एक राष्ट्र एक चुनाव एक ऐसा महत्वाकांक्षी उपक्रम है जिसके लागू होने के बाद समय, अर्थ, व्यवस्था सब में महत्वपूर्ण कमी आयेगी और जिसका लाभ जनता जनार्दन को मिलेगा। भले ही ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ शब्द सुनकर कुछ नयापन सा लगे, लेकिन यह व्यवस्था भारतीय लोकतंत्र में प्रारंभ से ही थी। लोकतंत्र की व्यवस्था होने के बाद से ही ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, लेकिन समसामयिक अव्यवस्थाओं के कारण ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की परिपाटी मूर्त रूप नहीं ले पाई और विभिन्न कारणों से प्रदेशों और केंद्र के चुनाव अलग-अलग होन लगे, जिसके कारण आर्थिक व्यवस्था तो काफी बढ़ी ही, अव्यवस्थाएं भी बहुत बढ़ी। चुनाव कराने में समय, अर्थ और व्यवस्था बहुत ज्यादा लगने लगी, जो समस्या का कारण बन गई। सच तो यह है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव होना समय की मांग है। इससे समय, धन और व्यवस्थाओं की बचत होगी।
लोकतंत्र के लिए ‘एक देश एक चुनाव’ नया नहीं है। प्रारंभ में सभी चुनाव एक साथ होते थे जिससे एक बार में ही चुनाव के निपटने से व्यवस्था और धन दोनों बचत होती थी। ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इतिहास बताता है कि लोकसभा और राज्य विधासभाओं के चुनाव चार बार एक साथ हुए थे। 1952, 1957, 1962 और 1967 में एक साथ चुनाव कराए गए थे। इतना ही नहीं 1983 में चुनाव आयोग ने चुनाव की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था। 1999 में विधि आयोग ने भी अपनी 170वीं आख्या में इस विचार को दोहराया था और कहा था कि लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं तो काफी महत्वपूर्ण होगा। बार-बार चुनाव होने से आर्थिक व्यवस्था और कानून व्यवस्था तो प्रभावित होती ही है, एक साथ चुनाव कराने से प्रशासनिक व्यवधान को कम करके जन कल्याण को बढ़ाया जा सकता है। इससे जन सेवाएं प्रभावी रूप से चलती रहेंगी और कानून व्यवस्था का भी कोई संकट नहीं होगा। वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार जो सुशासन की प्रतिबद्धता चाहती है, वह इस नियम को लागू करना चाहती है।
हम सब जानते हैं कि बार-बार होने वाले चुनाव प्रशासनिक व्यवधान चक्र उत्पन करते हैं जो शासन को बाधित करने के साथ-साथ अव्यवस्था पैदा करते हैं। इस व्यवस्था के कारण आवश्यक सुधारों को रोकने का कार्य होता है। आदर्श आचार संहिता के लागू होने पर प्राय: विकास परियोजनाओं पर रोक लग जाती है, साथ ही साथ कल्याणकारी योजनाएं लाभार्थियों तक पहुंचने में देरी होती है। इतना ही नहीं बार-बार चुनाव होने के कारण शिक्षा क्षेत्र का बड़ा नुकसान होता है। चुनावी कार्यक्रम के कारण शिक्षकों को कक्षाओं से हटाकर चुनावी कार्य में लगा दिया जाता है। विद्यालयों को मतदान केंद्रों में बदल दिया जाता है। ऐसे में निश्चित रूप से शिक्षा को आघात पहुंचता है। वर्तमान में विधेयकों के माध्यम से समकालिक चुनाव की शुरूआत करने से ऐसे व्यवधान समाप्त होंगे जिनसे प्रशासन और अधिक प्रभावी होगा और महत्वपूर्ण सामाजिक सुधारों के बहुप्रतिक्षित परिणाम मिलेंगे।
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति गठित की गई है। यह समिति ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ को पूरा करने के लिए बनाई गई है। यह विधेयक प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के ‘विकसित भारत @2047’ के दृष्टिकोण को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि लोकतंत्र के महापर्व में जनता की प्रभावी भागीदारी हो, इसके लिए ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ आवश्यक है। लोकसभा द्वारा पारित विधेयक का उद्देश्य एचएलसी की रिपोर्ट को लागू करना है। इन दोनों विधेयकों का उद्देश्य पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशों को लागू करना है। ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद समिति का गठन किया है। इस समिति ने जो अनुशंसा की है उसके अनुसार प्रथम चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए। संविधान संशोधन विधेयक संविधान में नया अनुच्छेद 82 ए जोड़ने तथा अनुच्छेद 83, 172 और 327 में संशोधन का प्रस्ताव करता है। जिसका उद्देश्य लोकसभा और राज्यसभा के चुनावों को एक साथ आयोजित करना और इन चुनावों के लिए प्रावधान बनाने हेतु संसद को अधिकार देना है। यह विधेयक उच्च स्तरीय समिति के सुझावों को पूरा करते हुए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक स्थिर चुनाव प्रणाली को लागू करेगा।
