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समरसता का सेतु: जनजाति सामूहिक विवाह संस्कार

समरसता का सेतु: जनजाति सामूहिक विवाह संस्कार

by हिंदी विवेक
in अवांतर, ट्रेंडींग
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वनवासी कल्याण आश्रम उत्तरबंग द्वारा आयोजित 108 जनजाति जोड़ों के सामूहिक विवाह संस्कार समारोह का गत 15 वर्ष के उपलब्धि पर प्रस्तुत लेख-

उस भव्य मैदान में निर्मित विवाह मंडप में मंगलमय वातावरण में विवाह विधि के मंत्र पढ़े जा रहे थे। विवाह मंडप का वातावरण अद्भुत उत्साह और पवित्रता से भरा हुआ था। मुख्य पुरोहित के साथ उनके सहयोगी द्वारा मंडप में बैठे परिणय सूत्र में बंधे जानेवाले दाम्पत्य; सूचना अनुसार एक एक रस्में पूरी करते जा रहे थे। होमहवन, गणेश पूजन, मंगल बेला, कन्यादान के साथ वरमाला पहने के लिए संकेत दिए गए। एक साथ उस विशाल विवाह मंडप में एक… दो… तीन… चार… पच्चीस… चालीस…. पचहत्तर… नब्बे…. सौ… करते-करते 108 जोड़ियों ने एक दूसरे को फूल माला पहनाकर विवाह के पवित्र बंधन से जुड़ गए।

जिनका विवाह हुआ वह सभी अनुसूचित जनजाति याने ST जिन्हें हम आदिवासी, वनवासी, ट्राइबल कहते है। जो अपनी विशेष संस्कृति, धरोहर को संजोए, सीधे-साधे, भोले भाव, लज्जालु स्वभाव, अबोल से जाने जाते हैं, वह सभी उत्तर बंग के पांच जिला, सतरा ब्लॉक, 70 ग्राम, जिसमें 39 चायबगान क्षेत्र से कुल सोला जनजाति से आए हुए थे और इस सभी सामूहिक विवाह संस्कार का कन्यादान करने उनके माता-पिता के साथ-साथ वनवासी कल्याण आश्रम के विनती को स्वीकार करते हुए समाज के प्रबुद्ध एवं गणमान्य नागरिक हरेक के अस्थाई माता-पिता बनकर उस विवाह का खर्चा उठाकर अपने परिवार सहित उपस्थित थे, मानो अपने बेटी-बेटे का विवाह समारोह हो।

 सप्तादी समाप्त होने के बाद जब मांग में सिंदूर भरने की सूचना हुई तब सभी नए दाम्पत्य के आखों में चमक सी थी। लग्न संस्कार के सामूहिक वातावरण का वह परमोच्च बिंदु था। मंगल वाद्य बज रहे थे। परम्परागत जनजाति नृत्य साकार हो रहा था। लगभग दस हजार के ऊपर बारातियों से लेकर सभी भाव विभोर हुए थे। सभा मंडप में उपस्थित सभी परिजनों की आंखे हर्ष से नम हुई थी।

जिनका विवाह हुआ था और जिन्होंने कन्यादान किया था उन दोनों परिवार का आपसी कोई खून का रिश्ता-नाता नहीं था। आपस में एक दूसरे की पहचान भी न थी। भाषा-भूषा, रहन-सहन से भी अलग थलग थे। मगर वह सभी आनंद अश्रु के साथ एक दूसरे से बिलग रहे थे। माता-पिता बनकर कन्यादान किया, उसी स्थान पर सास-ससुर बनकर आशीर्वाद दे रहे थे। जीवन के अनोखे कार्यकम में सहभागी होने की अनुभूति ले रहे थे।

