मानव और प्रकृति का संबंध प्राचीन काल से रहा है। इसके बावजूद विकास के नाम पर मानव प्रकृति का दोहन ही करता जा रहा है। अनेक व्यवसाय व उद्योग धंधों ने जहां रोजगार व अर्थ व्यवस्था को नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया, वहीं पर्यावरण के विनाश से मानव जीवन व प्रकृति के लिए गंभीर संकट भी पैदा किए। आज वैश्विक मंचों से इसे बचाने की नई-नई पहल हेतु बड़े-बड़े सम्मेलन और अधिवेशन हो रहे हैं। यहां तक कि इसके लिए युद्ध तक हुए हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, लगातार पहाड़ों का गिरना, बाढ़ व अन्य प्राकृतिक आपदाएं भी पर्यावरण और प्रकृति से छेड़छाड़ के ही दुष्परिणामों के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। आज आवश्यकता है विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच एक अच्छा संतुलन बनाने की।
हिंदू धर्मशास्त्रों ने जहाँ प्रकृति को देवस्वरूप मानकर उसकी रक्षा का आदेश दिया है, वहीं भारतीय जनजातीय समाज ने भी प्रकृति को अपनी जीवनशैली और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनाया। हिंदू ग्रंथों की शिक्षाएँ, मान्यताएं और जनजातीय संस्कृति मिलकर पर्यावरण रक्षा की अद्भुत परंपराओं की द्योतक हैं। आइए उन सब पर विचार करते हैं…
वेदों और उपनिषदों में पर्यावरण संदेश
ऋग्वेद और अथर्ववेद में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश को देवता कहा गया है।
“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” (अथर्ववेद 12.1.12) – पृथ्वी माता है और मनुष्य उसका पुत्र।
ईशोपनिषद कहता है – “ईशावास्यमिदं सर्वं” अर्थात पूरी सृष्टि ईश्वर से आच्छादित है, इसका दुरुपयोग पाप है।
श्रीमद्भगवत गीता जी और पर्यावरण
भगवद्गीता में बताया गया कि अन्न वर्षा से होता है और वर्षा यज्ञ (सत्कर्म एवं प्रकृति संतुलन) से होती है। और यज्ञ मनुष्य द्वारा किया गया श्रेष्ठतम कर्म माना गया है।
पुराण व मनुस्मृति
भागवत पुराण में वृक्षों को देवता कहा गया है क्योंकि वे निःस्वार्थ भाव से जीवनदायिनी वायु व वस्तुएँ देते हैं।
मनुस्मृति में वृक्षों की कटाई पर दंड और वृक्षारोपण को पुण्यकर्म माना गया है।
लोक परंपराएँ और प्रकृति संरक्षण
वृक्ष पूजा – तुलसी, पीपल, वट, नीम और बेल की पूजा।
नदी और पर्वत पूजन – गंगा, यमुना जैसी नदियों और गिरिराज पर्वत को पवित्र मानकर उनके रक्षण और पूजन हेतु हिंदू समाज बड़ी संख्या में जुटता है और उनकी पूजा व परिक्रमा भी करता है।
पशु संरक्षण – गौ माता, नाग देवता, हाथी, गरुड, वानर आदि की आराधना का विधान है।
त्योहार – कुंभ स्नान, छठ पूजा, मकर संक्रांति, गिरिराज परिक्रमा इत्यादि हमारे अनेक त्यौहार वृक्षारोपण, जल नदियों व पर्वत पूजन कर प्रकृति के संरक्षण को जनमानस से जोड़ते हैं।
ऐसे असंख्य दृष्टांत और उदाहरण हमारे शास्त्रों और परंपराओं का हिस्सा अनादिकाल से रहे हैं।
जनजातीय समाज का योगदान
भारतीय जनजातीय समाज ने तो बिना किसी लिखित ग्रंथों के ही प्रकृति को ईश्वर माना और उसे संरक्षित किया।
वन और वृक्ष पूजा – भील, संथाल, गोंड, उरांव, नागा आदि जनजातियाँ विशेष रूप से वृक्षों को पवित्र मानकर काटने से बचाती हैं।
पशु-पक्षियों की आराधना – कई जनजातियाँ टोटेम (वंशचिह्न) मानकर किसी विशेष पशु या पक्षी की रक्षा करती हैं।
जल संरक्षण – आदिवासी समाज झरनों, तालाबों और नदियों को पवित्र मानकर उन्हें प्रदूषित नहीं करता।
पर्वत और वन देवता – बस्तर, झारखंड और उत्तर-पूर्व की जनजातियाँ पहाड़ों और जंगलों को देवता मानकर उनकी पूजा करती हैं।
सामूहिक परंपराएँ – सारना पूजा, करमा उत्सव, मड़ई पर्व जैसे उत्सव प्रकृति की रक्षा और सामूहिक चेतना को प्रबल करते हैं।
आज जब प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन-शोषण से एक वैश्विक संकट खड़ा है, तब हिंदू धर्मग्रंथों, जीवन मूल्यों और उनसे जुड़ी जनजातीय परंपराओं का संदेश और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। वनों, वृक्षों, नदियों व जीव जंतुओं की रक्षा धार्मिक, सामाजिक व राष्ट्रीय कर्तव्य है। नदियों और जलस्रोतों की स्वच्छता व संरक्षण हमारी सामूहिक सामाजिक और आध्यात्मिक जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंच परिवर्तनों में भी एक पर्यावरण संरक्षण सामिल है। पशु-पक्षियों और जैव विविधता का संरक्षण भी हमारी संस्कृति की जड़ों में समाहित है।
हिंदू धर्म ग्रंथों ने जहाँ पर्यावरण रक्षा को धर्म बताया, वहीं जनजातीय समाज ने इसे जीवन पद्धति बना लिया। ये सम्मिलित शिक्षाएँ हमें बारम्बार स्मरण कराती हैं कि प्रकृति की रक्षा ही मानव जीवन की रक्षा है।
– विनोद बंसल