भारतीय सांस्कृतिक विरासत न केवल परंपराओं एवं रीति-रिवाज़ों का संग्रह है, अपितु यह हज़ारों वर्षों की पुरानी सभ्यता का जीवंत स्वरूप है। यह परंपरा हमारे दैनिक जीवन की क्रिया-कलापों के साथ गहराई से जुड़ी हुई है। जैसे- खान-पान, रहन-सहन, पहनावा-ओढावा, पर्व-त्यौहार, धार्मिक अनुष्ठान, सोलह संस्कार आदि हमारी परंपराओं से ओतप्रोत है। यह समय के साथ पोषित, पल्लवित होती रही है।
हमारे राष्ट्र की संस्कृति जिसमें शिष्टाचार, अभिवादन एवं विशिष्ट पारिवारिक गतिशीलता समाहित है। यह सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा अनुपम, अनोखा देश है, जिसकी अपनी विशिष्ट संस्कृति, समृद्धि एवं परंपराएँ हैं, जो सदियों से विदेशियों को आकर्षित करता रहा है। इसलिए भारत को सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं, प्रथाओं एवं विश्वासों का खजाना भी कहा जाता है। इन्हीं विशेषताओं के आधार पर प्राचीन काल में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, क्योंकि भारत ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण तथा प्रचुर धन-सम्पदाएँ थीं। इसलिए प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु के नाम से विख्यात था।
विदेशी आक्रांताओं ने इन धन-सम्पदाओं को लूटने के पश्चात हमारी अमूल्य सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत एवं परंपराओं को नष्ट करने का भरपूर प्रयास किया। जब उन्हें एहसास हुआ कि भारत की भूमि ऋषि-मुनियों के त्याग-तपस्या से सिंचित है, इसलिए यह कभी भी नष्ट नहीं हो सकती। तब उन्होंने हमारी शैक्षणिक संस्थानों जैसे- विश्व की सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तक्षशिला को क्षति पहुँचाकर नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी, जो तीन महीनों तक जलती रही और विश्व गुरु भारत की ज्ञान-विज्ञान संपदा नष्ट होती रही।
हमारा प्राचीन इतिहास, सांस्कृतिक विरासत एवं परंपरा होने के कारण हम इसे पुन: प्राप्त करने में अधिकांशत: सफल रहे। किसी भी राष्ट्र, समाज, परिवार के निर्माण में उसकी परंपरा का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। हम अपने अतीत के हजारों वर्षों की परंपराओं के माध्यम से उसे प्राप्त कर अग्रसर होते हैं। जिस देश की परंपरा जितनी समृद्ध होती है वह देश, समाज एवं परिवार उतना ही समृद्ध होता है, उदीयमान रहता है।
जब हम इन परंपराओं का पालन करते हैं, तब हमें अपने पूर्वजों का स्मरण होता है तथा उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने में योगदान देते हैं। हमारे पूर्वज इतने ज्ञानवान व चिंतक थे, जो उनके द्वारा सृजित संस्कार एवं परंपराओं का पाठ वर्तमान में भी हमारे जीवन को प्रेरित करती है। पूर्वजों द्वारा प्रदत्त इस महान परंपराओं को जीवन में आत्मसात करने से हमारा जीवन सुखमय बना रह सकता है।
हम अपनी परंपराओं के आधार पर पर्व-त्यौहारों को उमंग-उत्साह पूर्वक मनाते हैं। पर्व-त्यौहार भारतीय सांस्कृतिक विरासत एवं परंपरा की आधारशिला है। यह हमारी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर को संजोये रखने का माध्यम भी है। पर्व-पत्यौहार न केवल उत्सव है अपितु धार्मिक मान्यताओं एवं ऋतुओं के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं। उदाहरणार्थ- नववर्ष का प्रारंभ वसंत ऋतु से होता है। इस ऋतु में ब्रह्मांड में नई चेतना और मानव जीवन में नये उत्साह-उमंग का संचार होता है। इसलिए ऋतुओं के आधार पर ही हमारे यहाँ पर्व-त्यौहार मनाये जाते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने हमें प्रकृति अनुसार जीवन-यापन करने के लिए मार्गदर्शित किया है। साथ ही ऋतु परिवर्तन के चक्र को ध्यान में रखते हुए हमें उपवास, फलाहार एवं खान-पान के नियम भी बताए हैं।
