साहिर लुधियानवी बहुत पहले लिख गये थे : यहाँ इक खिलौना है इंसाँ की हस्ती ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
मुर्दापरस्ती दरअसल एक औपनिवेशिक कंडीशन है। यह उस व्यवस्था में निहित है जिसे हमने सत्तांतरण में प्राप्त किया है। जो सनातन के संस्कार हैं, उनमें चाहे कितने भी अच्छे सम्राट रहे हों, लेकिन उनकी कब्रें नहीं बनीं। लेकिन इस देश पर ऐसे भी लोग आक्रमण किये और सत्ता पर काबिज हुए। उन्होंने शान से अपने मकबरे बनवाए। यों तो कब्रों पर ज़ियारत शिर्क है, लेकिन मजारें भी बनीं और उन पर मन्नत माँगने का रिवाज भी चल पड़ा जबकि हनफी, मालिकी, सलाफी, वहाबी कोई कब्रों पर ज़ियारत और मन्नत का समर्थन नहीं करता।
यहाँ लोग कल की बात भूल जाते हैं तो आठ सौ से लेकर एक हजार साल पुरानी अत्याचार कथा को कौन याद रखता है? पर जिन्होंने भारत पर आक्रमण कर यहाँ अपनी हुकूमत क़ायम की, उन्होंने न केवल ग़ाज़ी की उपाधि धारण की बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि उनके सम्मान में मज़ार बने और सारी रियाया वहाँ सिर झुकाए। आप देखिए कि दो पीढ़ी पहले का अपना पारिवारिक इतिहास भूलकर ज्यादा कट्टर तरह से नये मज़हब को अपना लिया गया। तो जो लोग शताब्दियों से उन मज़ारों पर मन्नत मानते रहे और आज़ादी के बाद के प्रचलनों में जहाँ इतिहास की भारी लीपापोती हुई, हत्यारों की मजार पर मन्नत मांगने की बेवक़ूफ़ियाँ जारी रहीं और उन्हें हतोत्साहित करने की जगह उसकी निरंतरता का एक लॉजिक और बाज़ार विकसित कर लिया गया।
सआदत हसन मंटो अपनी ‘ बातें ‘ करते हुए बताते थे कि “माहिम की तरफ़ एक लंबी सड़क जाती है। सड़क के आख़िरी सिरे पर मुसलमानों की मशहूर ख़ानक़ाह है। मुसलमान मुर्दा-परस्त मशहूर हैं।”
लेकिन जब रियाया को विजेता का सम्मान करना फर्ज बना दिया गया तो हिंदू कहाँ पीछे रहने वाले थे। ग़ाज़ी की उपाधि जिहाद करने पर धारण की जाती थी, पूरे भारत में ग़ाजियों की मजारें बन गईं, तन गईं, मन गईं। सालार मसूद गाजी की ही बात नहीं है, वह तो विजेता भी नहीं था और सुहेलदेव से युद्ध करते हुए मारा भी गया था पर उसके आधार पर दुकान चलाने वाले तो अपने व्यावसायिक हित देख रहे हैं और यह भी देखिए कि इन मज़ारों पर मन्नत मांगने जाने वाले भले हिन्दू हों, पर इनकी प्राधिकारी पकड़ कभी उनकी नहीं है। सालार मसूद छोड़िये, उनके अब्बा हुजूर सालार साहू भी ग़ाज़ी थे और बाराबंकी के सतरिख में उनकी मजार है और वे वहाँ बिरधा बाबा बने बैठे हैं। सालार मसूद के साथी योद्धा हज़रत बुरहानुद्दीन गाजी की उत्तर प्रदेश के तंबौर में मजार है। कन्नौज में शाह शरीफ मुहम्मद गाजी की मज़ार है। गोरखपुर में हजरत शाहिद सालार गाजी की मज़ार है। मालदा में हजरत सैयद अब्दुल्ला गाजी की मजार है।हजरत सैयद नूरुद्दीन मुबारक दिल्ली के गाजी हैं। हजरत सैयद अहमद शाह गाजी जौनपुर की शिर्की सल्तनत के थे तो वहीं उनकी मजार है। मध्यप्रदेश के शिवपुरी में भी एक गाजी की मज़ार है। देश को लूटने वालों के नाम पर मेले चल रहे हैं पर न भगतसिंह का कोई मेला भरता है न राजगुरु-सुखदेव का।
आप इसे भारत के de-historicization का परिणाम कहें, विजेता के सामने की विवशता का सदियों जारी रहना कहें, स्टॉकहोम सिंड्रोम कहें, दासता के संस्कारों का आत्मसातीकरण कहें, स्वातंत्र्योत्तर भारत की शैक्षणिक त्रासदी कहें- पर मज़ारों की यह कुरीति कभी भी उन्मूलन के लायक नहीं समझी गई। एक ऐसे देश में जहाँ श्रद्धा के नाम वह भेड़चाल चलती है जिसका इतना मनोरंजक विवरण श्रीलाल शुक्ल अपनी ‘रागदरबारी’ में कर गये – यह बात किसी को देशद्रोह की तरह नहीं लगी वह तो बात ही अलग है कि जब हम पीढ़ियों के भीतर लुटेरों के सम्मान की मूल्य पद्धति विकसित कर रहे हैं।
