बीते हफ्ते भारत-पाकिस्तान के बीच चार दिन छिटपुट लड़ाई चली। इस दौरान जहां भारत ने अपने पड़ोसी के साथ संबंध की नई इबारत लिख दी, तो वही चीन का तिलिस्म फूट गया और अमेरिका की दोहरी नीति फिर बेनकाब हो गई। इस बीच देश का एक हिस्सा इस बात से नाराज हैं कि युद्ध में हावी भारत ने पाकिस्तान के साथ संघर्षविराम क्यों स्वीकार किया। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की कामयाबी को समझने का सही तरीका यह है कि भारत ने इस सैन्य अभियान में क्या मकसद तय किए थे और उन्हें कितना अच्छे से अंजाम दिया।
पहलगाम में 22 अप्रैल को हुए जिहादी हमले में 25 हिंदुओं को धर्म पूछकर मारा गया। तब प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकियों को कल्पना से परे सजा देने का वादा किया। 6-7 मई की रात, भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में पाकिस्तान के भीतर लश्कर और जैश जैसे संगठनों के नौ आतंकी ठिकानों पर 24 मिसाइलें दागीं, जिनमें 100 से ज्यादा आतंकी मारे गए। बौखलाए पाकिस्तान ने टर्की-ईरानी ड्रोन और मिसाइलों से 26 भारतीय शहरों पर हमले किए और वे सभी नाकाम हो गए। सीमावर्ती क्षेत्रों (कुपवाड़ा, बारामुल्ला, उरी, पुंछ, मेंढर और राजौरी सहित) में भीषण पाकिस्तानी गोलीबारी में कई आम नागरिक मारे गए। जवाब में भारत ने पाकिस्तानी की कई चौकियों के साथ स्कार्दू, लाहौर, कराची सहित 12 से अधिक पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों को सटीकता से निशाना बनाया। घबराकर पाकिस्तान ने संघर्षविराम की गुहार लगाई, जिसे भारत ने अपनी शर्तों पर मंजूर किया। यह पूरी कार्रवाई बताती है कि भारत अब केवल आतंकियों को ही नहीं, आतंक के हर सरपरस्त को भी जवाब देने की नई नीति पर चल पड़ा है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से कई स्पष्ट संदेश मिलते है।
पहला—भारत और पाकिस्तान के संबंध अब पुराने ढर्रे पर नहीं, बल्कि नई शर्तों पर तय होंगे। पाकिस्तान की शह पर होने वाला कोई भी आतंकी हमला अब सीधे युद्ध की घोषणा माना जाएगा और भारत उसकी जवाबी कार्रवाई बिना देर किए करेगा। 12 मई को प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्र के नाम संबोधन में यह साफ हुआ। 2008 के मुंबई हमलों में भारत सिर्फ ‘कड़ी निंदा’ करने तक सिमटा हुआ था, लेकिन 2016 और 2019 की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद डंके की चोट पर भारत ने पाकिस्तान के भीतर जाकर जवाब दिया है। मारे गए आतंकियों में मसूद अजहर के रिश्तेदार यूसुफ अजहर, मुदस्सिर अहमद और अब्दुल मलिक सहित कई पुराने जिहादी शामिल थे, जिनका नाम 9/11 और लंदन हमले जैसी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं से भी जुड़ा रहा था।
दूसरा—पाकिस्तान का आतंकियों के साथ गठजोड़ खुलकर सामने आ गया। मारे गए जिहादियों को पाकिस्तानी झंडे में लपेटा गया, नमाजे-जनाजा में पाकिस्तानी फौज, पुलिस और नेता शामिल हुए। अमेरिका द्वारा घोषित आतंकवादी हाफिज अब्दुल रऊफ के साथ पाकिस्तान के शीर्ष सैन्य अधिकारी जनाते का नेतृत्व कर रहे थे, जो ओसामा बिन लादेन प्रकरण के बाद फिर साबित करता है कि पाकिस्तान में आतंकवाद राजकीय नीति का हिस्सा है।
