भारत के मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने हाल ही में इस बात पर चिंता जताई है कि एनएलयू (राष्ट्रीय विधि संस्थानों) से निकलने वाले स्नातक निचली अदालतों में जज या वकीलों के रूप में अपना करियर शुरू नहीं कर रहे हैं। इन युवाओं की एकमेव प्राथमिकता कारपोरेट क्षेत्र बना हुआ है। इससे न्यायपालिका में गुणवत्ता की कमी निर्मित हो रही है। बेशक यह चिंता जायज है क्योंकि निचली अदालत ही नागरिकों को न्याय सुनिश्चित करने की पहली इकाई हैं।
सवाल जितना जायज है कमोबेश न्यायपालिका के लिए भी उतना ही विचारणीय भी। असल में राष्ट्रीय विधि संस्थान देश में एक अभिजन शैक्षणिक संरचना की निर्मिति भी करते हैं। इससे निकलने वाले स्नातक निचली अदालतों के लिए खुद को सहज नही पाते हैं यह एक स्वाभाविक मनोवृति है। ध्यान से देखा जाए तो इन संस्थानों का फ्रेमवर्क बना ही इस तरह से है कि कोई स्नातक खुद को चाह कर भी मुख्य न्यायाधीश की चिंताओं के साथ समायोजित नहीं कर पाता है।
उसकी शैक्षणिक परवरिश कारपोरेट या उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय पर ही केंद्रित होकर टिक जाती है। सबको समावेशी न्याय की संवैधानिक गारन्टी तो निचली अदालतों के व्यवहार और कार्यप्रणाली में प्रतिभा और कौशल युक्त व्यवस्था से ही सुनिश्चित होनी है इसलिए वहां इन तत्वों का अभाव आम आदमी को न्याय की गारंटी कैसे सुनिश्चित कर सकता है? दूसरा कारपोरेट की तुलना में निचली अदालतों की सेवाओं के लिए न बेहतर अवसर उपलब्ध है और न ही कार्य संस्कृति और संसाधन।यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई काबिल डॉक्टर मेट्रो शहरों को छोडकर जिला अस्पतालों या सामुदायिक/प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर रुकना नहीं चाहता है। तथ्य यह है कि निचली अदालतों में सर्वाधिक प्रतिभाशाली विधि स्नातकों के लिए कोई सम्मानजनक अवसर ही नही है। इसे समझने के लिए हमें वर्तमान में प्रचलित भर्ती प्रक्रिया की विसंगतियों को देखना चाहिए।
सर्वाधिक प्रतिभाशाली विधि स्नातक औसतन 25 साल की आयु में व्यवहार न्यायाधीश के रूप में चयनित होता है और 60 साल तक रिटायर होने तक इस बात की गारंटी नही है कि वह जिला जज के रूप में पदोन्नति पा सकता है।भर्ती प्रक्रिया में यहां भी हाइकोर्ट जैसी बैक डोर एंट्री हैं।25 साल की आयु वाले प्रतिभाशाली स्नातक सिविल जज के रूप कॅरियर शुरू करते है लेकिन जो इस परीक्षा में असफल हो जाते हैं वे वकालत करने लगते हैं।35 साल तक आते आते सिविल जज एडीजे भी नही बन पाते हैं लेकिन 35 साल बाद उन स्नातकों के लिए सीधे एडीजे बनने के दरवाजे खुले रहते हैं जो सिविल जज नहीं बन पाए थे। सभी हाईकोर्ट सीधे एडीजे की भर्ती वकीलों के माध्यम से करते है नतीजतन जो स्नातक प्रतियोगी परीक्षाओं में बाहर हो गए थे उनमें से बहुत से लोग सीधे एडीजे बनकर उन्हीं प्रतिभाशाली स्नातकों के ऊपर आकर न्यायिक अधिकारी बन जाते हैं जिन्हें सिविल जज के रूप में काबिल नहीं पाया गया था। बाद में सीधी भर्ती वाले वकील जिला जज और फिर हाइकोर्ट तक पदोन्नति पाने में सफल रहते हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय विधि संस्थान से निकलने वाले स्नातकों के लिए निचली अदालतों में सेवाएं आकर्षक नहीं लगती हैं। वकील के रूप में भी एनएलयू स्नातकों के लिए निचली अदालतों के गलियारे आकर्षित नहीं कर पाते हैं क्योंकि यहां कारपोरेट जैसा कोई वातावरण नही होता है नए वकीलों को बैठने के लिए भी जगह नही हैं। यहां का वातावरण किसी सब्जी मंडी के कोलाहल और अव्यवस्था का भान कराता है।
