बिहार के चुनाव हमेशा से देश की राजनीति में एक विशेष महत्व रखते आए हैं। चाहे बात सामाजिक समीकरणों की हों, विकास बनाम जातिवाद की या फिर युवाओं की भागीदारी की, बिहार का चुनाव परिणाम न केवल राज्य के भविष्य को निर्धारित करता है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के समीकरणों को भी प्रभावित करता है।
अब तक की चुनावी घटनाओं पर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इस बार मतदाता कहीं अधिक सजग और मुद्दों के प्रति सचेत रहा हैं। बिहार में भारतीय जनता पार्टी और गठबंधन को मिली जीत ऐतिहासिक जीत को बंपर जीत कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बिहार के गौरवशाली प्रतिमा को पिछले कुछ सालों से लोग समझ नहीं पा रहे थे। बिहार के लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने बिहार की गौरवशाली प्रतिमा को बिगाड़ कर रखा था, इस बात को इस चुनाव में बिहार की जनता ने दुरुस्त किया है। यह प्रक्रिया 20 साल पहले ही प्रारंभ हुई थी।
अब तक मिले रुझान के अनुसार भारतीय जनता पार्टी को 96, जेडीयू को 84, एलजीपी को 19 और एनडीए को कुल मिलाकर लगभग 208 सीटों पर बढ़त दिखाई दे रही है। वहीं पर आरजेडी को 24, कांग्रेस को 2 और महागठबंधन को कुल मिलाकर मात्र 28 के करीब सीटों का रुझान यह स्पष्ट संकेत देता है कि बिहार की जनता ने स्पष्ट नकार दिया है। सच कहे तो बिहार की जनता ने जंगलराज को दूर रखा है।
यह जीत भारतीय जनता पार्टी, जेडीयू, एनडीए संगठन की जीत है, साथ में बिहार के युवाओं, महिलाओं की जीत है, जो बिहार का वैभव पुनः प्रस्थापित करने की मंशा मन में रखती हैं, उन सारे बिहारियों की यह जीत है। मोदी की सच्चाई, अमित शाह का संगठन कौशल्य, नीतीश कुमार का विकास का चेहरा और बिहार के जनता के परिवर्तन करने की अंतर्मन की चाहत यह सारी बातें इस चुनाव में रंग लाईं है। राजनीतिक दलों की रणनीति में भी इस बार बदलाव देखने को मिले हैं। पुराने वादों के दोहराव के स्थान पर अब पार्टियाँ युवाओं और महिलाओं को लक्ष्य बनाकर नई योजनाओं की घोषणा कर रहे थे। साथ ही जहाँ तक चुनाव के जो परिणाम आए हैं उन्हें देखते हुए यह स्पष्ट है कि यह चुनाव एकतरफा नहीं हुआ है। नेता बरगला रहे हैं और जनता चुपचाप समर्थन दे रही है, इस प्रकार का वातावरण इस चुनाव में नहीं था। इस चुनाव में बिहार का मतदाता किसी भी प्रकार की राजनीतिक निष्क्रियता या वादाखिलाफी को स्वीकार करने के मूड में नहीं था। यह एक सकारात्मक संकेत है, जो लोकतंत्र की मजबूती का परिचायक है।
चुनाव एक अवसर है, न केवल सरकार को चुनने का बल्कि अपनी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को स्पष्ट रूप से रखने का। बिहार का यह चुनाव परिणाम सत्ता परिवर्तन के साथ यह भी संकेत दे रहा है कि अब बिहार की राजनीति को पुराने ढर्रे पर नहीं चलाया जा सकता। जनता अब सवाल करती है, जवाब मांगती है और सबसे महत्वपूर्ण सोच-समझकर मतदान करती है। यही जागरूकता लोकतंत्र की असली जीत है जो इस बिहार के चुनाव में दिखाई दी है।
बिहार विधानसभा चुनावी परिदृश्य में प्रमुख राजनीतिक दलों, भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल जनता दल (यूनाइटेड) (जेडीयू) एवं विपक्षी गठबंधनों में सक्रिय राजद, कांग्रेस एवं अन्य दलों के दृष्टिकोण, उनके उठाए गए विषय, समाज पर उनका प्रभाव तथा आगामी संभावित परिणामों के आधार पर वर्तमान संकल्प एवं राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण किया जाना अत्यंत आवश्यक है। सबसे पहले देखें कि एनडीए गठबंधन किस स्थिति में है। पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार ने अपने दल जेडीयू के साथ मिलकर एनडीए का नेतृत्व किया है।
