नेपाल में लोकशाही बनाम राजशाही का विवाद विगत मार्च महीने से जारी है। इस बीच समर्थन और विरोध प्रदर्शनों का क्रम चल रहा है। राजशाही समर्थकों द्वारा निषेधाज्ञा वाले क्षेत्र मे भी प्रदर्शन हुए है। संसद भवन ‘सिंह दरबार’ परिसर भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ नारेबाजी के आरोप में पूर्व उप प्रधानमंत्री राजेंद्र लिंगडेन की गिरफ्तार हुई। ये राजशाही समर्थक दल राप्रपा नेपाल के अध्यक्ष है। संख्या बल के लिहाज से यह नेपाली संसद में पाँचवा सबसे बड़ा दल है। रिहाई उपरांत इन्होंने पुनः संघर्ष जारी रखने की बात कही है। राजा समर्थक देश के सभी 77 जिलों तक इस आंदोलन को ले जाने की बात कर रहे है। वही सत्तासीन राजनैतिक दल भी अब मैदान में कूद पड़े है। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के दल एमाले द्वारा एक बड़ा आयोजन राजधानी काठमांडू में हुआ है। पार्टी के युवा शाखा द्वारा आहूत इस कार्यक्रम को शक्ति प्रदर्शन के तौर पर देखा जा सकता है। पीएम ने अपने संबोधन में लोकतंत्र और वर्तमान संविधान की रक्षा हेतु देश को एकजुट करने की बात कही है। ऐसे में आगे हिंसक झड़प और संघर्षपूर्ण वातावरण की प्रबल संभावना है।
आखिर इन परिस्थितियों के कारण क्या है?
यदि इनका विचार करे तो कई मुद्दे सामने आते है। इसमें राजनैतिक अस्थिरता, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और हिंदू राष्ट्र की माँग सर्वोपरि है। यहाँ सत्रह वर्ष के लोकतंत्र में अब तक चौदह सरकारें आ चुकी है। किसी भी दल अथवा गठबंधन ने कभी अपना कार्यकाल पूरा नही किया है। यही नही इस नवीन व्यवस्था में सात प्रांतीय विधायिकाओं का प्रावधान भी है। इस नाते यहाँ 334 सांसद तथा करीब 550 विधायकगण है। इन जनप्रतिनिधियों द्वारा आम जन के जीवन स्तर में सुखद बदलाव हेतु कार्य होना चाहिए था, किंतु दुर्भाग्यवश व्यवस्था के लाभार्थी केवल सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे व्यक्ति और उनके निकटवर्ती लोग है। इस नई व्यवस्था में नैतिकता का भी सर्वथा अभाव दिखता है। सर्वत्र परिवारवाद, भ्रष्टाचार और पैसे का अतिशय बोलबाला है। इस सब की परिणति सत्ता के बहुतेरे केंद्र के रूप में सामने है, जबकि एक निर्बल जनसंख्या वाले लघु देश में इतने प्रतिनिधियों के होने का कोई औचित्य नहीं है।
लोकतंत्र ने दी सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
इस नयी व्यवस्था के आने से पूर्व यहाँ सत्ता प्रतिष्ठानों में केवल कुलीन तथा कुछेक वर्ग विशेष की हिस्सेदारी थी, किंतु प्रजातंत्र में नेपाल तराई से लेकर तिब्बत चीन सीमा तक सर्व समाज को भागीदारी का मौका मिला है। इसके साथ ही आमजन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो प्रेस को आजादी प्राप्त हुई है। यह एक सुखद और सकारात्मक बदलाव है।
पलायन और घुसपैठ नेपाल के दो बड़े मुद्दे
