इतिहास के विशाल परिदृश्य में जब भी नारी शक्ति, सुशासन और सामाजिक समर्पण की बात होती है तो एक नाम विशेष श्रद्धा और गरिमा के साथ लिया जाता है ‘लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर’। उन्होंने उस युग में शासन किया, जब स्त्रियों के लिए सत्ता, शिक्षा और स्वतंत्रता केवल एक सपना थी, मगर लोकमाता ने अपने कर्त्तव्यों, न्यायप्रियता और लोककल्याण के मूल्यों से न केवल मालवा राज्य को स्वर्ण युग प्रदान किया बल्कि भारतीय प्रशासनिक इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी। इस वर्ष 31 मई को लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर का 300वां जन्मवर्ष पूरे भारत में श्रद्धा और प्रेरणा के साथ मनाया जा रहा है। यह अवसर न केवल उनके महान जीवन को स्मरण करने का है बल्कि उनके आदर्शों को वर्तमान शासन व्यवस्था और सामाजिक विकास के संदर्भ में पुनः आत्मसात करने का भी है। इस वर्ष लोकमाता की 300वीं जयंती जयंती को राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा है और भारत सरकार द्वारा इस अवसर पर विशेष स्मारक डाक टिकट और ₹100 का स्मारक सिक्का जारी किया जा रहा है। एनसीईआरटी द्वारा उनके जीवन पर आधारित विशेष अध्याय विद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
साधारण कन्या से महान शासिका तक की यात्रा
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गांव में एक मराठा कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता माणकोजी शिंदे एक सामान्य कृषक थे परंतु उन्होंने अपनी पुत्री को धार्मिक और नैतिक मूल्यों की गहन शिक्षा दी। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि मात्र 8 वर्ष की आयु में ही उन्हें मल्हारराव होल्कर की दृष्टि में प्रतिभाशाली माना गया और खांडेराव होल्कर से उनका विवाह संपन्न हुआ। इतिहासकार बताते हैं कि अहिल्याबाई को राजकीय शिक्षा या शाही प्रशिक्षण नहीं मिला था परंतु उनका स्वाभाविक विवेक, निर्णय क्षमता और संवेदनशीलता उन्हें एक कुशल शासक बनाने के लिए पर्याप्त थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि उन्होंने नारी की सहज संवेदना और जननी की करुणा को प्रशासन की रीढ़ बनाया।
शोक को शक्ति में बदलने वाली लौह महिला
विवाह के कुछ वर्षों बाद 1754 में उनके पति खांडेराव होल्कर कुंभेरी के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। उसके पश्चात 1766 में ससुर मल्हारराव होल्कर की भी मृत्यु हो गई। यह दोहरे आघात किसी भी महिला को तोड़ सकते थे परंतु अहिल्याबाई ने इन दुःखों को अपने कर्त्तव्यबोध और लोककल्याण की भावना में बदल दिया। राज्य की सत्ता संभालते समय उन्होंने हर मोर्चे पर कठिनाईयों का सामना किया। उन्हें न केवल बाहरी आक्रमणों से राज्य की रक्षा करनी थी बल्कि आंतरिक प्रशासनिक संरचना को भी सुदृढ़ बनाना था। यह बात बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि अहिल्याबाई के शासनकाल में मालवा राज्य में किसी भी प्रकार की विद्रोह या असंतोष की कोई बड़ी घटना नहीं हुई। उनका शासन इतना न्यायपूर्ण था कि प्रजा स्वयं उनकी सहायता किया करती थी।
प्रशासनिक दृष्टि और सुशासन का अद्भुत नमूना
1767 से 1795 तक लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर के शासनकाल को मालवा का ‘स्वर्ण युग’ माना जाता है। उन्होंने कर प्रणाली में व्यापक सुधार किए। किसानों को ऋण मुक्ति दिलाने और सिंचाई सुविधाओं को विकसित करने के लिए विशेष योजनाएं बनाई। ‘ग्राम स्तर पर स्वराज’ की जो अवधारणा महात्मा गांधी ने 20वीं सदी में दी, वह कई मायनों में अहिल्याबाई के शासन में पहले ही दिखाई देती थी। उन्होंने प्रशासन में पारदर्शिता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उनके दरबार में महिलाएं, गरीब किसान, व्यापारी, सभी को न्याय की समान पहुंच थी। इतिहासकार गोविंद सखाराम सरदेसाई लिखते हैं कि अहिल्याबाई स्वयं हर सुबह जनता दरबार लगाती और अपने हाथ से न्याय करती थी। उन्होंने राज्य को इस तरह व्यवस्थित किया कि हर गांव में राजस्व अधिकारी, ग्राम सेवक और पंचायतें सक्रिय रूप से कार्य करती थी।