यह तय हुआ था कि 2025 के इस विधानसभा चुनाव में भाजपा और जेडीयू प्रत्येक 101 101 सीटों पर चुनाव लड़ें। इसमें यह बात भी छिपी नहीं है कि जेडीयू की पिछले चुनावों में स्थिति थोड़ी कमजोर रही है। 2020 में जेडीयू 115 सीटों पर लड़ते हुए केवल 43 सीटें जीत सकी थी। जो इस बार जदयू को सीटें बिहार की जनता ने बहाल की है। इससे यह संकेत मिलता है कि जेडीयू भाजपा गठबंधन में नीतीश कुमार को विकास पुरुष के रूप में बिहार की जनता ने स्वीकार किया है।
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विपक्षी मोर्चे में कांग्रेस राजद और मित्र पक्ष में सीट बंटवारे तथा गठबंधन की एकरूपता पूर्ण नहीं दिखाई दे रही रही थीं। जबकि उनकी गठबंधन रणनीति पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी। इसके साथ ही छोटे दलों, क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका, जातिगत समीकरण आदि लगातार चर्चा में रही हैं। इस परिदृश्य में बिहार की जनता ने यह महसूस किया कि विपक्षी गठबंधन कभी भी सक्रिय और संगठित नहीं हो पाएगा।
भाजपा ने महागठबंधन की इस कमी को प्रारंभिक प्रचार मुहिम में प्रमुख रूप से निशाना बनाया जो गठबंधन अपनी सीट बंटवारा नहीं कर पा रहा, वह शासन कैसे चलाएगा? कुछ प्रमुख चुनावी मुद्दों को देखेंगे तो उनका भी बिहार की राजनीति और समाज पर प्रत्यक्ष या सोशल मीडिया के ज़रिए जनता पर प्रभाव हुआ है।
एनडीए की तरफ से यह मुख्य दावे रहे थे कि उन्होंने बिहार में विकास कार्य, संरचना, सड़क सेतु निर्माण, सड़क बिजली पानी की समस्या हल करने का प्रयास किया है। जेडीयू भाजपा दोनों ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया। समाज में इसका असर इस तरह दिख रहा था कि विकास उन्मुख नारों को स्वीकार किया गया था। बिहार की युवा आबादी इस बार सक्रिय दिखाई दे रही थी। बेरोजगारी, पलायन, बिहार के बाहर के राज्यों की ओर काम करने जाना आदि सामाजिक चुनौतियों ने चुनावी विमर्श को प्रभावित किया है। शैक्षिक गुणवत्ता, स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच विशेषकर ग्रामीण एवं पिछड़े जिलों में जनता के बीच चर्चा का विषय रहे हैं।
बिहार की राजनीति में जाति ध्रुवीकरण लंबे समय से महत्वपूर्ण रहा है। इस बार भी जातिगत समीकरण राजनीतिक दलों में प्रमुख भूमिका निभा रहा था। छोटे दलों तथा जाति विशिष्ट पारंपरिक वोट बैंक वाले नेताओं की भूमिका बढ़ी थी। बहुसंख्यक जातियों में भी यह चर्चा रही थी कि अब जातिगत ध्रुवीकरण जैसे पुराने ध्रुवों से हटकर राजनीतिक दलों को नए समीकरण अपनाने होंगे। सोशल मीडिया के संदेशों, वीडियो कॉल्स में यह बात देखी गयी है कि जात सिद्ध लाभ नहीं मिल रहा, अब हम मुद्दों पर वोट करेंगे जैसा भाव पाया जा रहा था। यह इस बार के चुनाव की परिवर्तनकारी प्रमुख विशेषता है जो बिहार के युवाओं में दिखाई दे रही थी।
प्रत्याशी चयन एवं परफॉर्म नहीं करने वाले विधायक को बदला जाना जैसी रणनीतियाँ इस चुनाव में सामने आई हैं। समाज में यह भावना बढ़ रही थी कि टिकट सिर्फ सत्ता प्रियता के आधार पर दिया जा रहा है, न कि जनता सेवा या क्षेत्रीय योग्यता के आधार पर। सोशल मीडिया में इस विषय पर काफी चर्चा देखने को मिली थी, जहाँ निराश मतदाताओं ने ट्वीट-पोस्ट करके हमारे क्षेत्र का प्रत्याशी हमें नहीं पूछे जैसी प्रतिक्रियाएँ दी थी जिसका असर प्रत्यक्ष मतदान में भी दिखाई दिया है। यह एक बेहद संवेदनशील विषय रहा है। एनडीए और विपक्ष दोनों को इसका सामना करना पड़ा है।
