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अपनी गरिमा को बचाए रख पाएगा विपक्ष?

अपनी गरिमा को बचाए रख पाएगा विपक्ष?

by अमोल पेडणेकर
in ट्रेंडींग
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 “भारत की अधिकतर विपक्षी परिवारवादी पार्टियां केवल अपने स्वार्थहित में ही आंकठ डूबी हुई है, उन्हें राष्ट्र व समाज हित से कोई सरोकार नहीं है। इसलिए जनांकाक्षाओं को देखते हुए उनकी ही पार्टी के नेता उनका साथ छोड़कर अपनी एक नई पार्टी बनाकर एक विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं।”

सत्तर वर्ष पहले डॉक्टर बाबासाहेब आम्बेडकर ने विपक्ष के संदर्भ में अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहा था, ’‘राजनीतिक विरोधियों को अपनी राय व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए, उन्हें अपने निष्कर्ष निकालने की अनुमति होनी चाहिए। उनके बोलने पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। वे सीधे कहने में सक्षम होने चाहिए कि ‘मुझे इस सरकार से नफरत है।’ अन्यथा, वे विरोधी कैसे रह सकते हैं?” वर्तमान में विपक्ष की स्थिति अत्यंत दयनीय है। भारत में विपक्ष राष्ट्रहित एवं समाज हित के विचार रखने में तो कमजोर दिखाई दे रहा है, किंतु स्वहित और परिवार हित के लिए जी जान से लड़ रहा है। सभी क्षेत्रीय दल और विपक्षी पार्टियां भाजपा को या कहें प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए एक मौके की राह देख रहे हैं।

विपक्ष का इंडी गठबंधन बिखर चुका है। अधिकतर क्षेत्रीय दलों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है। ये दल अपने-अपने क्षेत्रों तक ही सीमित हैं और उन पर स्वामित्व भी उसी एक परिवार का है, जिन्होंने उसे शुरू किया था। महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ शिंदे और अजीत पवार गुट ने दिखा दिया है कि लोकतंत्र में पार्टी स्वामित्व जैसी कोई चीज नहीं होती। इसलिए देश भर में क्षेत्रीय दल अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र और परिवार को बचाने की जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। मोदी विरोधी राजनीतिक दल ’इंडी’ गठबंधन के नाम पर एक साथ आए थे, किंतु उनका ध्यान ’इंडी’ गठबंधन के बजाय इस बात पर था कि अपने क्षेत्र की सत्ता में उनकी हिस्सेदारी कम न हो। देशभर में क्षेत्रीय दलों की लड़ाई केवल अपना क्षेत्र बचाने की है; राष्ट्र हित, प्रदेश हित आदि बातें उनके लिए गौण हैं या मात्र कहने के लिए है।

महाराष्ट्र में उबाठा शिवसेना कितना भी गला फाड़ के चिल्लाए कि महाराष्ट्र के विकास के लिए हम दोनों भाई साथ आ रहे हैं, परंतु सत्य तो यह है कि उनकी लड़ाई ‘महाराष्ट्र बचाव’ के लिए नहीं ‘मुंबई महानगरपालिका की सत्ता बचाव’ के लिए है। राष्ट्रहित अथवा समाज हित के लिए ठोस, व्यापक योजना के अभाव में ये विपक्षी और क्षेत्रीय संगठन प्रांतवाद, भाषावाद, जातिवाद की राजनीति पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जहां 2047 तक देश को ’विकसित भारत’ के रूप में आगे लाने के लिए ठोस उपायों को लागू कर रहे हैं, वहीं विपक्षी पार्टियां अभी भी लोक हित एवं राष्ट्र हित के एजेंडे से कोसों दूर है। उनका एकमात्र उद्देश्य मोदी का विरोध करना ही रहा है। यह माना जाता है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए देश में मजबूत विपक्ष आवश्यक है। एक डर मन में रह-रहकर उभरता है कि विपक्षी दलों के इस रवैए के कारण कहीं ऐसी स्थिति न आए कि विपक्षी दल का महत्व ही कम हो जाए। भारतीय नागरिक अब विपक्षियों के इस विभाजनकारी एजेंडें से सावधान हो रहे हैं।

कांग्रेस ने श्रीराम मंदिर का विरोध किया और अयोध्या के भव्य कार्यक्रम का बहिष्कार किया। तमिलनाडु में सनातन विरोधी वक्तव्य सहित हिंदू धर्म ग्रंथों और देवताओं के विरुद्ध बयानों के कारण हिंदू समाज में विरोधी प्रतिक्रिया है। चुनाव की राजनीति के लिए दक्षिण को बाकी भारत से अलग बताया जा रहा है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत का विवाद निर्माण किया जा रहा है। स्वार्थ की राजनीति के लिए भारत को तोड़ने वाली यह बात बहुत डरावनी है। भाजपा का विरोध करने के लिए इस सीमा तक जाने का अर्थ है विपक्षी संगठन और नेता हताश हैं।

कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक क्षेत्रीय पार्टियों की परेशानी यह है कि 95 प्रतिशत पार्टियांं परिवार की पर्टियां हैं। इसलिए नरेंद्र मोदी के आने के बाद जनता इसे हजम नहीं कर पा रही है। सत्ता से विमुख होने पर सत्ता पाने के लिए लालायित विपक्ष दिन-प्रतिदिन और अधिक विकृत होता जा रहा है। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हिंदुओं पर हुए हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध सख्त कदम उठाए, साथ ही उस हमले के लिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया। इस घटना की प्रतिक्रिया में भारत ने पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर हमला कर उसे तहस-नहस कर दिया। भारत द्वारा किए गए हमले में मारे गए आतंकवादियों के अंतिम संस्कार में पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों और मंत्रियों की उपस्थिति रहने से यह बात पूरे विश्व के सामने स्पष्ट हो गई थी कि पहलगाम हमला पाकिस्तान पुरस्कृत हमला था। उसके बाद भी यह देखा जा रहा है कि भारतीय विपक्ष अपनी विकृत मनोवृत्ति के साथ देश की सेना का मनोबल कम करने का प्रयत्न कर रहा है। देश हित को पीछे छोड़कर सत्ता की चाह रखने वाले, सत्ता के भूखे लोग देश में माहौल को भड़काने के लिए इस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं। भारतीय जनता ऐसे लोगों की बातों पर विश्वास नहीं करती। भारतीय विपक्ष विदेशी शत्रुओं की शक्ति को खाद-पानी दे रहा है, किंतु इससे विपक्ष जो प्राप्त करना चाहता है, वह उसे प्राप्त नहीं होगा।

वैसे भी सत्ता के लिए समय-समय पर एकजुट हुए इन अवसरवादियों ने देशहित के लिए कुछ नहीं किया है। उनकी भावना मात्र इतनी ही है कि उनका परिवार और सूबा बरकरार रहे। मोदी की राष्ट्रनीति को बहुमत देने वाले मतदाता इन उथली राजनीति करने वाले विपक्षियों के साथ देंगे, ऐसी कल्पना वही कर सकते हैं जिन्हें भारतीय मतदाताओं के मनोविज्ञान में आए बदलाव का अनुभव नहीं है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद मोदी की लोकप्रियता कई गुना और बढ़ी है। इसका एक कारण यह है कि संघ और भाजपा का काम करने के कारण प्रधान मंत्री मोदी के मन में हिंदुत्व और उससे प्रेरित राष्ट्रवाद का भाव मजबूत हो चुका है। दूसरा कारण यह कि विपक्षियों द्वारा हिंदुत्व और सनातन का निरंतर विरोध किए जाने तथा भाजपा सरकारों के कार्यों को साम्प्रदायिक करार देने के कारण भारतीय जनता नरेंद्र मोदी को और अधिक समर्थन देने लगी है। हालांकि विपक्ष इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। विपक्षी संगठन के नेताओं को जनता की आशाओं और अपेक्षाओं पर खरा उतारना होगा। यदि वे उस पर खरे नहीं उतरेंगे तो जनता उन्हें बाहर कर देगी।

महाराष्ट्र में शिवसेना के द्वारा मराठी-हिंदी का विवाद निर्माण कर समाज में भेद निर्माण करने का प्रयास हो रहा है। इस मौके का लाभ उठाकर तमिलनाडु के मुख्य मंत्री ने कहा है कि महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार ने जिस प्रकार से हिंदी भाषा का विरोध किया है, उसने हमारा मनोबल बढ़ा दिया है। हम भी तमिलनाडु में हिंदी भाषा का विरोध करेंगे। विपक्ष समाज में दरार निर्माण करने वाले मुद्दों को लेकर राजनीति कर रहा है। इसे देखकर यही कहा जा सकता है कि विपक्ष के पास संघर्षपूर्ण और अच्छे मुद्दों की कमी है और यही उसकी कमजोरी है।
ओवैसी, शशि थरूर, सलमान खुर्शीद, सुप्रिया सुले, प्रियंका चतुर्वेदी, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी इत्यादि विपक्षी नेताओं ने विदेश में भारतीय राष्ट्रवाद को अलग-अलग तरीकों से व्यक्त किया। यदि इन सर्वदलीय समूहों ने 33 देशों तक एक शक्तिशाली संदेश पहुंचाया, वो यह था कि आतंकवाद और पाकिस्तान के मुद्दे पर भारत एकजुट है। विपक्ष को भी इसका लाभ हुआ क्योंकि उसके नेता सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं की तुलना में अधिक उभरकर सामने आए हैं। इससे यह संदेश भी विदेश में जाएगा कि आतंकवाद को लेकर भारत में राजनीतिक सहमति है। इसके अतिरिक्त नरेंद्र मोदी सरकार के द्वारा प्रतिनिधिमंडल में विपक्षी सांसदों को शामिल करने से यह भी पता चला कि भारत में लोकतंत्र वास्तव में फल-फूल रहा है। नरेंद्र मोदी ने 2047 तक भारत को ’विकसित देश’ बनाने का लक्ष्य रखा है। लोगों के सामने ’राष्ट्र’ निर्माण का लक्ष्य रखा गया है।

वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कड़ा परिश्रम करते दिखाई देते हैं। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ’ऑपरेशन सिंदूर’ को लूट की जंग कहा और कर्नाटक के एक कांग्रेस नेता ने ’ऑपरेशन सिंदूर’ को महज दिखावा कहकर उसकी आलोचना की। समाजवादी पार्टी के एक नेता ने सेना की महिला प्रवक्ताओं की जाति बताकर अपनी ओछी मानसिकता दिखा दी। यहां तक कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर के एक वक्तव्य को आधार बनाकर राई का पहाड़ खड़ा करने की राहुल गांधी का प्रयास भी उन पर उल्टा पड़ गया। कुल मिलाकर विपक्षी नेता अपने दिमागी दिवालिएपन से सदन में खुशनुमा माहौल बनाने का प्रयास कर रहे थे।

मोदी ने पिछले 11 वर्षों में दुनिया में भारत का जो रुतबा बढ़ाया है, उसे विपक्षी बर्दाश्त नहीं कर सकते क्योंकि देश पर सबसे लम्बे समय तक राज करने के बावजूद कांग्रेस मोदी के मुकाबले भारत का सम्मान आधा भी नहीं बढ़ा पाई। इसके विपरीत ’चायवाले’ मोदी ने भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया में चौथे स्थान पर पहुंचाने का कीर्तिमान बनाया है। कांग्रेस के शासनकाल में देश का बड़ा हिस्सा माओवादी, नक्सल, आतंकियों के कब्जे में था। अमित शाह ने इस पूरे भूभाग को स्वतंत्र कराकर वहां विकास की गंगा बहा दी। ऐसी कई बातें हैं, जो कांग्रेस के असली स्वरूप को उजागर करती हैं।

2024 के चुनाव से पहले इंडी गठबंधन बनाने की कोशिशों ने संकेत दिया था कि अब भाजपा को भी कड़ी लोकतांत्रिक प्रतियोगिता से गुजरना पड़ सकता है। खास बात यह है कि विपक्ष का यह राष्ट्रीय गठजोड़ कभी संगठनात्मक दृष्टि से औपचारिक रूप ग्रहण नहीं कर पाया। यह विपक्ष अब पहले से भी ज्यादा बिखरा हुआ है। वह ऐसा जमावड़ा बन गया है, जिसका न तो कोई केंद्र है और न ही कोई राजनीतिक दिशा। इस समय वह संसद में केवल भाजपा विरोधी सांसदों का संगठन बनकर रह गया है। चुनाव का मौसम आते ही विपक्ष बिखरने लगता है। यही बात दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी दिखाई दी है। बिहार में तेजस्वी यादव और राहुल गांधी के एक साथ आने की सम्भावना है।

राहुल और अखिलेश इन दो युवाओं के एक साथ आने का परिणाम 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय जनता ने देखा है। उबाठा ने राज ठाकरे से पुनः मित्रता करके संकेत दिया है कि वह मुंबई महानगरपालिका चुनाव ठाकरे परिवार के रूप में लड़ेंगे। विपक्ष अपने आचरण से संदेश दे रहा है कि उसे विरोधियों की आवश्यकता नहीं, वह खुद ही एक दूसरे के आत्मघाती विरोधी है। इसलिए किसी भी एक विपक्षी पार्टी की हद से ज्यादा मजबूती दूसरी विपक्षी पार्टी को अपने भविष्य के लिए भी शुभ नहीं लगती। वह सभी मिलकर मोदी का विरोध तो करते हैं, पर आपस में परस्पर अविश्वास और शह-मात ही उनकी असली राजनीति है। यह सबसे बड़ी विडम्बना है इसलिए भविष्य में भी विपक्षियों के उबरने की कोई सम्भावना दिखाई नहीं देती।

डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए विपक्षी दल की आवश्यकता इस प्रकार बताते हैं-’जब विपक्षी दल होता है, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा आचरण की स्वतंत्रता को लाभ मिलता है। जब विपक्षी दल नहीं होता, तो जनता के मौलिक अधिकार संकट में पड़ जाते हैं क्योंकि तब इनके उल्लंघन के लिए सत्तारूढ़ दल को उत्तरदायी ठहराने वाला कोई नहीं होता।’ डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर की ये टिप्पणियां 70 वर्ष पहले की हैं। विपक्ष का मतलब यह नहीं कि वह हर मामले में सत्ता पक्ष के विरुद्ध हो, बल्कि यह है कि वह हमेशा जनता के साथ हो और उसकी ओर से मुद्दे उठाए। अस्तु, इससे सरकार के साथ ही विपक्ष पर भी जवाबदेही का दबाव बढ़ता है। ऐसे समय में विपक्ष की गरिमा को बचाए रखना और संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करना अधिक आवश्यक है। इस बात को विपक्ष कब समझेगा? क्या इस आवश्यकता को समझ कर विपक्षी सांसद अपने व्यवहार में परिवर्तन कर सकते हैं? प्रत्येक विपक्षी दल को इस दिशा में कुछ आत्मपरीक्षण करना आवश्यक है।

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