गत दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में तीन दिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन हुआ। देश-विदेश से आए सैकड़ों गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने पहले दो दिनों में संघ की भूमिका, इतिहास और उद्देश्य पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला। तीसरे दिन लगभग ढाई घंटे तक चले प्रश्नोत्तर सत्र में उन्होंने 200 से अधिक प्रश्नों का धैर्यपूर्वक और संतोषजनक उत्तर दिया। यक्ष प्रश्न है— जब संघ बीते कई दशकों से भारतीय समाज के हर आयाम में सक्रिय है— चाहे राजनीतिक हो या श्रमिक, कृषि हो या शिक्षा, प्रशासन हो या संस्कृति— तब उसे अपने 100 वर्ष पूरे होने के बाद भी अपने विचारों-उद्देश्यों को स्पष्ट करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है?
वास्तव में, जो संघ अब तक कहता-करता रहा है और जो देश-विदेश में उसकी छवि है, उसमें भारी अंतर है। संक्षेप में कहे, तो संघ आज भी ‘छवि-अभाव’ और ‘नकारात्मक धारणा’ का शिकार है। इसके तीन प्रमुख कारण है। पहला— संघ अद्वितीय संगठन है, जिसका समकक्ष पश्चिमी सभ्यता में कहीं नहीं मिलता। भारतीय समाज का एक वर्ग जो आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है, वह अपने अंतर्निहित पश्चिमी दृष्टिकोण से संघ को समझने की कोशिश करता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनसे गलती हो जाती है। तभी डॉ. मोहन भागवत से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि संघ को बाहर से समझना कठिन है और उसकी कार्यपद्धति को भीतर जाकर ही समझा जा सकता है।
वास्तव में, संघ इस तरह की गलतफहमी का शिकार पहला नहीं है। गांधीजी की विचार-प्रणाली, कार्यपद्धति, जीवनशैली और नीतियां भी पश्चिमी सभ्यता की परंपरागत बौद्धिक समझ से परे थीं। इस पर ब्रितानी पत्रकार किंग्सले मार्टिन (1897-1969) ने अपने लेख ‘महात्मा गांधी: संत या राजनीतिज्ञ’ में लिखा था: “जब 1931 में गांधीजी को गोलमेज सम्मेलन में पहली बार देखा, तो मैंने स्वयं से पूछा कि वे कितने संत हैं और कितने राजनीतिज्ञ। बाद में, मुझे अनुभव हुआ कि यह प्रश्न ही निरर्थक है, क्योंकि उनके व्यक्तित्व में ये दोनों ही जटिल रूप से समाहित थे।” मार्टिन का यह अवलोकन संघ पर भी लागू होता है। स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस की भूमिका और उसकी संभावनाओं को कुटिल ब्रितानी भली-भांति समझ चुके थे, इसलिए 1925 में स्थापना के पांच वर्षों के भीतर ही संघ को 1930-32 के बीच ब्रितानी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा।
दूसरा— संघ पर उसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और उनके चिंतन की गहरी छाप विद्यमान है। संयोगवश डॉ. हेडगेवार और स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू— दोनों का जन्म 1889 में ब्राह्मण परिवारों में हुआ था, किंतु यह समानता यहीं समाप्त हो जाती है। नेहरूजी का पालन-पोषण तत्कालीन भारत के सर्वाधिक कुलीन, समृद्ध और ऐश्वर्यशाली परिवेश में हुआ, जहां उनका लालन-पालन यूरोपीय जीवनदर्शन-संस्कारों के अनुरूप हुआ। वे उस मैकॉले-प्रणीत शिक्षा व्यवस्था की प्रत्यक्ष उपज थे, जिसका उद्देश्य— “रंग और नस्ल से भारतीय परंतु रुचि, सोच, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज” बनाना था। वर्ष 1905-12 तक इंग्लैंड में अध्ययन करने बाद भारत लौटे नेहरूजी कांग्रेस से जुड़े और 31 वर्ष की आयु में औपचारिक रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रविष्ट हुए।