युवा वर्ग और उनके सोशल मीडिया के प्रभाव से जाति के आधार पर लादे हुए प्रत्याशी ना स्वीकार करने तक बिहार के समाज में परिवर्तन आया है। यह बात इस चुनाव में सामने आई है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस चुनाव में सोशल मीडिया, व्हाट्सऐप ग्रुप, यूट्यूब चैनल, रील्स आदि का उपयोग काफी बढ़ा है। खासकर युवा मतदाता वर्ग में सोशल मीडिया पर चर्चा विमर्श और महानगरों तथा छोटे शहरों में मोबाइल समाज माध्यमों के मार्फत राजनीति विषयक जानकारी प्रवाही रूप में गतिमान रही है।
उदाहरणस्वरूप, जनसमूहों में यह चर्चा मिलने लगी थी कि ट्विटर ट्विट/फेसबुक पोस्ट ने हमें जागरूक किया है, हमने वीडियो देखकर जाना कि विकास कहाँ है आदि। हालाँकि यह ध्यान देने योग्य है कि सोशल मीडिया में पहुंच अभी भी ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में सीमित है। वहाँ अभी भी पारंपरिक संवाद सभाएँ, होर्डिंग बोर्ड आदि प्रचार माध्यम के रूप में प्रभावी हैं।
सोशल मीडिया से प्रभावित मतदाता और पारंपरिक मतदाता में विभाजन भी दिखाई दे रहा था। युवा अक्सर सोशल मीडिया में सक्रिय थे, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी लोक मंच, बैठकों का प्रभाव दिखाई दिया है। बिहार के पिछड़े जिलों, कृषि जमींदारी क्षेत्र में विकास की कमी, पलायन जैसी चुनौतियाँ अब भी अनसुलझी हैं। इन सारी परिस्थितियों के बीच यह भी सत्य है कि सिर्फ सोशल मीडिया ही बिहार के चुनावी निर्णय का एकमात्र आधार नहीं बन पायी है बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने 3 महीने पहले से ही प्रत्येक बूथ के प्रत्येक मतदाताओं से कम से कम तीन बार किया संवाद-संपर्क यह भी योग्य उम्मीदवार चुनने के प्रक्रिया में प्रभावी रूप से काम कर गया है।
एनडीए गठबंधन को एक मजबूत लाभ मिला है, विशेष रूप से जेडीयू भाजपा के बीच सीट वितरण बिना अधिक विवाद के हुआ और गठबंधन सक्रिय रहा। लेकिन राज्य में महिलाओं को रुपए 10000/- का भेंट देने की प्रक्रिया महिलाओं के मन में एनडीए के संदर्भ में विश्वास निर्माण करने वाली रही है। बिहार जैसे राज्य में महिलाओं के हाथ में एक साथ 10000/- रुपए आना यह बहुत बड़ी बात है। जिससे हजारों महिलाओं ने अपने गृह उद्योग शुरू किए हैं। महिलाओं को आत्मनिर्भर होने का एहसास निर्माण हुआ। परिणाम, बड़ी संख्या में लोग मतदान केंद्र तक पहुंचे जिसमें महिलाओं की संख्या बहुत बड़ी थी।
बिहार में हुए विक्रमी मतदान को देखते ही यह स्पष्ट हुआ था कि यह बढ़ा हुआ मतदान एनडीए को फायदा देने वाला है। आज चुनाव के परिणाम में यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध हुई है। बिहार की महिलाओं ने विकास के लिए एनडीए को चुनकर लाया है। नेपाल और बांग्लादेश जैसी रक्तरंजित क्रांति के लिए युवाओं का उपयोग करने की बात कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने अपने चुनाव प्रचार में कई बार कहीं। लेकिन बिहार की महिलाएं अपने बच्चों के लिए सुरक्षित भविष्य चुनना चाहती थी, उन्होंने अपने युवा बच्चों के लिए, भाइयों के लिए एनडीए की जीत सुनिश्चित की और विकास की ओर मार्गक्रमण करने वाली सरकार चुनी है। यही भाव बिहार में एनडीए को मिले बहुमत से महसूस हो रही है। बिहार के विकास और सुशासन के मुद्दे पर प्रारंभिक काल में शुरू हुई चुनावी बहस अंत में कट्टा गोली तक पहुंची थी। लेकिन यह चुनावी बात कांग्रेस और राजद को सत्ता से दूर रखने में भाजपा को ही फायदेमंद रही।
