हिन्दू पंचांग की प्रथम तिथि को ‘प्रतिपदा’ कहा जाता है। इसमें ‘प्रति’ का अर्थ है – सामने और ‘पदा’ का अर्थ है – पग बढ़ाना। नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल ‘प्रतिपदा’ से ही माना जाता है और इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है। आज भी जनमानस से जुड़ी हुई यही शास्त्रसम्मत कालगणना व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी उतरी है। इसे राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक माना जाता है।
विक्रमी संवत किसी संकुचित विचारधारा या पंथाश्रित नहीं है। हम इसको पंथनिरपेक्ष रूप में देखते हैं। यह संवत्सर किसी देवी, देवता या महान पुरुष के जन्म पर आधारित नहीं, ईस्वी या हिजरी सन की तरह किसी जाति अथवा संप्रदाय विशेष का नहीं है। हमारी गौरवशाली परंपरा विशुद्ध अर्थो में प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धातों पर आधारित है और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निरपेक्ष है। प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्रमास के प्रथम दिन ही भगवान ब्रह्मा जी ने सृष्टि संरचना प्रारंभ की। यह भारतीयों की मान्यता है, इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्ष का आरम्भ मानते हैं। वर्ष प्रतिपदा को आध्यात्मिक दृष्टि से भी बहुत पवित्र माना गया है। राकेश सिन्हा जी के अनुसार- “वर्ष प्रतिपदा को महाराष्ट्र में ‘गुड़ीपड़वा’ के नाम से जाना जाता है। यह दिन हिंदू मन, ह्रदय और विवेक को भारत के इतिहास के घटनाचक्र, राष्ट्र की अस्मिता, सांस्कृतिक परंपराओं एवं वीर तथा वैभवशाली पूर्वजों की विरासत का यशस्वी बोध कराता है।“ आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में ‘उगादी’, जम्मू-कश्मीर में ‘नवरेह’, पंजाब, हरियाणा में ‘बैसाखी’ आदि के नाम से जाना जाता है।
भारतीय संस्कृति में ‘वर्षप्रतिपदा’ का महत्त्व
● भगवान ब्रह्मा जी ने इसी दिन सूर्योदय के समय सृष्टि की रचना शुरू की थी।
● राजा विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों और शकों को परास्त कर भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना और विक्रम संवत की स्थापना हुई।
● इस दिन को भगवान श्री राम का राज्याभिषेक दिवस भी माना जाता है।
● शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र का पहला दिन यही है।
● यह सिखों के दूसरे गुरु श्री अंगद देव जी का जन्मदिन है।
● इस दिन स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की।
● सम्राट युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।
● इसी शुभ दिन पर संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन होता है।
● आज यह दिन हमारे सामाजिक और धार्मिक कार्यों के अनुष्ठान की धुरी के रूप में महत्वपूर्ण तिथि बनकर मान्यता प्राप्त कर चुका है। यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने वाला पुण्य दिवस है। हम प्रतिपदा से प्रारंभ कर नौ दिन में छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं, फिर अश्विन मास की नवरात्रि में शेष छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं।
● आज भी भारत में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं।
● यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप धर लेती है। प्रतीत होता है कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती है। मानव, पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेतन हो जाती है। वसंतोत्सव का भी यही आधार है। इसी समय बर्फ पिघलने लगती है। आमों पर बौर आने लगता है। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है।
● श्री गुरुजी वर्षप्रतिपदा पर विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- “नूतन वर्ष के दिन बहुत से सज्जन आगामी वर्ष में कार्यों की कुछ योजना बनाते हैं, बड़े अच्छे-अच्छे निश्चय किया करते हैं और समझते हैं कि उन निश्चयों को लेकर अपना नया वर्ष बिताएंगे, पर अधिकांश के विचार केवल विचार ही रह जाते हैं, कृति से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। मनुष्य जीवन बहुत छोटा है। अतःएव जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ गँवाना अनुचित है।”
भारतीय कालगणना और पंचांग
• एक अंग्रेज अधिकारी ने प. मदन मोहन मालवीय से पूछा कि “कुम्भ में इतना बड़ा जन सैलाब बगैर किसी निमंत्रण-पत्र के कैसे आ जाता है?” पंडित जी ने उत्तर दिया “छः आने के पंचांग से!”
