गौरैया मात्र एक पक्षी नहीं बल्कि हमारे बचपन की सबसे सुंदर स्मृतियों का हिस्सा रही है। हर दिन गौरैया हमारे आंगन, मुंडेरों पर चहकती व फुदकती रहती थी जैसे मानो वो हमारे परिवार की सदस्य हो। विश्व गौरैया दिवस हमें यही याद दिलाता है कि यदि हमने समय रहते कुछ उपाय नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब गौरैया केवल बीते समय की याद बनकर रह जाएगी।
चूं-चूं करती आई चिड़िया, दाना चुगकर फुर्र हुई
बचपन में पढ़ी गई यह कविता आज भी मन में गूंजती है। पुस्तकों में, कहानियों में और हमारे आंगन में, यह छोटी-सी गौरैया कभी हमारी दिनचर्या का हिस्सा हुआ करती थी, परंतु आज यह नन्हीं चिड़िया हमारी यादों में तो बस गई, किंतु वास्तविक रूप से हमारी दुनिया से विलुप्त होती जा रही है।
बचपन की वो गौरैया
हमारे बचपन के दिनों में गौरैया का हमारी जिंदगी में विशेष स्थान था। सुबह-सुबह जब मां चौके में काम कर रही होती तब आंगन में पड़ी गेहूं की ओसरी में गौरैया अपनी चोंच से दाने चुन रही होती। वह एकदम निडर थी, मानो हमारे परिवार की ही एक सदस्य हो। जब हम स्कूल जाने की तैयारी कर रहे होते तब वह खिड़की पर बैठकर हमारी गतिविधियों को देखती, कभी-कभी चहककर मानो हमें विदाई भी देती। गौरैया केवल एक पक्षी नहीं थी, यह हमारे बचपन की मधुर स्मृतियों का हिस्सा थी। जब हम छोटे थे तब दादी-नानी हमें गौरैया से जुड़ी कहानियां सुनाया करतीं। कभी कोई राजा अपनी रानी के लिए गौरैया का गीत सुनना चाहता तो कभी किसी चतुर गौरैया ने अपनी बुद्धिमानी से संकट टाला।
कविताओं में चूं-चूं की गूंज
गौरैया मात्र हमारे आंगन में ही नहीं, हमारी कविताओं और लोकगीतों में भी थी। हिंदी साहित्य में कई कवियों ने इस नन्हीं चिड़िया की चर्चा की है। सुभद्राकुमारी चौहान की कविताओं में, बाल साहित्य में, लोकगीतों में यह एक सजीव पात्र की तरह उपस्थित थी।
चूं-चूं करती आई चिड़िया,
दाना चुगकर फुर्र हुई।
हमने देखा, तुमने देखा,
देखा सबने, दूर गई॥
बचपन में इस कविता को पढ़ते समय कदाचित् ही हमने कभी सोचा होगा कि एक दिन यह चिड़िया सच में इतनी दूर चली जाएगी कि हमारी अगली पीढ़ी के बच्चे इसे देख भी नहीं पाएंगे।
क्यों ओझल हो गई गौरैया?
आज के बच्चों ने कदाचित् ही असली गौरैया को देखा हो। उनका परिचय केवल पुस्तकों में या इंटरनेट पर उपस्थित चित्रों तक ही सीमित रह गया है, किंतु आखिर ऐसा क्यों हुआ?
शहरीकरण और कंक्रीट के जंगल – पहले हर घर में आंगन हुआ करता था, मिट्टी की दीवारें और खपरैल की छतें होती थीं, जहांगौरैया आसानी से अपना घोंसला बना लेती थी, मगर आज हर ओर कंक्रीट की ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, उसके लिए कोई जगह नहीं बची।
मोबाइल टॉवर और रेडिएशन – मोबाइल टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन ने गौरैया के अस्तित्व पर गहरा संकट डाला है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह तरंगें उनके नेविगेशन सिस्टम को प्रभावित करती हैं, जिससे वे अपने घोंसले तक नहीं लौट पातीं।
कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग – खेतों में प्रयोग होने वाले कीटनाशकों से न केवल कीड़े-मकोड़े मर रहे हैं बल्कि वे छोटे पक्षियों के भोजन को भी समाप्त कर रहे हैं। गौरैया की मुख्य खुराक कीड़े और छोटे दाने हैं, जो अब पहले की तरह आसानी से नहीं मिलते।
बदलती जीवनशैली – पहले लोग अपने आंगन में दाना-पानी रखते थे, परंतु आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में ऐसा करने की सोचते भी नहीं हैं।
गौरैया को बचाने का प्रयास
हालांकि कई संगठन और पक्षी प्रेमी गौरैया को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। ‘नेचर फॉरएवर सोसाइटी’ जैसी संस्थाओं ने इस दिशा में काम करना शुरू किया और 2010 में 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत हुई। यह दिन हमें स्मरण दिलाता है कि हम इस नन्हीं चिड़िया को बचाने के लिए कुछ कर सकते हैं।
आज की पीढ़ी, जो मोबाइल और लैपटॉप की स्क्रीन में व्यस्त है, उसने असली गौरैया को कदाचित् ही देखा होगा। उनके लिए गौरैया केवल पुस्तकों में छपे चित्रों या एनिमेटेड वीडियो तक ही सीमित रह गई है, पर क्या हम चाहेंगे कि भविष्य में यह प्यारी चिड़िया पूरी तरह से विलुप्त हो जाए?
हमारा दायित्व बनता है कि हम न केवल इसे बचाने का प्रयास करें बल्कि अपने बच्चों को भी इसके बारे में बताएं। उन्हें गौरैया के महत्व के बारे में बताए, उसकी कहानियां सुनाए और उसे अपने घरों के पास वापस लाने हेतु प्रयास करें।
आज जब हम अपने घर की खिड़की से बाहर देखते हैं तो क्या हमें वह चूं-चूं करती नन्हीं चिड़िया दिखती है? यदि नहीं तो कदाचित् यह हमारे लिए चेतावनी है कि हमें अपने अतीत की इस मासूम याद को वर्तमान और भविष्य में जिंदा रखने की आवश्यकता है। तो आइए, इस विश्व गौरैया दिवस पर एक संकल्प लें – अपने घर के आसपास गौरैया के लिए एक सुरक्षित स्थान बनाएंगेऔर इसकी चहचहाहट को फिर से लौटाएंगे।
– निहारिका पोल सर्वटे