शिवसेना के संस्थापक हिंदू हृदय सम्राट स्व. बालासाहेब ठाकरे ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता से शिवसेना को महाराष्ट्र में एक उभरती हुई शक्ति के रूप में स्थापित किया। ऐसा बलाढय संगठन अपने वारिशों के हाथ यानी उद्धव ठाकरे और उनके पोते ठाकरे को सुपुर्द करके बालासाहेब ठाकरे गए थे। वारिसों ने क्या किया? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
सबसे बड़ी चीज बालासाहेब ठाकरे ने महाराष्ट्र राज्य और देश को दी, वह थी समाज में समाज के माध्यम से ही नेतृत्व निर्माण करने की पद्धति। समाज के निचले स्तर के लोगों के माध्यम से ही संपूर्ण राज्य में राजनीतिक एवं सामाजिक सांस्कृतिक कार्य का एक बहुत बड़ा नेटवर्क बालासाहेब ठाकरे ने निर्माण किया था। बालासाहेब ठाकरे की इस सोच को शिवसेना में उनके वारिसों ने ही तिलांजलि दी है। हिंदुत्व और महाराष्ट्र विकास के जिस मुद्दे को बालासाहेब ठाकरे ने राजनीति में सत्ता को हासिल करने का माध्यम बनाया था, उन्हीं मुद्दों को उन्हीं के पक्ष में खारिज किया गया। पोंगापंथ की तरह झंडा बुलंद कर जैसे-तैसे वोट और सत्ता हासिल करने की नाकाम राजनीति में उद्धव ठाकरे जुटे रहे हैं।
बालासाहेब ठाकरे महाराष्ट्र के ऐसे जनमान्य नेता थे जिन्होंने मराठी लोगों के साथ समस्त हिंदुओं में प्रेरणा का निर्माण किया था। संपूर्ण देश भर के हिंदू उन्हें हिंदू विचारों का नेता मानते थे। इन वजहों से बालासाहेब ठाकरे का दर्जा हमेशा एक कीर्तिस्तंभ का रहा है। बालासाहेब ठाकरे की यादें अब भी विचारोत्तेजक और चुनौतीपूर्ण है, लेकिन उनके वारिसों ने बालासाहेब ठाकरे ने स्थापित की हुई शिवसेना की राजनीति का कद समय बीतने के साथ बढ़ने के बजाय लगातार छोटा ही किया है। पिछले कुछ सालों में नेतृत्व की कमी के कारण शिवसेना नीतिगत कमज़ोरी का शिकार रही है। जबकि इसी नेतृत्वहीनता के कारण पक्ष भी खस्ताहाल हो गया हैं। और शिवसेना नाम की एक जानदार राजनीतिक पार्टी अब उबाठा शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) नामक पक्ष बनकर रह गया है।
छद्म सलाहकारों से घिरे उद्धव ठाकरे जैसे नेतृत्व के कारण समाज से जुड़े जनमान्य नेताओं की जगह सूबेदारों को पैदा कर दिया है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों का और भाजपा, संघ परिवार का रणनीतिक विरोध करने की जिम्मेदारी संजय राऊत जैसे बड़बोले नेता को सौंपी गई है। संजय राऊत जनमान्य नेतृत्व नहीं होने के कारण आम कार्यकर्ताओं से कितने जुड़े हुए हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। समाज में हो रहे गतिमान परिवर्तन के दौरान पार्टी के दिशाहीन नेता जनता से संवाद करने में असमर्थ रहे। राजनीति में माहौल हमेशा बदलता रहता है।
राजनीतिक दलों के पास ऐसा मजबूत नेतृत्व होना चाहिए जो इस बदलते माहौल को पहचान सके। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 से लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के खिलाफ जनता में असंतोष जगाया। इससे केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ। महाराष्ट्र में संघर्ष करने की परंपरा रखने वाली उबाठा को अभी भी देश की राजनीति की बदली हुई नब्ज का अहसास नहीं हो रहा है। इस कारण बालासाहेब ठाकरे के ज्वलंत हिंदुत्ववादी विचारों से अटैच रहने वाला भव्य जन समुदाय पार्टी से दूर होते गए।
