इन दिनों खूब चर्चा पा रही मात्र चार एपिसोड की वेब सीरीज ‘एडोलेसेंस’ ने किशोर मन की दिशाहीनता को लेकर वैश्विक स्तर पर बड़ी चर्चा छेड़ दी है| वर्चुअल दुनिया की सामग्री से गुमराह होते मन से लेकर असल जीवन की उलझनों तक, बड़े होते बच्चों के बहकते मन को सामने रखती यह सीरीज पूरे परिवेश को कटघरे में खड़ा करती है|
इन दिनों खूब चर्चा पा रही मात्र चार एपिसोड की वेब सीरीज ‘एडोलेसेंस’ ने किशोर मन की दिशाहीनता को लेकर वैश्विक स्तर पर बड़ी चर्चा छेड़ दी है| वर्चुअल दुनिया की सामग्री से गुमराह होते मन से लेकर असल जीवन की उलझनों तक, बड़े होते बच्चों के बहकते मन को सामने रखती यह सीरीज पूरे परिवेश को कटघरे में खड़ा करती है| अभिभावकों संग संवाद की कमी हो या अनजान चेहरों के वर्चुअल कमेंट्स, किशोर बच्चों की मनःस्थिति को आपराधिक गतिविधियों की ओर मोड़ने वाली कड़वी सच्चाई को सामने रखती है| तकनीकी विस्तार और अपने-अपने कोने तक सिमटते जीवन के इस दौर में यह सीरिज जरूरी प्रश्न उठाती बल्कि भविष्य को लेकर चेताती भी है|
यौनिक विकास के मोर्चे पर उलझता किशोरमन और वर्चुअल दुनिया में इससे जुड़े ताने-उलहाने मिलने से उपजी कुंठा समाज के भावी नागरिकों को कितना दिशाहीन कर सकती है? स्वयं को कमतर आंकने का मनोविज्ञान एवं कटुतापूर्ण परिवेश से टॉक्सिक सोच का ऐसा स्याह घेरा भी बना सकता है कि किशोर बच्चे किसी की जान लेने या अपनी जान देने जैसी कदम उठाने लगें| सबसे अहम बात जो यह सीरीज समझाती है वह यह कि स्मार्ट गैजेट्स के साथ बड़े हो रहे बच्चे बंद कमरे में भी अकेले नहीं होते| अपनों से अलग-थलग समय बिताते हुए पूरी दुनिया से जुड़े रहते हैं| अपने ही घर के एक हिस्से में मौजूद होने के बावजूद सुरक्षित नहीं रहते| स्क्रीन और सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से पूरा संसार उनके साथ रहता है|
आमजीवन में चुप से रहने वाले किशोरों का परिचितों-अपरिचितों से हर तरह का संवाद होता है| जिसके चलते किशोर वर्चुअल संसार में भी बुलीइंग का शिकार बनते हैं| अपराध का रास्ता पकड़ने की दिशाहीन सोच आ जाती है| अपशब्द, नकारात्मक टीका-टिप्पणियाँ और अपेक्षाओं-उपेक्षाओं का एक अनदेखा घेरा बन जाता है| दुखद है कि सोशल मीडिया और वास्तविक संसार की बदलती रूपरेखा के बीच किशोर आक्रोश और अहंकार के शिकार हो रहे हैं| शारीरिक बदलावों और भावनात्मक उलझनों के इस पड़ाव कहीं मर्दानगी की अजब-गजब परिभाषा सीख रहे हैं तो कहीं बदला लेने की विकृत मानसिकता से घिर रहे हैं|
दरअसल, किशोरावस्था को मौज-मस्ती और मन का करने की उम्र मान लिया जाता है| अपने आप में खोये रहने वाली उम्र का पड़ाव समझा जाता है| ना तो छोटा बच्चा समझकर दिया जाने वाला संबल मिलता है और ना ही समझदार होने के आयुवर्ग में आने का स्वागत| ऐसे में मासूमियत भरे बचपने से समझ भरी उम्र की ओर बढ़ता किशोर-किशोरियों का दिलो-दिमाग कई उलझनों से जूझता है| ऊर्जा भरे इस पड़ाव पर भी अकेलापन और अवसाद तक घेरने लगता है| किशोरावस्था शब्द लैटिन शब्द ‘एडोलेसयर’ से बना है| जिसका अर्थ है ‘परिपक्व होने के लिए बढ़ना’। समझदारी के पड़ाव की ओर बढ़ते ’12 से 19 साल’ के बच्चे किशोर माने जाते हैं| उम्र के इस दौर में सबसे ज्यादा जरूरत बड़ों के साथ सार्थक संवाद की होती है|
किशोर बच्चों के लिए कई विषयों पर अपनों से कुछ कहना मुश्किल होता है, तो कई बार बड़े-बुजुर्गों के कहे को समझना भी कठिन लगता है| ऐसे में अभिभावकों द्वारा उनके बदलते मन को समझने के प्रयास आवश्यक हो जाते हैं| प्रत्यक्ष रूप से उनकी निर्भरता कम दिखती है पर इस आयुवर्ग में भी बहुत सी बातों से उलझता उनका मन अभिभावकों की ओर ही देखता है| चाइल्ड माइंड इंस्टीट्यूट के मुताबिक एंगजाइटी, बचपन और किशोरावस्था में सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य विकार है| करीब 31.9 प्रतिशत लोग 18 साल की उम्र तक किसी न किसी तरह की फिक्र से जूझते हैं| बदलावों की इस उम्र में बहुत सी बातों को लेकर घबराहट भी होती है| सोशल मीडिया ने हमउम्र दोस्तों और सहपाठियों से तुलना के भाव को और बढ़ाया है| बच्चे शारीरिक बनावट से लेकर करीबी दोस्ती के मामले तक में एक-दूसरे से तुलना करने लगते हैं| शारीरिक मानसिक बदलाव भटकाव लाने वाले होते हैं|
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के मुताबिक आज 44 फीसदी स्कूली बच्चे तनाव और अवसाद का शिकार हैं| स्पष्ट है कि अकादमिक दबाव के अलावा किशोरों का मन आबहसी दबाव भी झेल रहा है| यथार्थवादी जीवन से दूर वर्चुअल दुनिया में समय बिताते हुए नई तरह की मानसिक परेशानियों में फंस रह हैं| ऐसे हालातों में जीवन से जुड़े हर पक्ष पर संवाद किया जाना आवश्यक है | अपनी उलझनें कह देने का भरोसा देना जरूरी है| बातचीत के लिए सहज परिवेश और खुलापन ना मिलने से किशोर बच्चों की मनःस्थिति भटकाव का शिकार हो जाती है|
डॉ. मोनिका शर्मा