बात अवसरों की करे तो जरूरत आर्थिक सुधार, सेवा क्षेत्र में नई संभावना तथा सुशासन लाने की थी। इस दृष्टिकोण से काम नही होने का परिणाम व्यापक पलायन के रूप में सामने है। यहाँ प्रतिदिन नागरिक देश छोड़ रहे है। सरकारी आँकड़ो के अनुसार प्रति वर्ष साढ़े छह लाख लोग लेबर परमिट लेकर बाहर जा रहे है। यह देश से बाहर काम के लिए जारी किये जाने वाला अनुमति पत्र है। वास्तविक तसवीर इससे कही भयावह है। बमुश्किल तीन करोड़ की जनसंख्या वाले देश के करीब सत्तर लाख लोग अवसरों के अभाव नाते देश से बाहर है। एक तरफ देश से पलायनों का दौर जारी है। वही यूपी बिहार सीमा से लगते तराई से लेकर नेपाल के पहाड़ों तक बड़ी संख्या में मुस्लिम घुसपैठिए आ बसे हैं। इन अतिवादी मुस्लिमों के नाते अकसर सांप्रदायिक तनाव देखने को मिल रहा है। इन्होंने बड़ी संख्या में स्थानीय लड़कियों से शादियाँ भी की है। यही नहीं कई फुटकर कारोबारों पर अब इनका एकाधिकार है। इन कारणों से बहुसंख्यक नेपालियों में असुरक्षा की भावना घर कर चुकी है।
बात हिंदू राष्ट्र के माँग की
यह यहाँ के लिए एक बड़ा ही भावनात्मक मुद्दा है। यह अतीत पहचान अस्तित्व और इनके स्वभाव का हिस्सा है। यहाँ हिंदू विधान अनुसार जीवन और राजकाज चलता आया है। ऐसे में बिना किसी माँग अथवा जन आंदोलन के इसे धर्मनिरपेक्ष घोषित कर देना संदेह के घेरे में है। ऐसा नहीं है की राजतंत्र में यहाँ इसाई मुस्लिम आबादी नही थी। इन्हें बसने उपासन संबंधित छूट के साथ ही अपने धार्मिक स्थानों के प्रबंधन का अधिकार था। इस बीच नगरीय क्षेत्रों में बहुतेरे चर्च और मस्जिदों का निर्माण भी हुआ, किंतु उनकी गतिविधियाँ कही सीमित थी।
राजा के कर्मो के नाते हिंदू जागरण से दूर रहा नेपाल
नेपाल में राणाशाही की समाप्ति उपरांत राज्य की वास्तविक शक्तियाँ पुनः एक बार राजपरिवार के हाथों में आई। पूरे 104 वर्षों के बाद शाह वंश को सत्ता पर वास्तविक नियंत्रण प्राप्त हुआ था। इस बदलाव में लोकतांत्रिक भारत की भी महती भूमिका थी। भारत के सद्प्रयासों से सन् 1951 के फरवरी महीने से नवीन व्यवस्था प्रारंभ हुई, किंतु राजा त्रिभुवन के बाद चीजें बदलती गई। इस दौर में हिंदू मठ-मंदिरों को शासकीय नियंत्रण में लेने जैसे कई अनुचित कार्य हुए। इन्हीं दुष्प्रयासों का परिणाम मंदिर प्रबंधन से संबंधित गुठी संस्था तथा पशुपतिनाथ संरक्षण कोष है। इनके द्वारा न केवल मंदिरों का सरकारीकरण हुआ अपितु व्यापक पैमाने पर हिंदू मंदिरों से धन निकासी भी हुई। राजा का काम मंदिरों को दान देना है न की मंदिर के कोष का स्वयं एवं दरबारियों के विलासिता मद में खर्च करना। यहाँ इस अवधि में कई हिंदू तीर्थो में श्रद्धालुओं की संख्या सीमित करने के भी अनुचित प्रयास हुए है। ऐसा ही मसला मुक्तिनाथ दामोदर कुंड की तीर्थ यात्रा से संबंधित है। यहाँ आगंतुक हर गैर नेपाली हिंदू एवं बौद्ध श्रद्धालुओं से यात्रा अनुमति के नाम पर एक मोटा रकम लिया जाता है। अभिव्यक्ति की सीमित छूट वाले इस दौर में नेपाल हिंदू