संगठन के दिशाहीन नेतृत्व से नेता, कार्यकर्ता और आम नागरिकों के बीच बड़ी खाई निर्माण होती गई। इस खाई ने संगठन के भीतर ही नेतृत्व के छोटे-छोटे द्वीप बना दिए। खाई के कारण निर्माण हुए छोटे-छोटे द्वीपों का खामियाजा आज पार्टी भुगत रही है। यह स्थिति एकनाथ शिंदे जैसे शिवसेना के कई दिग्गज नेताओं के अलग होने के कारण निर्माण हुई है। बाला साहब ठाकरे के समय शिवसेना के पास कांग्रेस और महाराष्ट्र सहित देश के सम्मुख उपस्थित समस्याओं के खिलाफ लड़ने के लिए एक बड़ा कार्यक्रम था। आज वह शिवसेना मराठी-हिंदी मुद्दे को हवा देकर अपने ही देश के लोगों के साथ लड़ रही हैं। इस प्रकार के मुद्दे का स्वीकार पार्टी की नितिहीनता एवं गिरावट प्रस्तुत कर रही है। बालासाहेब गुजर जाने के बाद पार्टी में संक्रमणकालीन गिरावट का अनुभव होने लगा है। अपने अस्थिर लक्ष्यों और नीतियों पर कायम रहने के कारण उबाठा पक्ष के रूप में विवादों में घिरी है।
आजकल मुंबई की गलियों से मराठी अस्मिता, मराठी भाषा संवर्धन की आवाजें लगातार सुनाई देने लगी हैं। मराठी महाराष्ट्र की भाषा है। महाराष्ट्र में मराठी ही महाराष्ट्र के व्यवहार की भाषा होनी चाहिए। महाराष्ट्र में आने वाले, रहने वाले, उद्योग करने वाले अमराठी लोगों को मराठी भाषा बोलने का, सीखने का प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन वर्तमान में 12 करोड़ से अधिक की जनसंख्या वाले महाराष्ट्र में शिवसेना जैसे राजनीतिक संगठन से अचानक ‘मराठी बचाओ, मराठी बचाओ’ की आवाज क्यों बुलंद हो रही है? 1 मई 1960 को महाराष्ट्र स्वतंत्र राज्य हुआ। यह सफलता अचानक नहीं मिली। 106 अनमोल जीवन बलिदान करके इसे हासिल किया गया। इसमें केवल मराठी लोग ही शामिल नहीं थे, बल्कि राम लखन बिंदा, हृदय सिंह, दार्जो सिंह, पी.एस. जॉन या बालन्ना मुटन्ना कामठी जैसे अमराठी लोगों ने भी महाराष्ट्र के निर्माण के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। फिर भी एक वाक्य हमारे कानों में बार-बार आता है, ‘हम मराठी लोगों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देंगे।’ यह राज्य मराठी लोगों का राज्य है यह बात सही है।
लेकिन अन्य भाषा-भाषी लोगों को महाराष्ट्र छोड़ देना चाहिए? देश की स्वतंत्रता के बाद अब ऐसा समय आया है कि अपने ही देश के लोगों से कहे… चले जाओ? जब यशवंतराव चव्हाण मराठी राज्य का कलश लेकर आए थे तभी किसी ने ऐसी बात का विचार भी किया था? महाराष्ट्र, जिसके नाम में ‘महा’ है, वह भारत का आधार बने’ यानी उन्हें यह लग रहा था कि जब महाराष्ट्र अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, तो पूरे भारत के पैर मजबूत हो जाएंगे। इस प्रकार का विचार तब सभी के मन में था। भारतीय संविधान में यही भावना व्यक्त की है कि देश का कोई भी व्यक्ति देश में कहीं भी रह सकता है, अपना दैनिक जीवन सुधार सकता है। आजीविका के लिए देश में कहीं भी गया मराठी व्यक्ति हर जगह मराठी भाषा और संस्कृति का प्रचार करता हुआ दिखाई देता है। लेकिन महाराष्ट्र की गली-मोहल्लों में ‘मराठी बचाओ, मराठी लोगों को बचाओ’ के नारे उभाठा शिवसेना क्यों बुलंद करने का प्रयास कर रही है?
महाराष्ट्र और भारत में भारत की पुण्य भूमि पर अध्यात्म, राजनीति, समाजकारण, उद्योग जैसे विभिन्न क्षेत्र में मराठी-हिंदी और गैर हिंदी भाषा में महापुरुष हुए हैं। इन महापुरुषों की गणना भी भाषा के आधार पर होने लगी? भारतीय समाज में भाषा इस विषय को लेकर एक बड़ा पाप निर्माण करने की प्रक्रिया उबाठा शिवसेना के माध्यम से हो रहा है? हम सब मानते हैं कि इस भूमि की संस्कृति दुनिया में सबसे अच्छी है और भाषाई अस्मिता के स्वयंभू रक्षक उद्धव ठाकरे जैसे नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के उद्देश्य से समाज में भेदभावपूर्ण व्यवहार निर्माण करके अपनी ही भूमि में अपनी संस्कृति को हीन बना रहे हैं।