आज औरंगजेब के कारण हमें समझ आ रहा है कि कब्रपरस्ती की यह कुरीति की व्याप्ति किस हद तक अपनी पैठ बना चुकी है जबकि वहाँ तो मन्नत वाला आलम भी नहीं था।
यह वह समय है जहां de-historicisation को लेकर बुद्धिजीविता के मन में कोई अपराधबोध नहीं है बल्कि उसका इन्होंने अलंकार बनाकर धारण कर लिया है और इतिहास की सच्चाई बताना यहाँ गड़े मुर्दे उखाड़ने के आरोप को आमंत्रित करता है।
पर कुछ होता है जो बता जाता है कि मुर्दापरस्ती असल में कहाँ है। ख़ालिद अलीग सही कहते हैं कि:
ये क़ौम मुर्दा-परस्ती के फ़न में माहिर है
ये मुझ को रोएगी कल आज इस को रो लूँ मैं
और बैठे हैं हमारे देश में बहुत से जो कब्रपरस्ती के सबसे बड़े संरक्षक रहे हैं। इनका बुना हुआ नैरेटिव ही जैसे प्रगतिशीलता है।
क्यों न हो, अपने को ही गुलाम बनाने वालों को सिर पर चढ़ाकर रखना ही तो प्रगतिशीलता है। इसलिए हमारा ASI अपने सीमित संसाधन भी इन्हीं कब्रों के संरक्षण में व्यय करता है। चलो उनमें से कुछ स्थापत्य कला के उदाहरण हैं तो स्थापत्यकला के कई प्राचीन महान उदाहरणों तक तो वह पहुँचा ही नहीं। न्यूनतम पाँच हजार वर्ष पुरानी सभ्यता के पाँच हज़ार भी स्थापत्य आपको संरक्षणीय नहीं लगते। पर हुमायूं का मक़बरा दिल्ली में हो या अकबर का सिकंदरा में, या खुल्दाबाद में औरंगज़ेब का या दिल्ली में सफदरजंग का या औरंगाबाद में औरंगजेब की बीबी का मकबरा, या सासाराम में शेरशाह का, या दिल्ली में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का या दिल्ली के कुतुब काम्प्सेक्स में अलाउद्दीन खिलजी का, या दिल्ली में ही गयासुद्दीन तुगलक और फीरोजशाह तुगलक का, या बीजापुर में आदिलशाह का या इब्राहीम रौजा का दिल्ली के लोदी गार्डन्स में सिकंदर लोदी का या हैदराबाद में कुली क़ुतुबशाह और मुहम्मद क़ुली कुतुब का- यह सूची बहुत लंबी है पर ये सब ASI के द्वारा संरक्षित हैं।
और जैसे यही पर्याप्त नहीं था। तो सर हेनरी लॉरेंस भी हैं, सर जॉन निकल्सन भी हैं, कार्नवालिस भी, जेम्स आउट्रम, डेविड आख्तरलोनी भी, और तो और क्लाइव भी। यह सूची भी बड़ी है। कनिंघम हों तो समझ में आता है पर सरासर अत्याचारी के भी मुर्दे हम सँभाल रहे हैं।
भारत के आम नागरिक को कब्रपरस्त कहने का हमें क्या अधिकार है? हमने तो उसकी ‘सभ्यता’ और ‘संस्कृति’ इस हद तक विकसित की है कि यदि कोई भारत के किसी अत्याचारी शासक की कब्र का विरोध करे तो उसे ‘सिविलाइजिंग मिशन’ के पूरे न होने की तरह देखा जाता है।
जिन लोगों ने जान वाइक्लिफ की क़ब्र उसकी मृत्यु के इतने वर्षों बाद इसलिए खोद दी थी कि उसने गुमनाम रूप से बाइबिल का अंग्रेज़ी अनुवाद कर दिया था, उनके मानसिक गुलाम भारत के आम नागरिक को उपदेश देने की अदा भी रखते हैं।
हेनरी अष्टम के समय थामस बेकेट की कब्र से हड्डियाँ तक निकलवा लेने वाली सभ्यता के प्रशंसक लोग भारतीयों को सभ्य बनाये बिना कृतार्थ कैसे अनुभव करेंगे।
फ्रांस में विलियम द कांकरर की कब्र के 1562 में क्या हाल किए गये थे ? एक जाँघ की हड्डी पता नहीं कैसे बची रह गई थी तब।
और हम तो एक पीड़ित सभ्यता हैं। दक्षिण अफ़्रीका को औपनिवेशिक गुलामी का शिकार बनाने वाले सेसिल रोड्स की माटापोस पहाड़ी पर बनी कब्र को क्यों ध्वस्त कर दिया गया? स्पेन पर हमला करने वाले अल-मंसूर की मदीना अजहरा में स्थित कब्र को कार्डोबा के पतन के बाद क्यों नष्ट कर दिया गया था? बोल्वेशिविकों ने 1917 में रास्पुतिन की कब्र खोदकर नष्ट भ्रष्ट क्यों कर दी थी? अभी 2020 में जुआन डे ओनेट नामक स्पेनिश विजेता जिसने अकोमा प्यूबेलो वाला नरसंहार किया था, के साथ इतनी शताब्दियों बाद वह सब क्यों हुआ?
उस भावना को समझने की कोशिश कीजिए जिसके कारण आज ये हालात बन रहे हैं। आत्मप्रवंचना तात्कालिक लाभ देती है पर देश के नागरिकों के जज़्बे को दीर्घकालिक नुक़सान पहुँचाती है।
छावा और छलावा दो फरक चीजें हैं।
-मनोज श्रीवास्तव