जागरण और सनातन धर्म प्रचार से कही दूर रहा है। राजा हिंदू राज्य हिंदू पर शासकीय नीतियों कही प्रतिकूल रही है। इस नाते यहाँ कभी किसी सामाजिक आध्यात्मिक हिंदू आंदोलन की कोई जमीन नही बन पाई। उलटे हिंदू साधु-संतों के एक बड़े तबके को परिस्थितिजन्य कारणों से भारत पलायन करना पड़ा था। वास्तव में निवर्तमान राज परिवार सनातन संस्कृति के संरक्षक रूप में अपनी सेवाएं देने में बुरी तरह असफल रहा है।
हिंदू पहचान पर मंडरा रहा संकट है
नेपाल में सर्वाधिक प्रतिकूल स्थिति अब है। इस हिंदू पहचान वाले देश में सार्वजनिक गोहत्यायें हो रही है। हिंदू आस्था पर चोट, पहचान पर प्रश्न और प्रतीकों पर कुठाराघात सार्वजनिक तौर पर हो रहा है। इस पर रोक को लेकर कोई संवैधानिक व्यवस्था फिलहाल नही है। दरअसल सितंबर 2015 में हिंदू राष्ट्र की पहचान समाप्त कर नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष संविधान लागू किया गया। ऐसा पश्चिमी देशों के प्रभाव में किया गया है। इसकी परिणति जनसंख्या के स्वरूप में परिवर्तन रूप में सामने है। मुस्लिम जनसंख्या की तीव्र वृद्धि संग इसाई धर्मांतरण जोरो पर है। जहाँ चर्च पहले केवल नगरों में थे वही अब हर ग्राम विकास समिति क्षेत्र तक इनका संजाल पहुँच चुका है। इसी प्रकार मकतब मस्जिद-मदरसे भारतीय सीमा से लेकर सुदूर पहाड़ों तक हर जगह दिखते है। यहाँ अब सरकारी आधिकारिक आँकड़ों से कई गुणा अधिक मुस्लिम और इसाई जनसंख्या है। सन् 2021 के शासकीय आँकड़े 5% मुस्लिम और 2% ईसाई बताते है, जबकि वास्तविक रूप में मुस्लिम जनसंख्या 10% से कही अधिक है। इसाई मतावलंबी भी अब दो अंकों वाले प्रतिशत को छूने के करीब है। इन सभी स्थितियों के कारण नेपाल में हिंदू राष्ट्र की माँग जोर पकड़ रही है। नेपाली जनमानस ऐसे सभी बदलावों से चिंतित एवं आक्रोशित है। लोकतांत्रिक व्यस्था के इन कतिपय असफलताओं के नाते ही विरोध प्रदर्शन हो रहे है। जिसकी परिणति नेतृत्व के अभाव में राजा की वापसी वाले नारे और माँग के रूप में सामने है। अन्यथा यहाँ केवल राजशाही का समर्थन करने वाला समूह बेहद छोटा है।
चर्चाओं में भारत
इस पूरे घटनाक्रम में चीन परिदृश्य से बिल्कुल ओझल है, जबकि भारत चर्चाओं में है। राजा समर्थक और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास वाले दोनों खेमे भारत के नैतिक समर्थन की बातें कर रहे है। भारत में भी यहाँ के वर्तमान घटनाक्रम की काफी चर्चा है। इन कारणों का विचार करें तो इसके कई आधार है। भारत नेपाल संग करीब 1751 किमी की लंबी सीमा साझा करता है। पाँच भारतीय राज्यों से लगती यह सीमा सदैव से खुली है। जहाँ सीमा के दोनों तरफ एक ही भाषा-भाषी समुदाय है। इतना ही नही भारत में जहाँ लाखों नेपाली शिक्षा एवं रोजगार नाते रहते है। वही कई करोड़ नेपाली भाषी भारतीय नागरिक भी है। ऐसे में नेपाल में हुआ कोई भी हलचल भारत के लिए चिंता का कारण हो सकता है।
भारत विरोधी रहा है नेपाली हुक्मरानों का चरित्र