• अपने देश के गाँवों में, शहरों में, वनों में, पहाड़ों पर या भारत के बाहर सैंकड़ों मील दूर विदेशों में हिन्दू कहीं भी रहें वह पंचांग जानता है। अपने त्यौहार, उत्सव, कुम्भ, विभिन्न देवस्थानों पर लगने वाले मेले सभी की तिथियाँ बगैर आमंत्रण, सूचना के उसे मालूम होती है। यहीं नहीं सौ वर्ष बाद किस दिन कहाँ कुम्भ होगा, दीपावली कब होगी, सूर्य एवं चंद्र ग्रहण कब होंगे, यह भी ज्योतिषी किसी समय भी बता सकते हैं।
• काल की गणना दिन व रात, ऋतु तथा वर्ष के किसी न किसी रूप में प्राचीन काल से ही की जाती रही है। वर्तमान में काल की गणना ‘वर्ष’ द्वारा की जाती है, परंतु प्राचीन काल में यह गणना चन्द्रमा के उदय व विकास तथा ऋतुओं के परिवर्तन द्वारा की जाती थी। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ में एक वर्ष में तीन ऋतुओं – शरद, वसंत और हेमंत का होना बताया गया है। ऋतुओं की उत्पत्ति अथवा परिवर्तन सूर्य के कारण होता है। सूर्य को ऋतुओं का पिता कहा गया है। इसी कारण ऋतु चक्र, संवत्सर कहलाते हैं। एक संवत्सर में पाँच ऋतुये होती हैं और ऐसे पाँच ऋतु चक्रों का एक युग होता है। इन ऋतु चक्रों के नाम हैं – संवत्सर, परिवत्सर, इडात्सर, अनुवत्सर और उद्वत्सर। इन पाँच वत्सरो का गणित द्वारा अनुसन्धान कर उनका वर्णन करना पंचांग कहलाता है।
• सामान्य रुप से पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण बताये जाते हैं। पंचांग की मदद से आसानी से यह ज्ञात हो जाता है कि किस दिन क्या तिथि या वार है, वर्ष का आरम्भ कब हुआ, इस समय सूर्य और चन्द्रमा किस स्थान पर हैं इत्यादि इन सभी तथ्यों की जानकारी पंचांग देखने से मिलती हैं।
भारत में संवतों का प्रचलन
• शको के आने के पहले वेदांग ज्योतिष के अनुसार यहाँ वर्ष-गणना की जाती थी, लेकिन अब सूर्य सिद्धांत तथा अन्य सिद्धांत के अनुसार वर्ष गणना की जाने लगी। ई. सन 400 के लगभग तो वेदांग ज्योतिष के अनुसार वर्ष गणना की जानी बिल्कुल बंद कर दी गई। ई. सन 400 व 1200 के बीच सम्पूर्ण भारत में ‘सिद्धांत ज्योतिष’ के अनुसार पंचांग बनने लगे। शक संवत् का प्रचलन सर्वत्र हो गया। राजा अपने नाम से भी संवत् चलाने लगे। प्रायः ये अपनी राजगद्दी पर बैठने के वर्ष से अपना संवत् चलाते थे। ये संवत् या तो सूर्य सिद्धांत, आर्य सिद्धांत या ब्रह्म सिद्धांत पर आधारित थे।
• धार्मिक गणना के लिए सम्पूर्ण भारत में तथा हिन्दू राजाओं के राज्यों में इसी प्रकार वर्ष गणना चलती रही, लेकिन 1200 के बाद जहां जहां मुसलमानों का राज्य स्थापित हुआ, उन्होंने लौकिक व प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए इस्लामी हिजरी सन का प्रचलन किया। हिजरी सं में वर्ष गणना चन्द्र मासो के अनुसार की जाती थी।
• 1584 में अकबर ने हिजरी वर्ष गणना को बंद कर तारीख इलाही चलाया जिसमें सौर वर्ष गणना थी। तारीख इलाही का प्रचलन भी 1630 के लगभग बंद हो गया और पुनः हिजरी सन का प्रचलन हो गया। 1757 के लगभग अंग्रेजों का भारत में राज्य स्थापन होने के समय से यहां ईसवी सन का तिथिपत्रक, जो ग्रेगरी कलेंडर नाम से प्रसिद्ध है, लौकिक और प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने लगा। इसका प्रचार अंग्रेजी शिक्षा के साथ भारत भर में हो गया और भारतवर्ष में इसका इतना प्रचलन हुआ कि यह एक आदत बन गया।