जब नेहरूजी देशभक्ति से दूर पश्चिमी विलासिता में लीन थे, तब डॉ. हेडगेवार एक साधारण विद्यार्थी के रूप में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ चुके थे। वर्ष 1897 में महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक की 60वीं वर्षगांठ पर उनके विद्यालय में मिठाई वितरित की गई थी। तब आठ वर्षीय केशव ने उसे ग्रहण करने से इनकार कर दिया। देश को स्वाधीन कराने की यही तीव्र इच्छा उन्हें तत्कालीन कलकत्ता के प्रसिद्ध क्रांतिकारी समूह ‘अनुशीलन समिति’ में ले आई। आगे चलकर वे कांग्रेस में भी शामिल हुए और समर्पित कार्यकर्ता के रूप में काम किया। कालांतर में डॉ. हेडगेवार कांग्रेस की विदर्भ इकाई के संयुक्त सचिव भी बने। स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के कारण उन्हें अंग्रेजों ने राजद्रोह के आरोप पर 1921 में एक वर्ष की कठोर कारावास में भेज दिया। खिलाफत आंदोलन (1919-24) के बाद उन्हें आभास हुआ देश की समस्याएं दीर्घकालिक हैं, जिनका राजनीतिक दल या सत्ता के माध्यम से समाधान संभव नहीं। तब उन्होंने 36 वर्ष की आयु में आरएसएस का गठन किया।
डॉ. हेडगेवार का स्वभाव आत्मप्रशंसा-आत्मश्लाघा और प्रचार-प्रसार से दूर रहकर धरातल पर चुपचाप काम करने वाला था। इस पर संघ के दूसरे पू. सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने नाना पालकर की पुस्तक ‘मैन ऑफ द मिलेनिया— डॉ. हेडगेवार’ की प्रस्तावना में लिखा था, “…सबसे बड़ी बाधा चरित्र प्रचार से विरक्ति थी। डॉक्टरजी ने स्वयं अपने जीवन के किसी भी पक्ष को सार्वजनिक रूप से प्रायः साझा नहीं किया। इसी स्वभाव के कारण उनका उल्लेख समाचारपत्रों में भी बहुत कम दिखाई देता है… अपने अंतिम श्वास तक कार्य में निरंतर तत्पर और पूर्णतया तल्लीन रहने वाले डॉक्टरजी के मनोभाव में आत्मकथा लिखने या उसके लिए कोई नोट्स संकलित करने का विचार कभी अंकुरित ही नहीं हुआ।” यही कारण है कि आज भी संघ की कार्यपद्धति पर डॉ. हेडगेवार के व्यक्तित्व की छाया है, इसलिए वह अधिकांश मामलों में प्रचार-प्रसार से दूर रहता है।
तीसरा— संघ का विरोध प्रायः उन वर्गों द्वारा किया जाता है, जो भारत को जीवंत सनातन राष्ट्र न मानकर मात्र भूमि का एक टुकड़ा समझते है और भाषाई-मजहबी आधार पर इसे विभाजित करने की कुचेष्टा करते है। पाकिस्तान इसी विषैली मानसिकता की उपज है। संघ का मूल ध्येय मजहब-संप्रदाय और जातिगत संकीर्णता से ऊपर उठकर भारतीय समाज को समरसता के साथ एकसूत्र में पिरोना, उसे आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान और राष्ट्रनिष्ठा से अभिसिंचित करना है। इसकी तुलना में मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्र समाज के असंतुष्ट वर्गों (चाहे सही हो या गलत) को अपने दूषित-मिथ्यापूर्ण नैरेटिव से शासन-व्यवस्था, सनातन संस्कृति और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ खड़ा करने के लिए उकसाते है।
चूंकि आरएसएस ने अपनी नीतियों-कार्यों के प्रचार-प्रसार पर कभी विशेष ध्यान नहीं दिया, इसलिए उस रिक्तता को संघ-विरोधी अपने कुप्रचार से भर देते हैं। यही संघ की वास्तविकता और ‘छवि’ में अंतर का एक बड़ा कारण है। शताब्दी वर्ष में संघ से अपेक्षा है कि वह इस चुनौती का निर्णायक समाधान करें।
-बलबीर पुंज