करने वाला है।” डॉक्टरजी के इस अंतिम उद्बोधन में इस वाक्य की गहराई और भविष्य की चिंता सुलझती दिखाई देती है।

गत 100 वर्षों में संघ को परिवार भावना निर्माण करने में अच्छा यश मिला है। कोई भी प्रांत स्वयंसेवक को पराया नहीं लगता। भाषा बाधा नहीं बनती, जाति बाधा नहीं बनती। किसी प्रांत में कोई आपत्ति आती है तो वहां संपूर्ण देश से सहायता का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है। संघ स्वयंसेवक जहां भी होगा वहां परिवार भावना निर्माण करने का प्रयत्न करता है। कुछ स्वयंसेवक समाज के विशिष्ट वर्ग में काम करते हैं। वहां भी परिवार भावना निर्माण करने का प्रयत्न करते हैं। जैसे किसान परिवार, क्रीडा परिवार, उद्योग परिवार, कला परिवार, शिक्षा परिवार, साहित्य परिवार इत्यादि।

“हिंदू परिवार विश्व परिवार की सबसे छोटी संस्था है। हिंदू परिवार याने केवल पति-पत्नी एवं उनकी संतान इतनी ही कल्पना नहीं है। हिंदू परिवार में मां बाप के साथ ही दादा दादी, काका काकी, मामा मामी, बुआ मौसी, ऐसे रिश्ते तैयार होते हैं। हिंदू परिवार में चंद्रमा मामा होता है। मनी (बिल्ली) मौसी होती है। चिड़िया चीउ ताई होती है। कौवा मेहमान होता है। हिंदू परिवारों में बछड़ों की पूजा, गाय बछड़ों की पूजा, बैलों की पूजा, बड के वृक्ष की पूजा होती है। संपूर्ण मानवता के कल्याण की प्रार्थना,
“सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मां कश्चित दु:खभाग भवेत।

यह हिंदू परिवारों में कहीं जाने वाली प्रार्थना, इसलिए वसुधैव कुटुंबकम की कल्पना प्रस्थापित करना हो तो हिंदू परिवारों को ही आगे आना होगा। भारत के बाहर 60 देशों में हिंदू संगठन का काम शुरू है। हिंदू परिवार का दायरा कितना भी बड़ा हो सकता है।

वसुन्धरा परिवार हमारा हिन्दु का यह विशाल चिन्तन इस वैश्विक जीवन दर्शन से मानव जाती होगी पावन

 

यह संपूर्ण पृथ्वी एक परिवार है और हिंदू जीवन दर्शन संपूर्ण मानवता को पवित्र करेगा।

-मधु भाई कुलकर्णी

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