इसे प्रत्यक्ष देखना हो तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दौरा किया जा सकता है जहां सभी वकीलों के लिए कोई सम्मान जनक बैठक व्यवस्था आज तक सुनिश्चित नहीं हो पाई है।इसके अलावा न्यायिक सेवाओं या बड़े लॉ चैम्बर की तरफ से कोई कैम्पस सिलेक्शन जैसी व्यवस्था भी नहीं हैं। उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति में जिस तरह से कोलेजियम व्यवस्था ने भेदभाव और भाई भतीजावाद कायम कर रखा है उसने भी युवाओं के मन में न्यायिक प्रशासन के प्रति अरुचि स्थापित करने काम किया है। दूसरी तरफ कारपोरेट घराने एक सुविधाजनक कार्य संस्कृति और वातावरण सुनिश्चित कराते हैं। ऊंची वेतन और मेट्रो शहरों में पदस्थापना कारपोरेट के एकमेव आकर्षण का आधार है। देश में निजी क्षेत्र का बढ़ता कारोबारी दायरा नित नए कानूनी अवसर प्रतिभाशाली स्नातकों को सुनिश्चित कर रहा है लेकिन न्यायपालिका का ढर्रा आज भी उसी अंग्रेजीकाल की गति से चल रहा है इसलिए मुख्य न्यायाधीश की चिंता का समाधान असल में उन्हीं के हाथों में छिपा हुआ है। सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों को मिलकर इस गम्भीर चुनौती का समाधान करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले निचली अदालतों को प्रतिभाशाली विधि स्नातकों के लिए अखिल भारतीय या राज्य प्रशासनिक सेवाओं की तरह आकर्षक बनाना होगा। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के प्रस्ताव को यथा शीघ्र आम सहमति के साथ अमल में लाने की आवश्यकता है। इसके जरिये सीधे एडिशनल जिला जजों की भर्ती सुनिश्चित होगी और साथ ही उच्च न्यायालयों में जजों की भर्ती के लिए इसी संवर्ग से 70 फीसदी पदों का कोटा निर्धारित किया जाना चाहिए।अभी यह बमुश्किल 30 फीसदी ही है इसके कारण भाई भतीजावाद आज भी चरम पर है।यह तथ्य है कि कोई भी बगैर पारिवारिक पृष्ठभूमि के उच्च न्यायालयों में जज के लिए योग्यता के पैमानों पर खरा नही उतर पाता है।इससे निबटने का रास्ता न्यायाधीश संवर्ग का कोटा बढ़ाया जाना ही है। क्योंकि एक जज के रूप में कार्य अनुभव वाला शख्स हाइकोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट तक वकीलों की तुलना में एक कुशल जज के रूप में काम कर सकता है।
उच्च न्यायालय जिस तरह से निचली अदालतों के जजों को दोयम दर्जे का समझते हैं वह भी विचारणीय पक्ष है।अभी हालात यह हैं कि अधीनस्थ न्यायालय के जज हाइकोर्ट की दहशत में काम करते हैं। तमाम हाईकोर्ट जिला न्यायालय की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते रहते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि निचली अदालतें जमानत जैसे विवेकाधिकार का प्रयोग करने से भी अब कतराने लगे हैं। कोलेजियम में निचली अदालतों के जजों का कोटा बढ़ने से निचली अदालतों के जज भयमुक्त होकर काम कर सकेंगे।
एक महत्वपूर्ण पक्ष वकीलों की गुणवत्ता का भी है क्योंकि आधारभूत रूप से न्याय की लड़ाई तो निचली अदालतों में ही लड़ी जाती हैं और देश में प्रतिभाशाली वकील हर पक्षकार को मिले यह सुनिश्चित करना भी सरकार का काम है।वर्तमान में एनएलयू और कुछ निजी या केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ दें तो विधि शिक्षा की गुणवत्ता भी कटघरे में ही है।जाहिर है इस मोर्चे पर भी शीर्ष स्तर से कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
-डॉ. अजय खेमरिया