लोकहित में धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण
अहिल्याबाई होल्कर का एक बड़ा योगदान भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान में भी रहा। उन्होंने लगभग 1200 से अधिक मंदिरों, घाटों, कुंडों, धर्मशालाओं, सरायों और जलाशयों का निर्माण कराया। केवल मालवा ही नहीं, उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पूर्व और पश्चिम भारत के धार्मिक केंद्रों में भी उनके निर्माण कार्य आज भी देखे जा सकते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार और अहिल्याबाई घाट का निर्माण, द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर का विस्तार, रामेश्वरम और सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण कार्य, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री जैसे दुर्गम तीर्थों पर यात्री सुविधाएं, नासिक, उज्जैन, पंढ़रपुर, चित्रकूट, हरिद्वार जैसे तीर्थ क्षेत्रों में धर्मशालाएं और अन्नछत्र इत्यादि, इन सभी कार्यों में उनका उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं था बल्कि वह तीर्थाटन को एक सामाजिक कल्याण योजना के रूप में देखती थी, जहां श्रम, सेवा, भोजन और विश्राम को संयोजित किया गया।
नारी सशक्तिकरण की जीवंत प्रतीक
18वीं सदी में पर्दा प्रथा, स्त्री शिक्षा का अभाव, बाल विवाह और विधवा को सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता था परंतु अहिल्याबाई ने अपने कार्यों से इन मान्यताओं को चुनौती दी। उन्होंने विधवा विवाह को सामाजिक समर्थन दिया, बालिकाओं की शिक्षा के लिए पाठशालाएं खुलवाई और महिलाओं के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता की योजनाएं बनाई। इतिहास में दर्ज है कि उन्होंने कई बार महिला वादियों के मामलों को स्वयं सुनकर न्याय दिया। उनके दरबार में महिलाएं बेझिझक अपनी बात कह सकती थी, जो उस समय असाधारण बात थी। अहिल्याबाई ने अपने राज्य में एक अत्यंत व्यवस्थित पत्राचार प्रणाली विकसित की थी, जिसे ‘होल्कर दफ्तर’ के नाम से जाना जाता था। यहां से संपूर्ण राज्य के प्रशासन को नियंत्रित किया जाता था। उन्होंने अपने राज्य में स्थानीय डाक सेवा शुरू की थी, जिससे सूचना का संचार तीव्र हो सका। उनके शासन में अफगान लुटेरे मालवा में प्रवेश नहीं कर सके क्योंकि उन्होंने सीमाओं पर सैनिक चौकियों का कुशल प्रबंधन किया। जहां-जहां उन्होंने निर्माण कराए, वहां पत्थर पर उनका नाम अंकित होता था। आज भी कई स्थलों पर ‘श्रीमती अहिल्याबाई होल्कर द्वारा निर्माणित’ शिलालेख पाए जाते हैं।
जनता ने दी ‘लोकमाता’ की उपाधि
महारानी अहिल्याबाई होल्कर को ‘लोकमाता’ की उपाधि किसी शाही आदेश से नहीं मिली थी बल्कि उन्हें यह उपाधि स्वयं जनता ने दी थी। उनके न्याय, सेवा और ममता से जनता उन्हें ‘जननी’ मानने लगी थी। 1795 में 70 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ परंतु उनकी स्मृति आज भी जन-जन में जीवित है। इंदौर स्थित राजवाड़ा परिसर में स्थित अहिल्याबाई का समाधि स्थल तो एक अत्यंत श्रद्धा का केंद्र है, जहां प्रतिवर्ष हजारों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचते हैं। भारत सरकार द्वारा 1996 में उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया था। इसके अतिरिक्त इंदौर विश्वविद्यालय का नाम ‘देवी अहिल्या विश्वविद्यालय’ रखा गया है। महेश्वर नगर में स्थित ‘राजगद्दी स्मारक’ और ‘होल्कर किला’ उनके जीवन और शासन की झलक देते हैं। आज जब भारत महिला सशक्तिकरण, पारदर्शी शासन और सतत विकास की दिशा में अग्रसर है तो लोकमाता अहिल्याबाई का आदर्श प्रेरणास्त्रोत है। उन्होंने शासन को सेवा का माध्यम बनाया, धर्म को लोककल्याण से जोड़ा और नारी को सत्ता की सर्वोच्चता तक पहुंचाया। वे एक जीवन दर्शन थी, जहां करुणा, न्याय, त्याग और विवेक की एक अनुपम संगति मिलती है। आज के प्रशासकों, जनप्रतिनिधियों, समाज सेवकों और विशेषकर महिलाओं के लिए वे एक ऐसा प्रकाश स्तंभ हैं, जिसकी रोशनी सदा मार्गदर्शन करती रहेगी।
-योगेश कुमार गोयल