भारतीय संस्कृति ”वसुधैव कुटुम्बकम्” आधारित है अर्थात संपूर्ण विश्व एक परिवार है। यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता की प्रतीक है और यह हमें परस्पर प्रेम-स्नेह, करुणा, भाईचारा को प्रोत्साहित करना सिखाता है।
हमारी संस्कृत भाषा, विज्ञान आधारित सर्वोत्तम एवं उन्नतशील है। इसका आधुनिक युग में सर्वोत्तम उदाहरण है- जब टॉकिंग कम्प्यूटर बनाने के लिए विश्व की भाषाओं का चयन हुआ, तब एक मात्र संस्कृत भाषा को ही सबसे अधिक अनुकूल भाषा माना गया। संस्कृत एक मात्र ऐसी भाषा है, जो लिखा जाता है, वही बोला जाता है और इसके शब्दों में स्पष्टता है। इस कारण इसे कम्प्यूटरों के लिए आदर्श भाषा माना गया है।
हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि हम अपनी संस्कृति एवं परंपराओं के कारण विविधता में भी एक सूत्र में मोतियों की माला की भाँति गुथे हुए हैं। विश्व में भारत एकमात्र ऐसा राष्ट है, जहाँ सभी धर्मों के लोग जैसे- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी बड़ी संख्या में यहाँ रहते हैं तथा विभिन्न जातियाँ, भाषाएँ, बोलियाँ, कलाएँ एवं वेशभूषाएँ हैं, फिर भी अनेकता में एकता हमारी पहचान बनी हुई है। यह एकता प्राचीनकाल से चली आ रही है।
इसे देखकर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलालजी नेहरू ने कहा था- “भारत विविधताओं में एकता का देश है।” भारतीय भूमि पर सभी धर्म-संप्रदायों का पल्लवन-पोषण हुआ है। इतनी सारी विविधता होते हुए भी भारत अनेकता में एकता का जीवंत उदाहरण विश्व के समक्ष है।
किसी भी देश की परंपरा उस समाज को समृद्ध बनाती है और आधुनिकता उसे गतिशीलता प्रदान करती है। आधुनिकता हमें अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती है और परंपरा हमें धरातल से जोड़े रखती है।
हम देख रहे हैं गत दशकों में भारतीय समाज पर आधुनिकीकरण का गहरा प्रभाव पड़ा है। इस परिवर्तनकारी प्रक्रिया के कारण हमारी सांस्कृतिक, सामाजिक, परंपरा, आर्थिक, राजनीतिक, कला, साहित्य एवं जीवन शैली का ह्रास हुआ है। जबकि भारत विश्व में अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों एवं संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। पिछले दशकों में इस आधुनिकता ने देश की प्राचीन विरासत, परंपराओं में विकृतियाँ उत्पन्न की है और कर रही है, यह हमारे लिए चिंतनीय विषय है।
वर्तमान के आधुनिक युग में हमारी परंपराओं, संस्कारों का ह्रास होने का प्रारंभिक कारण है- एकल परिवार। न चाहते हुए भी मजबूरीवश अधिकांश परिवार में माता-पिता दोनों ही नौकरी करते हैं। उस दौरान एकल परिवार होने के कारण बच्चे घर में अकेले रहते हैं, अत: उन्हें अभिभावकों का जितना संरक्षण मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता। पूर्व काल में संयुक्त परिवार होने से परिवार में दादा-दादी अपने बच्चों को कहानियों, लोरियों, किस्सों के माध्यम से उनमें संस्कारों का बीजारोपण किया करते थे। इसलिए संयुक्त परिवार को सुरक्षा का कवच कहा जाता था। परन्तु आधुनिक युग एवं शहरीकरण के कारण एकल परिवार होने से प्राय: बच्चे संस्कार एवं नैतिक शिक्षा से वंचित होते जा रहे हैं।
