देवी अहिल्याबाई ने देशभर में कई प्रसिद्ध तीर्थस्थलों पर मंदिरों, घाटों, कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया। इतनी ही नहीं, उन्होंने सडकों का निर्माण करवाया, अन्न क्षेत्र खुलवाये, प्याऊ बनवाये और वैदिक शास्त्रों के चिन्तन-मनन व प्रवचन के लिए मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति भी की। रानी अहिल्याबाई ने बड़ी संख्या में धार्मिक स्थलों के निर्माण कराए। उनके समस्त कार्यों की पूरी जानकारी तो फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं लेकिन उपलब्ध दस्तावेजों से मिली जानकारी इस प्रकार है –
सोमनाथ – सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसे 1024 में गजनी के महमूद ने नष्ट कर दिया था। साथ ही सोमनाथ मंदिर के मुख्य मंदिर के आस-पास सिंहद्वार और दालानों का निर्माण करवाया।
त्रयंबक – यहां पत्थर का एक सुन्दर तालाब और दो छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण करवाया।
गया – विष्णुपद मंदिर के पास दो मंजिला मंदिर का निर्माण करवाया, जिसमें भगवान राम, जानकी और लक्ष्मण और हनुमान जी की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं।
पुष्कर – एक मंदिर और धर्मशाला बनवाई।
वृन्दावन – एक अन्न क्षेत्र और एक लाल पत्थर की बावड़ी बनवाई।
नाथद्वारा (राजस्थान) – मंदिर, धर्मशाला, कुआं व कुंड बनवाया।
टेहरी (बुंदेलखंड) – धर्मशाला बनवाई।
बुरहानपुर (म.प्र) – घाट बनवाया।
बेरुल (कर्नाटक) – गणपति, पांडुरंग, जालेश्वर, खंडोबा, तीर्थराज, व अग्नि के मंदिर बनवाए।
आलमपुर – सोनभद्र नदी के तट पर बसे इस स्थान पर अपने ससुर की स्मृति में एक देवालय स्थापित करवाया। भगवान विष्णु का एक मंदिर भी यहां बना हुआ है।
हरिद्वार – अहिल्याबाई ने हरिद्वार स्थित कुशावर्त घाट का जीर्णोंधार कराकर उसे पक्के घाट में परिवर्तित कराया। उन्होंने इसी स्थान के समीप दत्तात्रेय भगवान का मंदिर भी स्थापित कराया। पिंडदान के लिए भी एक उचित स्थान का निर्माण करवाया।
वाराणसी – सुप्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का निर्माण करवाया। राजघाट और अस्सी संगम के मध्य विश्वनाथ जी का सुनहरा मंदिर है। यह मंदिर 51 फुट ऊंचा और पत्थर का बना हुआ है। मंदिर के पश्चिम में गुंबजदार जगमोहन और इसके पश्चिम में दंडपाणीश्वर का पूर्व मुखी शिखरदार मंदिर है। इन मंदिरों का निर्माण अहिल्याबाई ने ही करवाया था।
वाराणसी में ही अहिल्याबाई होलकर ने अहिल्याबाई घाट तथा उसके समीप एक बड़ा महल बनवाया। महान संत रामानन्द के घाट के समीप उन्होंने दीपहजारा स्तंभ बनवाया। उन्होंने बहुत से कच्चे घाटों का जीर्णोद्धार कराया, जिसमें से शीतलाघाट प्रमुख है। इस प्राचीन नगर में महारानी ने हनुमान जी के भी एक मंदिर का निर्माण करवाया।
काशी के समीप ही तुलसीघाट के नजदीक लोलार्ककुंड के चारों ओर कीमती पत्थरों से जीर्णोद्धार करवाया। इस कुंड का उल्लेख महाभारत और स्कन्दपुराण में भी मिलता हैं।
बद्रीनाथ और केदारनाथ – धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। सन 1818 में कैप्टन स्टुअर्ट नाम का एक व्यक्ति हिमालय की यात्रा पर गया। वहां केदारनाथ के मार्ग पर तीन हजार फुट की ऊंचाई पर अहिल्याबाई द्वारा निर्मित एक पक्की धर्मशाला उसने देखी थी।
बद्रीनाथ में तीर्थयात्रियों और साधुओं के लिए सदावर्त यानी हमेशा अन्न बांटने का व्रत लिया था। हिंदू धर्म में गंगाजी का व गंगाजल का बड़ा महत्व है। पूरे देश में स्थापित तीर्थस्थान भारत की एकात्मकता व राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। भारत के तीर्थों में गंगाजल पहुंचाने की श्रेष्ठ व्यवस्था द्वारा अहिल्याबाई ने धार्मिकता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकात्मकता की प्राचीन परंपरा को नवजीवन दिया था।
देवप्रयाग – इस स्थान पर अहिल्याबाई ने तीर्थयात्रियों और साधुओं के लिए सदावर्त यानी हमेशा अन्न बांटने का व्रत लिया था।
गंगोत्री – यहां विश्वनाथ, केदारनाथ, भैरव और अन्नपूर्णा चार मंदिरों सहित पांच-छह धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।
बिठूर (कानपुर के समीप) – ब्रह्मघाट सहित गंगा नदी पर कई घाटों का निर्माण करवाया।