• यदपि भारत सरकार ने सन 1957 की 22 मार्च से संशोधित पंचांग किया है, लेकिन पिछले 22 वर्षों में इसका प्रयोग कुछ सीमा तक सरकारी विभागों में ही हुआ है। सरकारी विभागों में भी अभी ईसवी सन चलता है और धार्मिक कार्यों में विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धार्मिक तिथिपत्रकों का प्रयोग करते हैं।
कलेंडर रिफार्म कमेटी
स्वतंत्र भारत की सरकार ने राष्ट्रीय पंचांग निश्चित करने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में “कलेंडर रिफार्म कमेटी” का गठन किया था। 1952 में “साइंस एंड कल्चर” पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं-
● ईस्वी सन का मौलिक संबध ईसाई पंथ से नहीं है। यह तो यूरोप के अर्ध सभ्य कबीलों में ईसा मसीह के बहुत पहले से ही चल रहा था।
● इसके एक वर्ष में 10 महीने और 304 दिन होते थे।
● पुरानी रोमन सभ्यता को भी तब तक ज्ञात नहीं था कि सौर वर्ष और चंद्रमास की अवधि क्या थी। यही दस महीने का साल वे तब तक चलाते रहे जब तक उनके नेता सेनापति जूलियस सीजर ने इसमें संशोधन नहीं किया।
● ईसा के 530 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद, ईसाई बिशप ने पर्याप्त कल्पनाएँ कर 25 दिसम्बर को ईसा का जन्म दिवस घोषित किया।
● 1572 में तेरहवें पोप ग्रेगरी महाशय ने कलेंडर को दस दिन आगे बढ़ाकर 5 अक्टूबर (शुक्रवार) को 15 अक्टूबर माना।
● ब्रिटेन ने इसे दो सौ वर्ष बाद 1775 में स्वीकार किया। ब्रिटेन ने इसमें 11 दिन की कमी की और 3 सितम्बर को 14 सितम्बर बना दिया।
● यूरोप के केलेंडर में 28,29,30,31 दिनों के महीने होते हैं, जो विचित्र हैं। ये न तो किसी खगोलीय गणना पर आधारित हैं और न किसी प्रकृति चक्र पर।
कलेंडर रिफार्म कमेटी ने विक्रम संवत को राष्ट्रीय संवत बनाने की सिफारिश की। वास्तव में विक्रम संवत, ईसा संवत से 57 साल पुराना था, परंतु तत्कालीन सरकार की ‘अंग्रेजी मानसिकता’ के चलते उन्हे यह सिफारिश पसंद नहीं आई।
विदेशी कालगणनाओं की विसंगतियां
चिल्ड्रन्स ब्रिटानिका vol 1.3-1964 में कलेंडर का इतिहास बताया है-
• अंग्रेजी कलेंडरों में अनेक बार गड़बड़ हुई हैं और इनमें कई संशोधन करने पड़े हैं। इनमें माह की गणना चन्द्र की गति से और वर्ष की गणना सूर्य की गति पर आधारित है। आज इसमें भी आपसी तालमेल नहीं है।
• ईसाई मत में ईसा मसीह का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है। अत: कालक्रम को B.C.(Before Christ) और A.D. (Anno Domini) अर्थात In the year of our Lord में बांटा गया, किन्तु यह पद्धति ईसा के जन्म के कुछ सदियों तक प्रचलन में नहीं आई।
रोमन कलेंडर – आज के ईस्वी सन का मूल रोमन संवत है। यह ईसा के जन्म के 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना से प्रारम्भ हुआ। तब इसमें 10 माह थे। (प्रथम माह मार्च से अन्तिम माह दिसम्बर तक) और वर्ष 304 दिन का होता था। बाद में रजा नूमा पिम्पोलिय्स ने दो माह (जनवरी, फरवरी) जोड़ दिए। तब से वर्ष 12 माह अर्थात 355 दिन का हो गया।
यह ग्रहों की गति से मेल नहीं खाता था, तो जुलियस सीजर ने इसे 365 और ¼ दिन का करने का आदेश दे दिया। इसमें कुछ माह 30 और कुछ 31 दिन के बनाए गए और फरवरी का माह 28 दिनों का रहा जो चार वर्षों में 29 दिनों का होता है। इस प्रकार यह गणनाएं प्रारंभ से ही अवैज्ञानिक, असंगत, असंतुलित, विवादित एवं काल्पनिक रही।