यह पंधरवा अनुपम विवाह संस्कार समारोह साकार हुआ सिर्फ वनवासी कल्याण आश्रम के अथक परिश्रम के कारण। यह सिर्फ एक सामूहिक जनजाति विवाह समारोह नहीं है बल्कि अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, मालिक-नौकर, शिक्षित-अशिक्षित, परिचित-अपरिचित, इस प्रकार के समाज के लगभग सारे भेद नष्ट करते हुए सभी आत्मीयता, अपनेपन से स्वयं मर्ज़ी का कार्यक्रम था। आने वाले सभी को यह भी पता था कन्यादान किए हुए बहुत सी जोड़ीयों का आपस में पुनर्विवाह था क्योंकि लग्न की सारी प्रक्रिया चलते समय उनके अपने बच्चे भी साथ थे। कुछ वरमाला तो बच्चे को गोद में रखते हुए पहनाएं गई। इस सच्चाई से वाकिब होकर एक ऊंची सोच को अपनाकर, अपना दृष्टिकोण विशाल करते हुए एक समरस भाव और सहवेदना से सामाजिक कार्य में जुड़ने का, ‘तू मैं एक रक्त’, ‘नगरवासी-ग्रामवासी-वनवासी हम सब भारत वासी’ एक ही है, यह अनुभूति प्रदान करने वाला तथा सुदृढ़ समरस समाज निर्माण का सेतु साबित हुआ।

हमारे प्राय ग्रंथों में “विवाह की परिभाषा यह है कि, वह स्त्री-पुरुष का शास्त्र समंत ऐसा योग है, जिससे स्त्री से जन्मा बच्चा माता-पिता की वैध सन्तान माना जाय। इसलिए जनजाति क्षेत्र में विवाह योग्य तथा प्रजनन की क्षमता रखने वाले वर और वधु को धार्मिक एवं मांगलिक जितनी आवश्यक रस्में पूर्ण करने के बाद एकत्रित पति-पत्नी के नाते नया संसारिक जीवन प्रारंभ करने की अनुमति मिलती है। मगर जब तक गांव या परिवार को विधिवत या योग्य मान सम्मान, खान-पान के साथ संसुष्ट किया नहीं जाता हैं तब तक वह विवाह आधा-अधूरा माना जाता है। यह एक सामाजिक रीति के नाम पर चल रहा है। मगर धीरे-धीरे यह कुरीति बन गई है। प्राय विश्व में विवाह की ऐसी कुछ कुरीतिया न चाहते हुए भी पूर्ण करने की मजबूरी बनी है।

क्योंकि सम्मान में पैसा बहुत खर्च होता है। कर्ज लेना पड़ता है। कुछ चीजें बेचनी पड़ती है, पूरे परिवार का जीवन दांव पर लग जाता है। जनजाति क्षेत्र यह वर्तमान विकास क्रम से दूर है। साधन सुविधा, यंत्र-तन्त्र नहीं के होने के बराबर है। अपना जीवनयापन करना उसके लिए कठिनाइयों से भरा एक पथ है। इसलिए इच्छा होते हुए भी अनेक परिवार अपने परिजन तथा गांव को अपने इस आनंद की घड़ी में सहभागी कर नहीं पाते हैं। विवाह और पारिवारिक जीवन तो प्रारंभ हो जाता है। बच्चे भी होते हैं, ससुराल से नए रिश्ते भी कायम हो जाते है। मगर समाज की दृष्टि से उन्हें बार-बार अवहेलना झेलनी पड़ती है। पहले ऐसे विवाह जीवन के अंतिम पड़ाव या मृत्यु के समय किए जाते थे या असमर्थता से क्षमा याचना के साथ सामाजिक तानाबाना को स्वीकार करते हुए यह ऋण पीछे छोड़कर व्यक्ति गया, ऐसे माना जाता था। आगे यह ऋण शेष परिवार में कायम हो जाता।