रामनाथ कोविंद समिति ने ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ पर व्यापक परामर्श किया है। उच्च स्तरीय समिति ने 62 राजनीतिक दलों से उनका सुझाव मांगा, जिस पर 47 दलों ने अपनी प्रतिक्रिया दी। इन 47 दलों में 32 ने समकालिक चुनाव के कार्यान्वयन का समर्थन किया और 15 राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। इतना ही नहीं पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की इस समिति को भारत के चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने भी अपनी राय दी और सभी ने इस कदम का समर्थन करते हुए स्पष्ट रूप से कहा कि यह संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं है। इसी प्रकार उच्च न्यायालय के नौ पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने प्रस्ताव का समर्थन किया, तीन ने असहमति व्यक्त की। समिति द्वारा परामर्श लेने पर चार मुख्य चुनाव आयुक्तों समकालीन चुनावों के पक्ष में अपनी राय दी। इसके साथ ही साथ रामनाथ कोविंद समिति ने पूर्व राज्य चुनाव आयुक्तों, बार काउंसिल, एसोचेम, फिक्की, सीआईआई, आदि से भी परामर्श किया। उच्च स्तरीय समिति को जनता से मांगे गए सुझाव में 13396 प्रतिक्रियाएं मिली थी जिनमें 83 प्रतिशत प्रतिक्रिया समकालीन चुनाव के पक्ष में थी जबकि 17 प्रतिशत (2276) लोगों ने समकालीन चुनाव का विरोध किया। यह इस बात का संकेत है कि अधिकांश लोग ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के पक्षधर है।
इससे जहां चुनावी प्रणाली में सुगम बदलाव होंगे, वहीं अर्थ, समय और व्यवस्था तीनों पर अपेक्षाकृत कम खर्च होगा। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने वर्तमान चुनाव प्रणाली से ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की ओर सुगम बदलाव के लिए समुचित व्यवस्था बनाने पर विशेष ध्यान दिया है और संविधान में प्रस्तावित अनुच्छेद 82 ए जोड़ने के माध्यम से किया गया है। अनुच्छेद 82 ए में दो संक्रमणीय प्रावधान शामिल है।
संविधान में प्रस्तावित अनुच्छेद 82 ए के खण्ड (1) का कहना है कि राष्ट्रपति के इस संशोधन को 19वीं लोकसभा के पहले सत्र के दौरान यानी 2029 के आम चुनाव के बाद ही लागू किया जा सकता है जबकि खण्ड दो मानता है कि राज्य विधानसभाओं की अवधि को लोकसभा की अवधि के अनुरूप केवल 2034 के आम चुनाव तक ही लाया जा सकता है। यह इस बात का प्रतीक है कि एक राष्ट्र एक चुनाव समिति ने पूरी व्यवस्थाओं का सम्यक आंकलन करते हुए शासन, प्रशासन और अर्थव्यवस्था तीनों पर दृष्टि डाली है जिसके कारण ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ लागू होने से ऐसे व्यवधान समाप्त हो जाएंगे, जो समाज के लिए दूरगामी परिणाम लानेवाले होंगे।
‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ प्रणाली भारत में पहले से ही चल रही थी, लेकिन राजनीतिक जानकारों ने माना है कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ भारत में चुनाव प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए आम और राज्य चुनाव को एक साथ आयोजित कराने की व्यवस्था है। विदेशों में देखा जाए तो अमेरिका, ब्राजील, स्वीडन, बेल्जियम, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, जापान, इंडोनेशिया और फिलीपींस जैसे देश एक राष्ट्र एक चुनाव कराते हैं। प्राय: लोग प्रश्न करते हैं कि इन चुनावों से क्षेत्रीय पार्टियों को क्षति होगी, लेकिन यह पूरी तरह असत्य है। एक साथ होने वाले चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियां प्रासंगिक बनी रहेंगी और उन्हें और विकसित होने का अवसर मिलेगा। जो लोग प्रगतिशील विकास के स्थान पर विघटनकारी राजनीति को प्राथमिकता देते हैं वह ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का विरोध करते हैं, जो किसी भी कीमत पर उचित नहीं है।
‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ जिन व्यवस्थाओं को बनाता है उनमें वर्तमान चुनाव प्रणाली की समस्याएं प्रमुख हैं। बार-बार चुनाव होने से शासन का ध्यान भटकता है और विकास कार्य पीछे हो जाते हैं जिससे नीतियों का क्रियान्वयन नहीं होता। इसके साथ ही साथ मुफ्तखोरी की राजनीतिक की परंपरा और प्रथा राज्य की वित्तीय स्थिति को प्रभावित करती है तथा स्थायी आर्थिक नीतियों की तुलना में अल्पकालिक लाभ देने पर विशेष बल देती है। इस परंपरा का सबसे बड़ा और प्रभावी कारण यह होता है कि बार-बार चुनाव होने से सरकारी संसाधनों पर बड़ा दबाव बढ़ता है। बार-बार चुनाव होने से शिक्षा जैसी व्यवस्था तो बाधित होती ही है, चुनावों के प्रबंधन के लिए कार्मिकों की भारी तैनाती भी समस्या का कारण बनती है। 2019 के चुनावों का ही उदाहरण लिया जाए तो इस चुनााव में 70 लाख अधिकारी और कर्मचारी चुनाव पर लगाए गए जिनके कारण सरकारी संसाधनों पर बड़ा दबाव पड़ा और विकास कार्यों पर अंकुश लगा। इसके ठीक विपरीत एक साथ चुनाव होने पर एकल मतदाता सूची से दोहराव पूरी तरह समाप्त हो जाता है तथा मतदाता एक ही स्थान पर चुनाव में अपना मतदान कर पाता है अन्यथा लाखों मतदाता ऐसे हैं जिन्होंने अपने प्रदेशों में भी और सेवायोजित प्रदेशों में मतदान पत्र बनवा रखें तथा अलग-अलग मतदान होने के कारण एक ही व्यक्ति कई बार मतदान करता है जिससे लोकतंत्र पर बड़ा आघात पहुंचता है।
-राम प्रताप मिश्र साकेती