घरों, मुंडेरों, आंगन व छज्जे पर दिनभर फुदकने और मचलने वाली गौरैया की चहचहाहट आखिर क्यों नहीं सुनाई पड़ रही है। क्या गौरैया विलुप्त होने की कगार पर है?
जलवायु परिवर्तन और पक्षियों के बीच सम्बंध तेजी से स्पष्ट होते जा रहे हैं, तापमान में वृद्धि के कारण पक्षियों के निवास स्थान में परिवर्तन हो रहा है, उनके प्रवास के पैटर्न और अंडे देने के समय में परिवर्तन हो रहा है। यहां तक कि उनके शरीर के आकार और आकृति में भी परिवर्तन हो रहा है। विश्व गौरैया दिवस, प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को मनाया जाता है। वर्ष 2025 में विश्व गौरैया दिवस की थीम ‘होप फॉर स्पैरो’ यानी गौरैया के लिए आशा है। आंकड़े बताते हैं कि विश्व भर में घर-आंगन में चहकने-फुदकने वाली छोटी सी चिड़िया गौरैया की जनसंख्या में 60 से 80 प्रतिशत तक की कमी आई है। ऐसा ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है। हालांकि, इसके संरक्षण के प्रति जागरूकता को लेकर दिल्ली सरकार ने 2012 से और बिहार सरकार ने 2013 से गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित कर रखा है। गौरैया को शहरी क्षेत्रों में हरे-भरे हिस्सों और पिछवाड़े में चहकने के लिए जाना जाता है। हालांकि, भयंकर गर्मियों के दौरान, उन्हें ठंडी छाया और पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन वर्तमान में ध्वनि प्रदूषण, आधुनिक इमारतों में घोंसले के स्थलों की कमी, कीटनाशकों के उपयोग और भोजन की अनुपलब्धता के कारण विलुप्त होने के कगार पर हैं। गौरैया की संख्या में कमी के पीछे कई कारण हैं, जिन पर लगातार शोध हो रहे हैं। इनकी कमी के पीछे के कारणों में आहार की कमी, बढ़ता आवासीय संकट, कीटनाशक का व्यापक प्रयोग, जीवनशैली में बदलाव, प्रदूषण और मोबाइल फोन टॉवर से निकलने वाले रेडिएशन को दोषी बताया जाता रहा है, हालांकि, देश के 6 मेट्रो बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता और मुम्बई में इनकी संख्या में कमी देखी गई है, लेकिन बाकी के शहरों में इसकी संख्या स्थिर देखी जा रही है। ऐसे में कहा जा सकता है कि भारत में यह विलुप्त नहीं हैं लेकिन स्थिति ठीक भी नहीं है।
गौरैया की संख्या में कमी के कारणों में आहार, विशेषकर कीड़ों की हो रही कमी को भी माना जा रहा है। कीड़ों की कमी (गौरैया के बच्चों का एक प्रमुख भोजन) इनकी संख्या में कमी का एक बड़ा कारण है। इसके पीछे अंधाधुंध कीटनाशक का प्रयोग को माना जा रहा है। गौरैया अपने बच्चे को फसल, साग-सब्जी, फलों में लगनेवाले कीड़े को खिलाती है। इससे गौरैया के बच्चे को भरपूर प्रोटीन मिलता है। बच्चा अनाज खा नहीं सकता है, लेकिन जिस तरह से फसल, सब्जी, फल, अनाज में कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ा है, उससे उन्हें सही आहार मिल पाने में परेशानी हो रही है। यह कीड़ा उसे खेत-खलिहान, बाग-बगीचा और गाय के गोबर के पास से मिलता है। फसल और साग-सब्जी में कीटनाशक के प्रयोग ने कीड़ों को मार डाला है। ऐसे में गौरैया अपने बच्चे को पालने के दौरान समुचित आहार यानी प्रोटीन नहीं दे पाती है और बच्चे कमजोर हो जाते हैं, साथ ही उसके जीने की आशा पर संकट मंडराने लगता है।
गौरैया के प्रजनन के लिए अनुकूल आवास में कमी को भी इसकी संख्या में कमी का एक कारण माना जा रहा है। खपरैल/फूस के आवासों का तेजी से कंक्रीट में बदलने से स्थितियां बदल गई हैं। शहरों में इनके प्रजनन के लिए अनुकूल आवास नहीं के बराबर हैं। यही वजह है कि एक ही शहर के कुछ क्षेत्रों में ये दिखती हैैं तो कुछ में नहीं। गौरैया संरक्षण में जुड़े लोग कृत्रिम घर बनाकर गौरैया को प्रजनन के लिए आवास देने की पहल चला रहे हैं। इसमें गौरैया अंडे देने के लिए आ भी रही हैं। कई गांव में यह संकट ज्यादा नहीं हैं, फूस और मिट्टी के आवास अभी भी हैं। हाउस स्पैरो यानी घरेलू गौरैया घरों में या आसपास रहती हैं। अंडे देने के लिए घरों के अंदर जगह खोज लेती हैैं, लेकिन आधुनिक जीवन-शैली के तहत घरों के पैक हो जाने से घर के अंदर प्रवेश नहीं कर पाती है और फिर अंडे देने के लिए इसे भटकना पड़ता है इसलिए वो कहीं अन्य जगहों पर स्थानांतरित हो जाती हैं।
-डॉ. ओंकारलाल श्रीवास्तव
महत्वपूर्ण आलेख. गौरैया के अनुकूल वातावरण की आवश्यकता का सार्थक रेखांकन.
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