प्रशांत किशोर की राजनीतिक पार्टी की गतिविधियों का असर बिहार के इलेक्शन में कितना होता है? इस पर देश भर के लोगों की नजर टिकी हुई थी। प्रशांत किशोर ने अपनी राजनीतिक पारी खेलते हुए चुनाव के माध्यम से बिहार की जनता को चुनावी आश्वासन देना प्रारंभ किया कि वह विकसित बिहार निर्माण करने में बिहार की जनता का सहयोग करेंगे। प्रशासनिक कार्य से अनजान प्रशांत किशोर को बिहार की जनता ने नकार दिया है। दिल्ली में इसी प्रकार की घोषणा करते हुए अरविंद केजरीवाल के आप पार्टी ने समाज पर प्रभाव निर्माण किया था। लेकिन दिल्ली वासियों का भी जल्द ही भ्रम दूर हो गया। ऐसे में बिहार की जनता ने प्रशांत किशोर के इन चुनावी वादों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया है।
इस बार के बिहार चुनाव में न केवल राजनीतिक संक्रमण के बिंदु है, बल्कि सामाजिक चेतना के विकास, युवा सक्रियता व लोकतांत्रिक संस्कृति के सुदृढ़ीकरण का भी अवसर है। इसी कारण 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में जो विक्रमी मतदान हुआ है वह देश भर के अन्य राज्यों को प्रेरणा देने वाला है।
बिहार की जनता ने इस चुनाव में विकास को मतदान किया है, यदि राजनीतिक दल इन संकेतों को समझकर आगे बढ़े तो बिहार के भविष्य पथ में सकारात्मक मोड़ आ सकता है। विकास और सुशासन से जुड़े वादों का समाज स्तर पर योग्य क्रियान्वयन हुआ है। युवा मतदाताओं और ग्रामीण मतदाताओं के बीच प्रवाह बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने प्रत्येक घर के चौखट तक पहुंच कर सभी से जो आत्मीय संपर्क किया है, इस जीत से जुड़े विभिन्न कारणों में यह भी एक सशक्त कारण है। इन्हीं प्रयासों के कारण चुनाव के माध्यम से बिहार के जनता ने बिहार विकास से जुड़े हुए मुद्दों से अपनी जवाबदेही बनायी रखी है।
इस चुनाव में विकास और सुशासन के विकल्प को वोट मिले, इससे बिहार में युवाओं को और राजनीतिक नेताओं को इस चुनाव के माध्यम से एक सकारात्मक संकेत मिल रहा है कि बिहार की राजनीति अब सिर्फ जाति वोट बैंक तक सीमित नहीं रही है। जातिगत ध्रुवीकरण की परंपरा वाले बिहारियों के मन में समरसता का संदेश भी असर कर रहा है। बिहार राज्य के परिवर्तन के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि साबित हो सकती है।
आने वाले भविष्य में यदि मतदाता असंतुष्ट रहे, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गुणवत्ता पर सवाल खड़े कर सकता है। सोशल मीडिया के दौर में सक्रिय मतदाता अब ज्यादा जागरूक हो चुके हैं; यदि उनके द्वारा उठाए गए बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर आने वाली भविष्य में समाधान नहीं पा सके, तो भविष्य में यही मतदाता असंतुष्ट होने की बहुत ज्यादा संभावना है।
बिहार राज्य के इस चुनाव से जातिगत धार्मिकता से जुड़ी राजनीति का प्रभाव कम होता दिख रहा है। जातिगत समीकरणों के बजाय विकास के मुद्दों पर आधारित मतदान को बढ़ावा देना चाहिए, इससे सामाजिक विभाजन कम हो सकता है। यदि यह ट्रेंड चुनाव के पश्चात भी बिहार राज्य की जनता के मन में सकारात्मक रूप में प्रगति करता रहा तो भविष्य में बिहार में सामाजिक समरसता जैसे महत्वपूर्ण विषय को बढ़ावा मिलेगा।
चुनाव में विजय-पराजय के परिणाम महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन इससे भी आगे बढ़कर इस बार लोकतंत्र की परीक्षा में बिहार का जनमत वहां की बदलती दिशा का सकारात्मक संकेत हैं।