भारतीय समाज सिर्फ अपने प्रतिज्ञा में लिखे ‘हम सभी भारतवासी भाई-बहन है’ तक सीमित नहीं है तो एक-दूसरे से सच में पारिवारिक भाव, आत्मीयता पूर्ण व्यवहार, संवेदना और स्नेह सूत्र से बंधा हैं। इसकी अनुभूति हम ने अनेकों बार ली है। इतना ही नही तो अखिल मानवता के लिए भी उसके मन में संवेदना जागृत रहती है और इसी कारण जब समाज के निम्न स्तर पर या अंतिम पायदान पर रहने वाले अपने बंधु की यह समस्या जब प्रत्यक्ष देखने मिलती है या अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम एवं अन्य जनजाति क्षेत्र में कार्य करने वाले संस्थानों के द्वारा पता चलती है तो उसे अपनी समस्या मान कर सुलझाने के लिए कुछ संवेदनशील व्यक्ति, दाता और समाज हमेशा कर्ता के रूप में आगे आता है।

आज भारत के 11 करोड़ जनजाति के लिए सरकारी तन्त्र के बाद आज कोई धरातल पर काम कर रहा है तो वह ‘अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम’ यह सामाजिक संगठन है। जनजाति समाज जो दूर-दराज, वनक्षेत्र, पहाड़ों में अपना कष्टमय जीवन मगर आनंद से यापन कर रहा है। उसका जीवन विभिन्न माध्यमों से गत 73 सालों से लगातार लोगों के सामने प्रस्तुत करता रहा है। इस समाज को भी अपने अस्तित्व, अस्मिता के साथ स्वालंबन से पैरों पर खड़ा करते समय उनके समग्र विकास का ध्यान रखने के लिए 17000 स्थान पर 23000 के ऊपर प्रकल्प के द्वारा सेवा कार्य कार्यरत है।

और इसमें से सभी समाज को जनजाति से जोड़ने का एक अनोखा जो समरसता सेतु हमने खड़ा किया है उसका एक माध्यम सामूहिक जनजाति विवाह समारोह है।
विवाह संस्कार से बंधित सभी ने प्रमाणपत्र और भारतमाता की प्रतिमा प्रदान की तब वनवासी कल्याण आश्रम और निर्माण हुए नए पारिवारिक संबंध के प्रति लोगों ने कृतज्ञता प्रकट की। उनके विवाह को समाज में मान्यता दिलाने के लिए और जनजाति समाज में उनकी प्रतिमा पुनः स्थापित करने हेतु आभार प्रकट किए।
भारतीय परंपरा और सनातन धर्म में कुल 16 संस्कार, जो व्यक्ति के जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के बाद तक अपनाए जाते हैं।
इस सभी संस्कारों का अपने आप में एक महत्व है मगर विवाह बंधन का संस्कार सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।

आरण्यक संस्कृति से विकसित होते-होते मनुष्य धीरे-धीरे नगर संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया मगर आज भी विवाह के सभी विधि महत्वपूर्ण माने गए है क्योंकि विवाह एक महत्वपूर्ण सामाजिक और धार्मिक संस्कार है जो कुलदेवता, भगवान, आपत्जन, मित्र-परिवार के साक्षी से दो व्यक्तियों को एक साथ लाता है और उन्हें एक परिवार बनाने की अनुमति देता है। वर्तमान में यह एक कानूनी बंधन भी है जो पति-पत्नी को कुछ अधिकार और सुरक्षा प्रदान करता है।

सनातन धर्म में कुल आठ विवाह के प्रकार समय अनुसार रहे हैं।

1. ब्रह्म विवाह
यह सबसे उत्तम प्रकार का विवाह माना जाता है, जिसमें पिता या परिवार अपनी कन्या या पुत्र के लिए कुल संपन्न, उत्तम गोत्र आधारित, अनुरूप योग्य वर और वधू का चयन उनके गुणों के आधार पर करता है.2) दैव विवाह, 3) आर्ष विवाह 4) प्रजापत्य विवाह 5) असुर विवाह 6) गंधर्व विवाह 7) राक्षस विवाह 8) पिशाच विवाह, उपरोक्त आठ विवाह प्रकार में से ब्रह्म विवाह ही धर्म समंत माना गया है।