बात लोकशाही बनाम राजशाही की हो तो भारत के लिहाज से दोनों ही अनुभव अच्छे नही रहे है। प्रधानमंत्री के रूप में केपी ओली ने यहाँ भारत विरोध भावनाओं को कही अधिक हवा दिया है। अपने राजनैतिक हित एवं चीन को लेकर वैचारिक प्रतिबद्धताओं के नाते उन्होंने इसे कही निंदनीय बनाया है।
बात अतीत की करे तो सन् 1857 की क्रांति से 1947 भारत विभाजन तक गोरखा राज्य की भूमिका सदैव भारत विरोधी रही है। तब ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के दमनकारी उपकरण के रूप में इन्होंने काम किया है। भारत सरकार के सहयोग से सन् 1951 में वास्तविक शक्तियों के साथ राजपद पर बैठे राजा त्रिभुवन एकलौते अपवाद है। इससे पूर्व यहाँ राणाशाही व्यवस्था थी। दरअसल नेपाली भूमि पर भारत विरोध के बीजारोपण से लेकर विषवृक्ष बनने तक की तमाम दलीलें इस राजतंत्र पर लागू होती है। अतीत में भारत चीन तनाव और सन् 1962 के युद्ध की आहट के बीच राजा महेंद्र ने चीन की यात्रा की थी, जबकि उन्हें भारत नेपाल के पौराणिक रिश्ते और आपसी संधि विधान नाते इस यात्रा को स्थगित करना चाहिए था। यही नहीं इनके दौर में ही यहाँ हिंदी विरोध को हवा मिली थी। बात इनके पुत्र राजा वीरेंद्र की करे तो इनके समय में नेपाल भारत विरोध का गढ़ बनता गया। यहाँ राजा की सरपरस्ती में चीन एवं पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ा। यह समय चीन समर्थक माओवादियों के राजाश्रय में फलने-फूलने का भी था। इस समय इन पर जहाँ कार्यवाही को लेकर रोक थी। वही काठमांडू से भारतीय यात्री विमान का अपहरण इसी समय की घटना है। हिंदू भूमि नेपाल आईएएस के गढ़, माओवादी चीन के प्रभाव क्षेत्र से बढ़ कर भारत विरोध का केंद्र बनता गया। इन राजा वीरेंद्र के समय मिर्जा दिलशाद बेग तो इनके उपरांत राजा ज्ञानेन्द्र के समय सलीम मियां अंसारी जैसे आईएएस के गुर्गे न केवल प्रभावी थे अपितु राज्यव्यवस्था का हिस्सा भी थे। सन् 2005 में सार्क के ढाका शिखर सम्मेलन में राजा ज्ञानेंद्र द्वारा चीन के प्रवेश का कुप्रयास भी किया गया। ये सभी घटनायें विचारणीय है।
बात निष्कर्ष और विकल्प की
यदि सोचे तो फिलहाल कुछेक राजशाही समर्थक प्रदर्शनों से आता हुआ कोई बड़ा बदलाव नही दिख रहा है। राजा के लिए नये अवसर का एकमात्र जरिया लोकतांत्रिक व्यवस्था ही है, किंतु इसके लिए पूर्व की गलतियों की स्वीकारोक्ति के साथ उन्हें दलगत राजनीति की शुरुआत करनी पड़ेगी। सवाल नेपाल के राजनैतिक दलों का हो तो उन्हें जनसहभागिता से जनाकांक्षाओं की ओर बढ़ना होगा। आर्थिक तरक्की, राजनैतिक स्थायित्व संग संविधान में संशोधन कर हिंदू राष्ट्र के मुद्दे को हल करना होगा। विचार भारत का करे तो इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी भारत विरोधी भावनायें अत्यंत प्रबल है। अतएव उसे स्थिति पर नजर बनाये रखने के साथ ही विभिन्न पक्ष एवं धरो से संवाद बनाये रखना चाहिए।
-अमिय भूषण