तीसरा—’ऑपरेशन सिंदूर’ ने भारत की सैन्य ताकत को वैश्विक मंच पर सामने रख दिया। चार दिन चले इस अभियान में भारत ने फ्रांसीसी, रूसी और इजराइली हथियारों के साथ स्वदेशी सैन्य उपकरणों (रडार सहित) और वायुरक्षा प्रणाली (एडीएस) का प्रभावी प्रदर्शन किया। पाकिस्तान का चीनी एडीएस न केवल पूरी ध्वस्त हो गया, बल्कि बाजार में उपलब्ध चीनी माल की तरह खोखला और बेजान निकला। भारत ने सटीक वार करते हुए यह दिखा दिया कि वह बिना आम नागरिकों को नुकसान पहुंचाए अपने किसी भी लक्ष्य को भेद सकता है। अब भारत केवल एक क्षेत्रीय ताकत नहीं, बल्कि वैश्विक रक्षा शक्ति बनता जा रहा है।
फिर भी देश का एक हिस्सा इस बात से असंतुष्ट है कि पाकिस्तान को पूरी तरह क्यों नहीं कुचला गया। इस निराशा के पीछे दो प्रमुख वजह रही। पहली—पाकिस्तान चार पारंपरिक युद्ध हारने के बाद 1980-90 के दशक से जिहादियों के सहारे भारत को हजार घाव देने की रणनीति पर काम कर रहा है। इसलिए देश का एक वर्ग चाहता है कि पाकिस्तान का हमेशा के लिए अंत कर दिया जाए और उसे विश्वास है कि यह कार्य केवल प्रधानमंत्री मोदी ही कर सकते हैं।
दूसरी— कुछ टीवी चैनलों की गैर-जिम्मेदाराना और जरूरत से ज्यादा आक्रामक रिपोर्टिंग। जब कुछ न्यूज एंकरों ने अपनी भावनाओं को ही समाचार बना दिया—जैसे “इस्लामाबाद पर कब्ज़ा” या “लाहौर तबाह”—तो लोगों की अपेक्षाएं भी उतनी ही ऊंची हो गई। संक्षेप में कहें तो, मीडिया के एक हिस्से ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के वास्तविक उद्देश्य को ही पीछे छोड़ दिया।
इस पूरे घटनाक्रम में अमेरिका का दोहरा चेहरा फिर बेनकाब हो गया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह हास्यास्पद दावा किया कि ‘भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम केवल अमेरिका से व्यापार के कारण हुआ’। क्या भारत-पाक के रिश्ते किसी व्यापारिक सौदे से तय होते हैं?— बिल्कुल नहीं। ट्रंप भी जानते हैं कि दोनों देशों के बीच का टकराव सांस्कृतिक और सभ्यतागत मूल्यों पर आधारित है। इसका प्रमाण हाल के पाकिस्तानी बयानों से भी मिलता है। 16 अप्रैल को पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर ने मुसलमानों को हर दृष्टि से हिंदुओं से श्रेष्ठ बताया था, तो 11 मई को उनकी सेना के प्रवक्ता लेफ्टि.जनरल अहमद शरीफ ने इस्लाम को पाकिस्तानी सैन्य प्रशिक्षण का अभिन्न हिस्सा बताया है। दरअसल, पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह जनरल जिया-उल-हक ने अपनी सेना का आदर्श वाक्य बदलकर “ईमान, तकवा, जिहाद फि सबीलिल्लाह” कर दिया था— जो पाकिस्तान की कट्टर इस्लामी विचारधारा को दर्शाता है, जिसे इस्लामी आक्रांताओं की तरह ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है।
अमेरिका और उसके समर्थित दंतहीन संस्थाओं (संयुक्त राष्ट्र और आईएमएफ सहित) ने अपने स्वार्थ में हमेशा दोहरा रवैया अपनाया। 1971 में पाकिस्तान द्वारा हिंदू-बौद्ध नरसंहार के बावजूद अमेरिका ने उसका साथ दिया, पर भारत की विजय नहीं रोक सका। 1979-89 में अफगानिस्तान में सोवियत-विरोध के नाम पर ‘जिहाद’ को प्रोत्साहन देकर तालिबान को जन्म दिया। 2001 में 9/11 प्रकरण के बाद उसी तालिबान पर हमला किया और 2021 में उसी से समझौता कर पीछे हट गया। अमेरिका ने पाकिस्तान के हर सैन्य तानाशाह का समर्थन किया है। वास्तव में अमेरिका के ‘गुड तालिबान-बैड तालिबान’ जैसे मानदंडों ने दुनिया को इस्लामी आतंकवाद और मजहबी कट्टरता के गहरे संकट में झोंक दिया है।
-बलबीर पुंज