यह सर्वेश तिवारी ‘श्रीमुख’ जी द्वारा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। लेखक ने सन् 1567 ई० में अकबर द्वारा मेवाड़ राज्य के चित्तौड़ दुर्ग पर किये गये आक्रमण को आधार बनाकर भारतीय राजपूतों के साहस, त्याग, पराक्रम और मूल्यों को उकेरने के साथ-साथ मध्यकाल के मुगल आक्रान्ताओं (विशेषतः अकबर) की असभ्यता, क्रूरता और बर्बरता को रेखांकित करने का प्रयास किया है।
लेखक की मान्यता है कि पारम्परिक इतिहास लेखन पर आधारित अधिकांश पुस्तकें भारतीय वीरों एवं राजाओं को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने का षड्यन्त्र मात्र हैं। इन पुस्तकों में जानबूझकर ऐसी सामग्री परोसी गयी है जिनमें एक ओर तो असभ्य, क्रूर, निर्मम, निर्दयी, बर्बर, लम्पट और लुटेरे आक्रान्ताओं का भौंड़ा महिमामण्डन किया गया है वहीं दूसरी ओर वीर, साहसी, न्यायप्रिय, प्रजावत्सल; परम्परा, सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा हेतु सदैव मर-मिटने को तैयार योद्धाओं और राजाओं को कायर एवं गद्दार सिद्ध करने का कुत्सित षड्यन्त्र किया गया है। लेखक का मत है कि ऐसे षड्यंत्रों के विरुद्ध सशक्त तर्कों एवं तथ्यों के साथ लेखनी चलाकर एवं मजबूत विमर्शों द्वारा इन कुप्रचारों का खण्डन किया जाना चाहिए, जिससे जिस भारतीय निष्ठा, वीरता, शौर्य एवं पराक्रम के धवल पक्ष को धूमिल करने की साजिश सदियों से होती रही है, वह अपने शुभ्रतम स्वरूप में सदैव स्थापित रहे। भारतीय लोक अपने पूर्वजों को गर्वोन्नत मस्तक के साथ नमन करे, न कि उन्हें कायर और गद्दार समझकर शर्मिन्दा हो। लेखक पूर्व में भी अपने कथा लेखन के माध्यम से इस दिशा में प्रयत्नशील रहा है और यह उपन्यास उसी सिलसिले की एक शक्तिशाली कड़ी है। सदैव की भाँति लेखक का चयन किया हुआ अपना एक पक्ष है और वह उसी ओर दृढ़ता से रहकर इस कथानक को सँवारता है।
अकबर और राजपूतों के मध्य हुए इस युद्ध के परिणाम के सन्दर्भ में लेखक ने भूमिका में कहा है कि जिस कालखण्ड में सनातन धर्म, संस्कृति और वैभव को विध्वंस कर देने के लिए बर्बर बाहरी शक्तियाँ अपनी सम्पूर्ण शक्ति और क्रूरता झोंक देने को आतुर थीं, ऐसी बर्बरता के विरुद्ध भारतीय शक्तियों के प्रतिरोध के फलस्वरुप हुए युद्ध का आँकलन लेखक हार और जीत के आधार पर नहीं करता क्योंकि भारतीय शक्तियाँ सदैव अपना भगवा ध्वज दृढ़ता से थामे हुए पुनः उठ खड़ी होती रहीं और ये आक्रान्ता कभी अपने काले उद्देश्यों में सफल नहीं हो सके।
इसमें एक ओर अकबर द्वारा चित्तौड़ की घेरेबन्दी से लेकर अन्तिम युद्ध तक का वर्णन और दूसरी ओर इसी के समानान्तर चलने वाली एक पावन प्रेमकथा का सृजन किया गया है। कृष्णा कँवर और कल्ला जी राठौर के बीच की ये प्रेम कहानी मर्म को गहरे स्पर्श करती है। इसमें न मिलन है, न मादकता है और न ही मखमली सेज है बल्कि यह प्रेमकथा पवित्रता, निःस्वार्थता, त्याग, समर्पण, राजपूतों के उच्च आदर्शों और कर्तव्यबोध से ओतप्रोत है।
इस प्रेमकथा के अतिरिक्त चित्तौड़ पर चढ़ाई के लिए अकबर की सैन्य तैयारी, दुर्ग के प्राचीरों के भेदन और उसमें से प्रवेश करने के लिए किए गए प्रयास और विफलताएँ, अकबर की कायरता और क्रूरता, अवश्यम्भावी पराजय को देखते हुए भी राजपूतों का आत्मोत्सर्ग के लिए तत्पर होना, भीलों एवं अन्य रजवाड़ों की मेवाड़ के प्रति वफादारी, राजपूतों की शरणागतवत्सलता, एक ओर बाजबहादुर जैसे अयोग्य और मौकापरस्त शासक तो दूसरी ओर महारानी दुर्गावती जैसी सुयोग्य वीरांगना का प्रशासन जैसे तत्कालीन दृश्यों का समावेश है। अकबर के सैन्य साजो-सामान का विवरण थोड़ा नीरस प्रतीत होता है। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है जैसे दुश्मन सेना के विषय में लिखा गया कोई सरकारी दस्तावेज़ पढ़ रहा हूँ। अन्य सभी दृश्य अपनी प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से समीचीन दिखाई देते हैं।