प्रजापत्य विवाह में पिता अपनी पुत्री को वर को सौंपते हुए यह आदेश देता हैं कि वे गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए कुल को आगे बढ़ाए। वर्तमान स्थिति में विवाह के सभी प्रकार नई परिभाषा में गठित हुए दिखते हैं। रीति-रिवाजों और धार्मिक अनुष्ठानों के साथ संपन्न होने वाले पारंपरिक विवाह के साथ वर्तमान लिव-इन-रिलेशनशिप :
यह एक ऐसा रिश्ता है जिसमें दो लोग बिना विवाह या शादी कर जो (कानूनी या आपस में करार) किए एक साथ रहते हैं। कानूनी समझौता से जो न्याय पालिका में किया जाने वाला विवाह कोर्ट मैरिज है। बड़ी मात्रा में आज भी सनातन धर्म के अनुसार विवाह यह सात जन्मों का बंधन माना गया है। वर्तमान में विवाह संस्था भी काल सुसंगत कुछ गड़बड़ी निर्माण होने के कारण रिश्ता टूटना जिसे कड़ीमोड, घटस्फोट, या डायवोर्स कहा जाता है। यह भी अनुभव में आ रहा है इसलिए सामाजिक और धार्मिक बंधन के साथ विवाह कानूनी विधि विधान तौर पर भी महत्वपूर्ण अब माना जाता है। इस सभी पृष्ठभूमि पर आरण्यक, वन, जनजाति संस्कृति में विवाह बंधन को प्राकृतिक नियम और जंगल की खुली दृष्टि से अपनाया जाता है या स्वीकार किया गया है इसलिए प्राय परिस्थिति अनुसार सनातन धर्म के पहले चार प्रकार भारत के प्राय सभी जनजाति में दिखाई देता है,

साथ ही देश के विभिन्न स्थानों पर जिसमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात, दक्षिण बंग और उत्तरबंग ऐसे राज्यों में यह सामूहिक विवाह संगठन के साथ-साथ समाज जीवन का भी एक अहम हिस्सा बन गया है।

वनवासी कल्याण आश्रम उत्तरबंग द्वारा 15 साल से प्रतिवर्ष 108 वनवासी जोड़ों के सामूहिक विवाह संस्कार का आयोजन किया जा रहा है। दो जगह पर किया जा रहा एक सिलीगुड़ी और दूसरा अलीपुरद्वार जिले के पानबाड़ी में। इस वर्ष यह आयोजन दिनांक 12 अप्रैल को पानबाड़ी तथा 4 मई 2025 को वनवासी कल्याण आश्रम के सालबाड़ी छात्रावास में संपन्न हुआ।
वनवासी कल्याण आश्रम उत्तरबंग के प्रांत संगठन मंत्री रहे श्रीमान शक्तिपद ठाकुर, डॉ. अशोक जेना, आशीष जी उनके अथक प्रयास से यह समारोह सुचारू रूप से चल रहा है। गत 15 वर्ष की विशेष बात यह है कि इसमें मुख्य अथिति के नाते कहीं प्रांत के राज्यपाल, सांसद सदस्य, लोक प्रतिनिधि से लेकर सिलीगुड़ी तथा उत्तरबंग के कई गणमान्य व्यक्ति, उद्योगपति, संत, सहभागी हुए हैं। इस पूरे आयोजन का खर्चा लाखों रुपए तक होता हैं।

समाज के गणमान्य, दानदाता व्यक्ति हर साल अपने घर का कार्य समझकर बड़ी उदारता से आर्थिक सहयोग प्रदान करते हैं। मुझे इस भव्य आयोजन में सहभागिता का भाग्य मिला। नियोजन के साथ आर्थिक जिम्मा उठाया था, इस मदद के साथ कार्यक्रम की जानकारी सोशल मीडिया में मैने प्रस्तुत की थी। कुछ मित्रों ने पहल की। ऐसे सामाजिक कार्य को तुरंत मदद करने वाली हमारी बहन पुणे की शेफाली वैद्य ने भी कार्यक्रम में व्यस्त होने के बावजूद स्वयं की ओर से भारी आर्थिक मदद की। हर वर्ष भारी मदद करने वालों के पास इस वर्ष न जाने का निर्णय लिया था, अनुभव ऐसे है कि जब उन्हें निमंत्रण पत्रिका देने गए तब उन्होंने उनके निश्चित राशि कार्यकर्ता के पास जमा की, समाज ने यह कार्यक्रम अभी अपना मान लिया है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि यह सारा आयोजन सिलीगुड़ी महानगर इकाई द्वारा किया जाता है।