इस भाषाई आंदोलन में उबाठा के कुछ ही नेता सहभागी है। महाराष्ट्र की सुसंस्कृत जनता का सहयोग उबाठा शिवसेना को इस बात पर कभी नहीं मिला है। जनता के सहारे के बिना अपनी राजनीतिक नस टटोलने के लिए स्वार्थी राजनेताओं ने किया हुआ स्वप्रेरित आंदोलन है। इन्हें महाराष्ट्र की आम जनता का सहयोग नहीं है। क्या इन नेताओं को कभी नहीं लगता कि अगर हमें जनता का समर्थन नहीं मिलता है, तो हम क्या खो रहे हैं? ग्रामीण क्षेत्र में हो रहे स्थानांतर, अशिक्षित, बेरोजगारी, दो वक्त की रोटी की समस्या, नशा पान की बढ़ती समस्या हमारे अपने लोगों की जिंदगी को बर्बाद कर रहा है, महिलाओं के प्रति समाज में हो रहे दुर्व्यवहार जैसे कई विषय हमारे समाज में पनप रहे हैं। ऐसे विषयों पर इन आंदोलनकारी उबाठा शिवसेना का रूख जागरूक क्यों नहीं होता? लेकिन मराठी-हिंदी जैसे अस्मिता से जुड़े हुए विषयों को लेकर जन भावना भड़काने का प्रयास करने वाले नेता अपने मकसद के लिए समाज को भड़काते है। देश का भविष्य समझे जाने वाले युवाओं के हाथों में पत्थर देते हैं, उनमें नकारात्मक भाव निर्माण कराते हैं। भाषा, प्रांत के बीच मतभेद पैदा करने के साथ-साथ भाषा विवाद से सुसंस्कृत लोगों के मन में भय पैदा करने के उद्देश्य के पीछे क्या सिर्फ मराठी को बचाना, सिर्फ भाषा का संवर्धन करना और मराठी अस्मिता को संरक्षण देना इतना ही उद्देश्य है? या अपनी राजनीतिक डुबती नैया को बचाने का एक और प्रयास है? महाराष्ट्र इस बात का उत्तर चाहता है।
राजनीतिक नेता में लोगों के मन को जानने, लोगों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया को समझने और बदलते माहौल को पहचानने का हुनर होना चाहिए। उद्धव ठाकरे, उनके पुत्र आदित्य ठाकरे की तो बात ही छोड़िए, इनके पार्टी का चेहरा माने जाने वाले मौजूदा नेताओं में भी किसी में भी यह हुनर नहीं है। यदि यह हुनर होता तो हिंदुत्व के मुद्दे को छोड़, जिनकी नैया डूब रही है ऐसे पक्षों की विचारधारा में शिवसेना शामिल नहीं होती। इस कारण पार्टी महाराष्ट्र की जनता से तालमेल नहीं बिठा पाई। इसका सीधा असर लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर पड़ा है। अपने राजनीति पर गंभीर विचार करने का समय उबाठा में आ गया है। विचारधाराहिन और नितिहिन नेताओं द्वारा की गई राजनीति शिवसेना की समस्या बन जाए तो समाधान का मार्ग कौन ढूंढेगा?
अक्षमतावान नेतृत्व और अनस्टेबल मुद्दों के कारण आज उबाठा शिवसेना में नेतृत्व शून्यता की स्थिति निर्मित हो गई है। जनहित और महाराष्ट्र हित के मुद्दों पर सटीक और सही निर्णय नहीं हो पा रहे है। इसी कारण महाराष्ट्र में होने वाले महानगरपालिकाओं के चुनाव को ध्यान में रखकर मराठी अस्मिता का गलत प्रकार से जागरण करने का प्रयास उबाठा कर रही है। मराठी-हिंदी जैसे समाज में दुविधा निर्माण करने वाले मुद्दे शिवसेना को आज के विकास युग में सहयोग नहीं करेंगे।
समस्याओं का स्थायी समाधान निकालने के बजाय चुनाव को ध्यान में रखकर तत्कालीन मुद्दों को हवा दी जा रही है। कार्यकर्ताओं की स्थिति बिना पतवार वाली नाव जैसी हो गई हैं। छोटे-मोटे नेता दिशाहीन अवस्था में है। उबाठा शिवसेना के कार्यकर्ता और नेता अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। पार्टी का जनाधार सिकुड़ रहा है। पक्ष में बचे हुए नेताओं में अपने भविष्य को लेकर विश्वास नहीं है। लेकिन पार्टी आलाकमान माननीय उद्धव ठाकरे यह सब चुपचाप देखते रहने को मजबूर है। लगता ही नहीं कि पार्टी की रक्षा करने वाला कोई है। इस कारण भविष्य में उबाठा शिवसेना में बचे हुए विधायकों और पार्षदों के बिखर जाने की आशंका भी गहरी है।
बालासाहेब ठाकरे ने अत्यंत परिश्रम से शिवसेना का निर्माण और प्रसार किया था। जो महाराष्ट्र सहित देश की जनता के मन पर राज करती थी। उन्हें एक आधार लगती थी। आज वह शिवसेना कहीं दिखाई नहीं देती है। कोई भी राजनीतिक पक्ष लोगों के मन से गिर जाता है, तो उस राजनीतिक पक्ष का अस्तित्व भी आहिस्ता-आहिस्ता समाज से खत्म हो जाता है। दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता रखने वाले बालासाहेब ठाकरे के वारिस उद्धव ठाकरे के दिशाहीन और नितिहीन नेतृत्व में शिवसेना जनता के मन से समाप्त होने का कार्य न हो, इसी सद्भावना के साथ …