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एक विचार चक्र का पूरा होना

एक विचार चक्र का पूरा होना

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग
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जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) मुख्यालय का दौरा करके इसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर को श्रद्धांजलि दी, तो इससे इतिहास का एक चक्र पूरा हो गया। एक शताब्दी पहले जिस विचारबीज को डॉ. हेडगेवार ने रोपित किया, वह अपने सहस्त्र-भुजाओं के विराट स्वरूप के साथ देश-विदेश में जनमानस को प्रभावित कर रहा है। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि 1925 में अपने जन्म से लेकर आज तक संघ को क्रमिक सत्ता-अधिष्ठान के पूर्वाग्रह, उपेक्षा, तिरस्कार और अंधविरोध का सामना करना पड़ा है। आज उसी शासनतंत्र के शिखर पुरुष ने न केवल संघ के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की है बल्कि राष्ट्र निर्माण में उसके योगदान की भूरी-भूरी प्रशंसा भी की है।

एक संगठन के रूप में आरएसएस और वामपंथी दल का उद्गम एक ही कालखंड में हुआ। वर्ष 1925 में संघ विजयदशमी के दिन (27 सितंबर) नागपुर, तो सीपीआई उसी वर्ष क्रिसमस सप्ताह (26-28 दिसंबर) के दौरान कानपुर में स्थापित हुआ। भले ही वामपंथियों को राजनीतिक स्वरूप भारत में मिला, किंतु इसका वैचारिक सूत्रपात 1920 में तत्कालीन सोवियत संघ में हो चुका था। संघ की स्थापना से पहले डॉ. हेडगेवार कांग्रेस की विदर्भ ईकाई के संयुक्त सचिव थे और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के कारण उन्हें 1921-22 में कारावास का दंड मिला था। तब वामपंथी दल के तत्कालीन शीर्ष नेताओं में से एक और स्वतंत्र भारत के पहले निर्वाचित वामपंथी मुख्य मंत्री ई.एम.एस. नंबूदरीपाद का भी नाता पहले कांग्रेस से था।

Signalling a truce, why Modi's visit to RSS headquarters is significant

वामपंथियों की विचारयात्रा मुख्य रूप से कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ तानाशाह व्लादिमीर लेनिन, जोसेफ स्टालिन और माओ से-तुंग से प्रेरित है। यही कारण है कि वे आज भी भारत की प्रत्येक समस्या को विदेशी दृष्टिकोण से देखते और उसे सुलझाने का प्रयास करते है। 25 जून 1853 को ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ में मार्क्स ने लिखा था, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये छोटे समुदाय जातिगत भेदभाव और दासता जैसी कुरीतियों से ग्रस्त थे।

उन्होंने मनुष्य को परिस्थितियों का स्वामी बनाने के बजाय उसे बाहरी परिस्थितियों का अधीन बना दिया… इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह था कि प्रकृति का स्वामी होने के बावजूद मनुष्य ने हनुमान (वानर) और शबला (गाय) के समक्ष श्रद्धा में नतमस्तक होना शुरू कर दिया।” यह दिलचस्प है कि मार्क्स ने भारत की मूल सनातन संस्कृति पर यह दुष्प्रचार तब प्रकट किया था, जब वे कभी भी भारत नहीं आए। इन विचारों को मार्क्स के असंख्य रक्तबीज स्वतंत्र भारत में आज भी आगे बढ़ाते हैं। भारतीय चिंतन इससे बिल्कुल अलग है। सनातन संस्कृति की अवधारणा है कि मनुष्य प्रकृति और ब्रह्मांड का स्वामी नहीं, बल्कि उसका हिस्सा है।

Modi in Nagpur — mending fences and miles to go

भारत की आध्यात्मिक अवधारणा को संघ ‘भारत माता’ के रूप में देखता है, जबकि वामपंथियों के लिए भारत ऐसा भूखंड है, जिसे भाषा, मजहब, क्षेत्रीय आधार पर विभाजित किया जा सकता है। जहां संघ के साथ गांधीजी और अन्य ने देश की अखंडता के लिए विभाजन का विरोध किया, वही साम्यवादियों ने ब्रितानियों और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर पाकिस्तान निर्माण को मूर्त रूप दिया।