दूसरा सबसे बड़ा कारण है- वर्तमान की शिक्षा प्रणाली। इसमें बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में संस्कार एवं नैतिक शिक्षा का समावेश नहीं है। केवल गणित, विज्ञान, अंग्रेजी आदि विषयों पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है, जिससे बच्चे पढ़ना, रटना तो सीख जाते हैं, परन्तु संस्कार, नैतिकता एवं शिष्टाचार से अनभिज्ञ रहते हैं। इसलिए हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में प्रावधान करना चाहिए। इस से बच्चों में पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ संस्कार, नैतिकता एवं शिष्टाचार का बीजारोपण होगा। साथ ही अभिभावकों को भी इसके अनुकूल बनना होगा। इसके अतिरिक्त सामाजिक संगठनों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी।
इसे ध्यान में रखते हुए संस्कार शिक्षा एवं मानवीय जीवन-मूल्यों को समर्पित ”हेमा फाउंडेशन”, जो आरआर ग्लोबल की सामाजिक गतिविधियों की परोपकारी इकाई है। यह पिछले 10 वर्षों से नैतिक शिक्षा के क्षेत्र कार्यरत है। फाउंडेशन द्वारा छात्र-छात्राओं के सर्वांगीण विकास हेतु भावनात्मक क्षमता, नीतिगत क्षमता, सामाजिक क्षमता, नैतिक क्षमता, आध्यात्मिक क्षमता एवं जीवन कौशल पर विशेष रूप से विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से ध्यान केन्द्रित करवाया जाता है। यह अभियान अपने देश के अतिरिक्त विदेशों में भी कई जगह इसका शुभारंभ हो चुका है।
तीसरा कारण है- वर्तमान दौर में गति से बढ़ती हुई शहरीकरण, सोशल मीडिया और वैश्वीकरण, यह हमारे जीवन को गति से बदल रहा है। इन परिवर्तनों के कारण परंपराएं, संस्कृति जो हमारी सामाजिक धरोहर है, वह वर्तमान में चुनौतीपूर्ण स्थिति में है। जैसे-जैसे हम आधुनिकता की ओर अग्रसर हो रहे हैं, मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया का प्रभाव अत्यधिक बढ़ता जा रहा है, इस से हम मैत्रीपूर्ण व्यवहार और नैतिकता को विस्मृत करते जा रहे हैं। यहाँ तक कि एक टेबल पर भोजन करते समय भी परस्पर वार्तालाप, जो हुआ करती थी, वह अब प्राय: मोबाइल के साथ होती है और यही हमारे बच्चे ग्रहण कर रहे हैं।
आधुनिकता का मैं समर्थक हूँ, परन्तु अति सर्वत्र वर्जते। वर्तमान में इंटरनेट, सोशल मीडिया का प्रयोग आवश्यक है, यह ज्ञान का भंडार भी है, लेकिन बच्चे इसका सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इस कारण अपने संस्कारों को भूलते जा रहे हैं, बड़ों का आदर-सम्मान करना भूल रहे हैं। हमें आधुनिक तो बनना चाहिए, परन्तु अपनी संस्कृति, संस्कार एवं परंपराओं को अक्षुण्ण रखकर, संतुलन बनाकर। इस आधुनिक युग में हमारी युवा पीढ़ी अपनी समृद्ध परंपराओं से भटक न जाएं, इस हेतु उन्हें हमारी विरासत में व्याप्त रीति-रिवाजों, परंपराओं के महत्व को बताना होगा, समझाना होगा, सिखना होगा, आत्मसात करवाना होगा। उन्हें पर्व-त्यौहारों, अनुष्ठानों एवं प्रथाओं, उत्सवों में भाग लेने के लिए प्रेरित करना होगा। उनमें राष्ट्रीयता की भावना जागृत करनी होगी अर्थात पहले राष्ट्र, फिर समाज, तत्पश्चात परिवार और अंत में मैं। इन विचारों के साथ समन्वय बनाकर भारतीय सांस्कृतिक विरासत एवं परंपरा के साथ अग्रसर होना होगा, जिससे यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहे।
इतिहास साक्षी है जिस देश ने अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं परंपरा को विस्मृत किया, उसका अस्तित्व प्राय: लुप्त है और जिन देशों ने अपनी सभ्यता, संस्कृति, परंपरा एवं भाषा के साथ आगे बढ़े हैं वे अच्छी स्थिति में है। राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह दिनकर की वह कविता बिल्कुल सटीक है- “परंपरा जब लुप्त होती है, तो सभ्यता अकेलेपन के दर्द से मरती है।“ अत: हमारा परम दायित्व है कि आधुनिक युग की चकाचौंध रोशनी में हम अपनी सभ्यता एवं परंपराओं को संरक्षित रखकर भावी पीढ़ी को यह उपहार दें।
-रामेश्वरलाल काबरा