“उद्बुध्यध्वं समनसः सखायः” — ऋग्वेद का यह ब्रह्मवाक्य, हे समान विचारों वाले मित्रों, उठो, जागो!, इस वर्ष फिर बिहार की मिट्टी में गूँजा। करवरही की धरती पर सम्पन्न सदानीरा महोत्सव 2025 ने दिखा दिया कि भारतीय संस्कृति की चेतना केवल महानगरों में नहीं, गाँवों के हृदय में भी जीवित है।
छह वर्ष पहले देहात से शुरू हुआ यह साहित्यिक आयोजन अब देशभर के लेखकों, कवियों और पत्रकारों का मंच बन चुका है। इस बार का आयोजन भी दो दिवसीय रहा, 23 को प्रदर्शनी, स्थानीय कवि सम्मेलन के साथ शुरु और 24 अक्टूबर की रात लोक संगीत के बाद समापन सत्र के साथ संपन्न हुआ।

ग्रामीण समाज में साहित्यिक पुनर्जागरण की पहल
बिहार के ग्रामीण समाज में सामाजिक और साहित्यिक चेतना को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से शुरू हुआ सदानीरा महोत्सव आज एक आंदोलन का रूप ले चुका है। आधुनिक जीवनशैली और पाश्चात्य प्रभावों के बीच यह आयोजन अपने मूल में “मिट्टी से जुड़ी चेतना” को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है।
उद्घाटन सत्र में विचारों की स्पष्टता और राष्ट्र चेतना की गूंज
इस महोत्सव का उद्घाटन स्वामी जितेन्द्रानन्द सरस्वती, डॉ. प्रवीण तिवारी (दिल्ली विश्वविद्यालय) और वरिष्ठ पत्रकार अनन्त विजय के करकमलों से हुआ। उद्घाटन के साथ ही बांसुरी वादन की मधुर धुनों ने वातावरण को पवित्र बना दिया।

उन्होंने “इकोसिस्टम के साहित्यिक षड्यंत्रों को पहचानने” की चेतावनी दी और बताया कि कैसे कुछ विदेशी विचारधाराएँ और उनके भारतीय समर्थक भारत की आत्मा को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं।
उन्होंने कल्याण पत्रिका और इतिहासकार रामचंद्र गुहा का उदाहरण देते हुए कहा कि किस तरह भारत की वास्तविकता को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है।
“गाँधीजी की मृत्यु के बाद कल्याण पत्रिका ने कुछ नहीं लिखा” जैसी भ्रांतियाँ गढ़ी जाती हैं, जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं। उनकी यह बात सुनते ही सभागार में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी, ऐसा लगा मानो देहात ने एक स्वर में कहा हो कि अब हम अपनी कहानी खुद लिखेंगे।
अपने आशीर्वचन के क्रम में बोलते हुए पूज्य स्वामी जितेन्द्रानंद सरस्वती ने कहा कि सदानीरा का अर्थ ही है कि जो सदा बहती रहे! और सचमुच, यह महोत्सव अब देहात से बहने वाली विमर्श की नई धारा बन गया है। कुछ राष्ट्रवादी युवाओं का एक समूह, जो इस आयोजन की आत्मा है, वर्षों से इस बात पर कार्य कर रहा है कि ग्रामीण भारत केवल दर्शक नहीं, बल्कि विचारक भी बने।