ओंकारेश्वर – एक बावड़ी बनवाई और महादेव के मंदिर में नित्य पूजन के लिए लिंगार्चन की व्यवस्था की।
हंडिया – हर्दा के समीप नर्मदा के तट पर स्थित इस स्थान पर एक धर्मशाला और भोजनालय का निर्माण करवाया।
अयोध्या, उज्जैन और नासिक – भगवान राम के मंदिर का निर्माण किया। उज्जैन में उन्होंने चिंतामणि गणपति के मंदिर का भी निर्माण करवाया।
सुलपेश्वर में उन्होंने महादेव के एक विशाल मंदिर और भोजनालय का निर्माण करवाया। तथा उन्होंने एक नई परंपरा शुरू की, कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर आएगा उसे एक लोटा, कंबल मिलेगा और यह परंपरा उस समय से आज भी निभाई जाती है।
एलोरा, महाराष्ट्र – 1780 के आस-पास घृणेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।
महेश्वर – अहिल्याबाई को महेश्वर बहुत प्रिय था। उन्होंने यहां कई प्राचीन मंदिरों, घाटों आदि का जीर्णोद्धार कराया। इसके अलावा, कई नये मंदिर, घाट व मकान बनवाए। उन्होंने महेश्वर में अक्षय तृतीया के शुभ दिन घाट पर भगवान परशुराम का मंदिर बनवाया।
संगमनेर – श्रीराम मंदिर बनवाया।
सिहपुर – शिवमंदिर व धर्मशाला बनवाई।
नेमावर – श्री सिद्धनाथ का सुंदर मंदिर व धर्मशाला सहित नर्मदा पर एक बड़ा घाट बनवाया।
जगन्नाथपुरी मंदिर को दान और आंध्र प्रदेश के श्रीशैलम सहित महाराष्ट्र में परली वैजनाथ ज्योतिर्लिंग का भी कायाकल्प करवाया।
अहिल्याबाई ने हंडिया, पैठण और कई अन्य तीर्थस्थलों पर सरायों (रुकने के एक स्थान) का निर्माण करवाया। मध्य प्रदेश के धार स्थित चिकल्दा में नर्मदा परिक्रमा में आने वाले भक्तों के लिए भोजनालय की स्थापना की। मध्य प्रदेश के खरगोन स्थित मंडलेश्वर में उन्होंने मंदिर और विश्राम गृह बनवाए। मांडू में उन्होंने नीलकंठ महादेव मंदिर की स्थापना की।
अहमदनगर – उन्होंने अपनी जन्मभूमि पर भी एक शिवालय और घाट बनवाया था। यह मंदिर अहिलेश्वर के नाम से जाना जाता है।
कुरुक्षेत्र – रानी अहिल्याबाई को सोने और चांदी से कई बार तोलकर सारा सोना-चांदी ब्राह्मणों को दान कर दिया।
अहिल्याबाई द्वारा किए निर्माण कार्यो का उद्देश्य वैभव व सत्ता का प्रदर्शन करना नहीं बल्कि लोकहित था। उस युग में आवागमन के साधनों का व तीर्थस्थानों में निवास के स्थानों का बड़ा अभाव था। इस दृष्टि से अहिल्याबाई ने देश में कई मार्गो, पुलों, जलाशयों व धर्मशालाओं आदि का निर्माण कराकर एक बड़ी सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति की थी। इन निर्माण कार्यो में अहिल्याबाई की मानवीय भावनाओं व राष्ट्रीय व्यक्तित्व के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
उनकी सैन्य प्रतिभा के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। उनकी सफल कूटनीति का साक्ष्य यह है कि विशाल सैन्य बल से सज्ज आक्रमण की नीयत से आए राघोबा को उन्होंने अकेले पालकी में बैठकर उनसे मिलने आने के लिए उसे विवश कर दिया।
डाकुओं और भीलों को उन्होंने समाज की मुख्य धारा में लाने का यत्न किया तथा समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा को उन्होंने ईश्वर की सेवा माना। उनकी व्यावसायिक दूरदृष्टि का उदाहरण महेश्वर का वह वस्त्रोद्योग है जहां आज भी सैकड़ों बुनकरों को आजीविका मिलती है तथा यहां की साड़ियां विश्वप्रसिद्ध हैं। वे अद्भुत दृष्टि सम्पन्न विदुषी थीं।
इन मंदिरों, घाटों व भवनों आदि का निर्माण राष्ट्र के पुनरुत्थान की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। उत्तर भारत में अधिकांश मंदिर व मूर्तियां मुसलमान शासकों द्वारा नष्ट कर दी गई थीं। तीर्थ-स्थान भ्रष्ट कर दिए गए थे। यदि तब अहिल्याबाई इन मंदिरों का जीणोंद्धार तथा टूटे मंदिरों के स्थान पर नए मंदिरों का निर्माण नहीं कराती, तीर्थस्थानों को पुन: प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कराती, संस्कृत व संस्कृति को आश्रय नहीं देतीं और भारतीय शिल्पियों व कला-कौशल को सब तरह का सहयोग न देतीं तो आज भारत का चित्र कुछ ओर ही होता। उन्होंने ये सारे कार्य कर वास्तव में भारत का पुन: निर्माण करने का महान कार्य संपन्न किया।
-विचार विनिमय न्यास, केशवकुंज, झंडेवाला-दिल्ली