अंतिम युद्ध से ठीक पूर्व ‘जौहर’ का जो दृश्य लेखक ने खींचा है मेरी दृष्टि में वही इस उपन्यास का सर्वोत्कृष्ट भाग है। यद्यपि लेखक कहता है कि वह इस दृश्य को लिखने में न्याय नहीं कर पाया है तथापि इसको पढ़ते हुए अंग- प्रत्यंग सिहर उठते हैं, कलेजा फटने लगता है, हृदय विदीर्ण हो उठता है, आँखें चल पड़ती हैं, शरीर शिथिल होने के पश्चात अकड़ने लगता है। वैदिक ऋचाओं के उच्चारण के मध्य मातृशक्तियों का यह त्याग देखकर कोई पाषाण भी गल उठेगा। जौहर के लिए मन्त्र पढ़ते ब्राह्मण की वेदना के अनुभव मात्र से मस्तिष्क की नसें खिंच जाती हैं। इसमें सैकड़ों मृत्यु एक साथ हैं, पर कोई कोलाहल नहीं, कोई पाप नहीं, कोई शोक नहीं; बस सम्मान है, शान्ति है, पवित्रता है।
राणा उदयसिंह का पलायन एक विवादास्पद विषय रहा है। लेखक ने उनके पलायन को न्यायसंगत ठहराने के प्रयास किया है। लेखक ने यह दिखाया है कि राणा उदयसिंह स्वयं युद्ध छोड़कर जाने के पक्ष में नहीं थे किंतु परिस्थितिवश उन्हें जाना पड़ा। इसी क्रम में लेखक ने बनारस और बाबा तुलसी का उल्लेख किया है जो मुझे विशेष प्रिय लगा।
जो हिन्दू अकबर के पक्ष में खड़े थे उनका अंतर्द्वंद्व, स्वधर्म का त्यागकर अन्य धर्म को अपना लेने की विभिन्न पात्रों की विडम्बना, आतताइयों द्वारा निर्दोष लोगों का क्रूरता से कत्ल, धन और औरतों की लूटपाट इत्यादि कुछ अन्य तत्व हैं जिनका यथोचित समावेश लेखक ने बड़ी कुशलता से किया है।
पारम्परिक इतिहास में अकबर का महिमामंडन करते हुए उसे न्यायप्रिय, सुयोग्य और बहादुर शासक बताया जाता रहा है। इसके उलट, कथा को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि वह एक धूर्त, कायर, लम्पट, निर्दयी और लालची शासक था।
महर्षि साकेत और रामा की एक छोटी सी कथा में सनातनियों की अपने ईष्ट के प्रति प्रतीति, प्रेम और समर्पण दर्शनीय है।
उपसंहार के 4-5 पृष्ठों में लेखक ने अकबर, राणा उदय सिंह, टोडरमल आदि दरबारियों तथा जौहर जैसी राजपूतों की परम्परा पर अपने मत रखे हैं। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि ऐतिहासिक तथ्यों को उसने अबुल फ़ज़ल की आइन-ए-अकबरी से ग्रहण किया है।
उपन्यास की भाषा एकदम सहज और सरल है, जिसको समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। प्रवाह ऐसा है कि 3-4 घण्टे में 160 पृष्ठों का पूरा उपन्यास पढ़ा जा सकता है। चार शब्द – जौहर, केसरिया, साबात और साका सम्भवतः स्थानीय राजस्थानी शब्द हैं जिनके विषय में लेखक ने भूमिका और उपसंहार में बात भी की है। इनका अर्थ उपन्यास पढ़ते समय स्वतः स्पष्ट हो जाता है। मैंने जिज्ञासावश ‘साबात’ शब्द का अर्थ इण्टरनेट पर खोजा तो एक राजस्थानी शब्दकोश में आश्चर्यजकनक रूप से वही लिखा हुआ मिला जो लेखक ने उपन्यास में इस शब्द का अर्थ समझाते हुए लिखा है।
पुस्तक के पन्ने बहुत अच्छे हैं और भार में अत्यधिक हल्के हैं, पुस्तक को एक हाथ की उँगलियों में फँसा कर पढ़ा जा सकता है। ये मैंने इसलिए लिख दिया क्योंकि मुझे ऐसे ही पढ़ना पसंद है। छपायी एकदम स्पष्ट एवं सुदर्शन है।
-प्रशान्त कुमार सिंह