यहाँ आकर और देखकर यह अच्छा लगा कि यहाँ के युवाओं का उद्देश्य साफ़ है कि राष्ट्र की दिशा केवल संसद में नहीं, समाज की चेतना में तय होती है। इसलिए उन्होंने गाँवों में चिंतन, संवाद और साहित्य का ऐसा मंच तैयार किया है, जहाँ न कोई भाषाई भेद है, न वर्ग का। सब एक सूत्र में “समनस: सखाय:” जुड़े हैं। उन्होनें कहा कि मैं देख रहा हूँ कि कैसे “धर्मो रक्षति रक्षितः” अर्थात धर्म की रक्षा करने वाला ही सुरक्षित रहता है को ध्येय मानकर इन लोगों ने कैसे इस उत्सव को केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जिम्मेदारी का पर्व बना दिया।
इसके बाद ‘महानगरीय जीवन और जनपदीय साहित्य’ विषय पर विचार विमर्श हुआ। डॉ. प्रवीण तिवारी ने बिहार से पलायन के मुद्दे को भारत के सांस्कृतिक असंतुलन से जोड़ा और कहा कि शिक्षा और संस्कार दोनों की जड़ें गाँवों में हैं, जिन्हें पुनर्जीवित करना ही सच्ची प्रगति है।
सोशल मिडिया के दौर में वैचारिक साहित्य वाले विमर्श में अवनीश शर्मा, लोकेश कौशिक, आशुतोष मृणाल, रिवेश प्रताप सिंह और सर्वेश तिवारी श्रीमुख जैसे लेखकों ने अपने विचार रखे। इन वक्तव्यों से स्पष्ट हुआ कि सदानीरा केवल साहित्यिक आयोजन नहीं, बल्कि भारत की वैचारिक पुनर्स्थापना का मंच है।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख, जो आयोजन समिति के अध्यक्ष भी हैं, ने कहा कि “यह महोत्सव धीरे-धीरे ही सही, पर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। हमारा उद्देश्य है कि साहित्य केवल शहरों तक सीमित न रहे, बल्कि सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय मूल्यों के पुनर्निर्माण का माध्यम बने।” हम मानते हैं कि कलम का उपयोग केवल आलोचना नहीं, बल्कि निर्माण के लिए होना चाहिए। यही विचार पूरे महोत्सव में बार-बार उभर कर सामने आया।
कवि सम्मेलन: ओज, हास्य और नई पीढ़ी की रचनाशीलता का संगम
दूसरे दिन संध्या में हुए अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में देश के सुप्रसिद्ध कवियों ने अपनी रचनाओं से वातावरण को देशभक्ति और ओज से भर दिया। इस सत्र का संचालन काशी से आए अंतरराष्ट्रीय हास्य कवि डॉ. अनिल चौबे ने किया, जबकि अध्यक्षता डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने की। ओज की प्रख्यात कवयित्री प्रियंका राय ने अपने काव्यपाठ से सबका मन जीत लिया, वहीं युवा कवि स्वयं श्रीवास्तव ने पत्थर की चमक है, न नगीने की चमक है, और घर से निकलना ही पड़ा, घर के वास्ते। जैसी कविताओं से सबका मन मोह लिया। डॉ. अनिल चौबे की चुटीली पंक्तियाँ और हास्य ने दर्शकों को बार-बार ठहाके लगाने पर मजबूर किया। डॉ. चौबे का गंगा गीत ने लोगों को सोचने पर विवश किया तो उसके बाद जब अध्यक्षता कर रहे डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने प्रकृति का शृंगार समाज में स्थापित करते हैं हुए कहा कि ‘जरूरत क्या तुम्हारे रूप को श्रृंगार करने की किसी हिरनी ने अपनी आंख में काजल लगाया क्या?’ उसके बाद तो ऐसा माहौल बना कि क्या ही कहने! समय का बंधन नही होता तो बुद्धिनाथ दादा को वहाँ का युवा समूह रात भर सुनता। इस कवि सम्मेलन में अमरजीत यादव, पवन विजय, अमन पाण्डेय, डॉ. नित्यानन्द नीरव और रजनीश राय की कविताओं ने ग्रामीण भारत की आत्मा को शब्दों में साकार कर दिया।
सम्मान समारोह: साहित्य, लोककला के साधकों को नमन
महोत्सव के दूसरे दिन चार प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को सम्मानित किया गया जिसमें डॉ. पवन विजय को सदानीरा साहित्य सम्मान 2025, भोजपुरी के प्रख्यात अभिनेता कुणाल सिंह को पंडित शर्मानन्द देहाती लोककला सम्मान, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र को योगेन्द्र प्रसाद योगी काव्य सम्मान, और स्वयं श्रीवास्तव को रजनी राय स्मृति सम्मान, महोत्सव की परंपरा के अनुसार ये सभी सम्मान संतों के हाथों से प्रदान किए गए।
सांस्कृतिक संध्या: लोकगायन और नृत्य की झंकार
संध्या के समय अम्बुज अनुपम का लोकनृत्य और प्रशान्त सौरभ बाँसुरी वादन ने महोत्सव के आनंद को अद्भुत रंग दिया। बाँसुरी की धुन तो मानो जैसे कह रही थी “जहाँ राग है, वहीं भारत है।”
रात्रि सत्र में मिताली श्री, करिश्मा कुमारी, भोजपुरी लोकगीतों के सम्राट कहे जाने वाले विजय बहादुर चौबे और प्रख्यात लोकगायक गोपाल राय ने अपनी गायकी से दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया। लोकगीतों की गूंज में जब दर्शक झूम उठे, तो लगा मानो यह महोत्सव किसी एक गाँव का नहीं, बल्कि पूरे भारत की आत्मा का उत्सव बन गया है।
समापन: मिट्टी से उठती चेतना की गूँज
24 अक्टूबर की रात जब सदानीरा महोत्सव का समापन हुआ, तो मंच पर और दर्शकों के बीच एक ही भाव था और वह था गर्व का। गर्व इस बात का कि गाँव की धरती से एक ऐसा आयोजन जन्मा है जो साहित्य, संस्कृति और राष्ट्रीयता की तीनों धाराओं को जोड़ रहा है।
यह महोत्सव साबित करता है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है और वही आत्मा अब फिर से जाग रही है।
सदानीरा की यह धारा निरंतर बहे यही हर उस भारतीय का संकल्प है जो अपनी मिट्टी, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से प्रेम करता है। समापन सत्र में सदानीरा महोत्सव के महासचिव जलज कुमार अनुपम के अनुसार, यहाँ किसी प्रकार का वैचारिक एजेण्डा नहीं होता। होता है तो केवल समाज की संवेदना और धर्मध्वज की प्रतिष्ठा की चिंता। हमारा उद्देश्य गाँव के चौक-चौराहों तक साहित्य पहुँचाना है, ताकि युवाओं के बीच विचार और विवेक की लौ जले। उन्होंने आगे कहा कि जहाँ कभी युवाओं का समय निरर्थक मनोरंजन में बीतता था, वहाँ अब दिनकर की कविताओं और रेणु की कहानियों पर चर्चा होती है। यही परिवर्तन इस आयोजन की सबसे बड़ी सफलता है।