स्वाभाविक रूप से संघ और अंग्रेजों के संबंधों में खटास थी। यह 1930 और 1932 में अंग्रेज अधीन कर्मचारियों के संघ से जुड़ने पर प्रतिबंध लगाने से स्पष्ट भी है। वर्ष 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद यह मानस स्वाभाविक रूप से बदलना चाहिए था, परंतु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि स्वतंत्र भारत की प्रारंभिक बागडोर उन ‘भारतीयों’ के हाथ चली गई, जो वैचारिक रूप से औपनिवेशिक और सनातन संस्कृति के प्रति हीन-भावना से भरे थे। जनवरी 1948 में गांधीजी की नृशंस की हत्या के बाद मार्क्सवाद और औपनिवेशिक मानस से प्रभावित पं.नेहरू ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। 1962 के भारत-चीन युद्ध में संघ की निस्वार्थ और समर्पित राष्ट्रसेवा देखने के बाद पं.नेहरू को अपनी गलती का बोध हुआ और उन्होंने 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में आरएसएस को आमंत्रित किया। इसके बाद राजनीतिक कारणों से संघ पर आपाताकाल (1975-77) में प्रतिबंध लगा दिया गया। इसी मानस की पुनरावृत्ति बाबरी ढांचे के जमींदोज होने पर 1992-93 में भी दिखाई थी। कांग्रेस नीत संप्रग काल (2004-14) में विकृत तथ्यों के आधार पर संघ-भाजपा के दानवीकरण हेतु मिथक-फर्जी ‘भगवा आतंकवाद’ उपक्रम खड़ा किया गया।
प्रत्येक संगठन का जन्म तात्कालिक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ‘इको-सिस्टम’ से प्रभावित होता है। संघ इसका अपवाद नहीं है, परंतु आरएसएस की कार्य पद्धति और उद्देश्य को केवल उसके तत्कालीन संदर्भ तक सीमित नहीं किया जा सकता। भारत के साथ शेष विश्व के प्रति संघ का व्यापक दृष्टिकोण सनातन वैदिक सिद्धांतों— ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति’, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ आदि शाश्वत मूल्यों पर आधारित है।

In Nagpur, Modi Seeks the RSS Akshyavat's Strength Amid Saffron GenNext Buzz | Opinion

इन्हीं चिंतन से प्रेरित होकर संघ बीते 100 वर्षों से एकता, सामंजस्य और राष्ट्र के पुनरुत्थान का प्रयास कर रहा है।
संघ स्वयं सत्ता-राजनीति से दूर रहता है, परंतु इसके द्वारा प्रदत्त चरित्र निर्माण कार्यक्रम से प्रशिक्षित और प्रेरित कार्यकर्ता केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों का संचालन करते हैं। इस अद्वितीय संबंध को चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य के सहयोग के प्रकाश से समझ सकते है। इसी आलोक में प्रधान मंत्री मोदी ने संघ की प्रशंसा करते हुए उसे “अमर संस्कृति का महान वट वृक्ष” बताया है। बीते माह एक अमेरिकी पॉडकास्टर को दिए एक साक्षात्कार में प्रधान मंत्री मोदी ने यह भी ठीक कहा था, “संघ को समझना इतना सरल नहीं है।” वास्तव में संघ एक संगठन नहीं अपितु एक विचारधारा, एक चेतना और सतत प्रवाहमान राष्ट्रवादी आंदोलन है, जिसका ध्येय मजहब-संप्रदाय-जाति की संकीर्ण सीमाओं से परे संपूर्ण समाज को संगठित करना, उसे आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और राष्ट्र निष्ठ बनाना है। निश्चय ही संघ की कार्य पद्धति का आधार अध्यात्म है, परंतु इसमें नास्तिक, अज्ञेयवादी या किसी भी पूजा-पद्धति का अनुसरण करने वाले शामिल हो सकते हैं।

PM Modi Nagpur visit: PM Modi pays tributes to RSS founders, says their  memorial dedicated to values of Indian culture - The Hindu

संघ की वास्तविकता और छवि में अंतर क्यों है? क्योंकि प्रारंभ से ही संघ ने धरातल पर उतर कर काम किया है, जिसके प्रचार-प्रसार की उसने सदैव उपेक्षा की है। इसी कमी को अक्सर संघ-विरोधी अपने दुष्प्रचार से पाटने में सफल हो जाते है। क्या जन्मशताब्दी वर्ष में संघ इस ओर ध्यान देगा?

-बलबीर पुंज

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Tags: #india #world #work #viral #india #rss #rssorg #hindu #sangh

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