सिलीगुड़ी कल्याण आश्रम की महिला समिति ने यह अपने जीवन का उद्देश्य मानकर कर इसके लिए साल भर नियोजन करते हुए नए-नए लोगों तक विषय को लेकर जाना, इसका महत्व समझाना और उनसे इस माध्यम से कल्याण आश्रम से जोड़ना यह लगातार करती आ रही है। साथ ही नेपाली समाज जो सिलीगुड़ी परिसर में बड़ी मात्रा में है विशेष करके सभी 108 जोड़ों को भोजन परोसने का ज़िम्मा यह सभी महिलाएं आनंद से करती है। दिन प्रतिदिन इस समारोह में सहभागी होने वाले बारातियों की भी संख्या बढ़ रही है। इस वर्ष लगभग 10,000 से ऊपर लोग इस अनुपम कार्यक्रम में उपस्थित हुए थे। जिन के लिए मिष्ठान भोजन का प्रबंध किया गया था।

सामूहिक विवाह संस्कार के तहत अपने पुत्र-पुत्री का विवाह करना जनजाति समाज में भी स्वीकार किया गया है। जब आपका काम बढ़ जाता है। समाज द्वारा स्वीकृत हो जाता है। सर्वमान्य बनता है तब पता चलता है कि ऐसे कार्यक्रम में बाधा, विघ्न निर्माण करने के लिए भी अराजक तत्वप्रणाली द्वारा प्रयास प्रारम्भ किए जाते है। कल्याण आश्रम का यह मानना है कि अन्य संगठन भी और स्वयं जनजाति संगठन भी ऐसे सामूहिक विवाह तथा जनजाति के उन्नति के लिए अवश्य प्रयास करें। अच्छी बात है कि इस वर्ष कुछ जानजाती संगठन ने सामूहिक विवाह करना प्रारंभ किया। मगर वह सारे प्रयास सच्चे मन से और निस्वार्थ भाव से होने चाहिए ना कि कोई संगठन जो अच्छा काम कर रहा है उसमें रोड़ा बनकर अपने ही समाज के हित को हानि पहुँचाने के। यह भी दिखाई दिया कि केवल वनवासी कल्याण आश्रम कर रहा है तो वह न करे इसलिए हर प्रकार विरोध करने हेतु कुछ संस्थाएं इतनी नीचे गिरकर काम कर रही है, जिसका अनुमान लगाना संभव नहीं।

उदाहरण के तौर पर एक संस्थान ने उसी दिन सामूहिक विवाह करने का घोषित किया। जिनका पंजीकरण कल्याण आश्रम में हुआ था उनसे जबरदस्ती पंजीकरण रद्द कराकर उन्हें अपने यहां पर पंजीकरण करने के लिए मजबूर किया। जो भूल चुक कर वहां पर गए थे उन्हें भी जबरदस्ती रोककर रखा। इतना करने के बाद भी एक जोड़े का भी विवाह वह संपन्न नहीं कर पाए। वैचारिक विरोध के कारण अपना अलग सा दुकान निर्माण करते हुए अपने ही लोगों को फंसा रहे है। दूसरी बात पूरे जनजाति क्षेत्र में धर्मांतरित करने वालों की भी बहुत बड़ी समस्या खड़ी हुई है। मिशन प्रणीत संस्थाएं तो बिना डरे हुए खुले आम मतांतर कर रही है। ऐसे भी लोग सामूहिक विवाह करते थे मगर उसके लिए नियम यह था अपना धर्म त्यागकर, मत परिवर्तन को स्वीकार करते हुए धर्मांतरित होना अनिवार्य होता था। उस समय कोई राह भी नहीं थी, इसलिए मजबूरी में करना पड़ता था।

आज कल्याण आश्रम के 15 साल के निरंतर प्रयास के कारण जनजाति समाज और जनजाति युवा इस षडयंत्र से बच गए हैं और एक बात बड़ी शोर-जोर से बताई जाती है कि जनजाति का कोई धर्म नहीं होता है। वह यहां के मूल निवासी है। आदिवासी है। सनातन हिंदू धर्म से उनसे कोई नाता नहीं। मगर इस सामूहिक विवाह संस्कार ने यह बात भी डंके की चोट पर उजागर कर दी कि भारत में रहने वाले और अपनी आस्था परंपरा से जुड़े हुए सभी जनजाति सनातन धर्म के ही अंग है। वह प्रकृति पूजक होने के पंच महाभूतों के साथ अनेक देव देवताओं, शक्ति को मानते हैं और उन पर नित्य व्यवहार भी करते हैं।

सामूहिक विवाह में सम्मिलित होने वाले सभी जोड़े ना कोई कार्यकर्ता होते हैं ना उनका इस दृष्टि से प्रशिक्षण किया जाता है। उस दिन आने के बाद ही उनकी जनजाति, उनकी परंपरा पता चल जाती है मगर सभी जनजाति अपने अपने गोत्र, कुलाचार अनुसार विधि वत कार्य करता है जो सनातन धर्म की मूल स्त्रोत है। सामूहिक विवाह के पहले जनजाति के पहन, भगत अपने-अपने पद्धति से भगवान को आवाहन करते है। हम जो शुभ कार्य में भगवान की गवाही देते है। वहां प्रत्यक्ष पहले भगवान शिव पार्वती का विवाह सम्पन्न होता हैं। स्थानीय नदी को मां गंगा मानते हुए वहां के जल अभिमंत्रित करते हुए जल कलश साथ दिया जाता है। उसी से विवाह विधि सम्पन्न होते हैं।

मंडप पूर्व सभी जोड़ों के पांव धोए जाते हैं। जिसमें केवल वर के ही पांव धोए जाते है ऐसे नहीं तो वधू के भी पांव धोए जाते हैं। फिर भगवान राम सीतामाता, महादेव, हनुमान जी की विधिवत पूजा करने के बाद ही, जनजाति मंत्र उच्चारण, लोक गीत नृत्य के साथ सभी को मंडप में लाया जाता है। इसलिए यह जो प्रकृति के साथ रहने वाला जो हमारा जनजाति समाज और नगरीय समाज मंत्र विधि से भी एक दूसरे से बंधा हुआ है। आमतौर पर अपनी-अपनी परंपरा से जीने वाला जनजाति समाज भी कुछ कारण वश इकट्ठा आता है। मगर इस सामूहिक विवाह में 16 जनजाति के और विशेषता यह भी रही की 39 चाय बागान क्षेत्र से लोग आए थे, अनुशासन में रहे। साथ भोजन किया, नृत्य किया। आनंद लिया, यह भी अपने आप में एक परस्पर स्नेहमय सेतु है।

कुल मिलाकर यह सामूहिक विवाह संस्कार आवश्यक कार्यक्रम के साथ-साथ पुण्य का भी धाम है। इसमें कार्यकर्ताओं का समय का दान है। अगणित तन- मन के परिश्रम का दान है और आखरी में अर्थदान के साथ-साथ कन्यादान करने का सौभाग्य मिलना, जो आनंद के परमानन्द की अनुभूति का विषय है।

-शरद चव्हाण

(मूल रूप से मुंबई के कार्यकर्ता है। वर्तमान समय में एक प्रचारक के तौर पर वनवासी कल्याण आश्रम उत्तरबंग प्रांत सह संगठन मंत्री (केंद्र सिलिगुडी) का दायित्व हैं।)

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