क्या हम अपनी बेटियों को सिर्फ “महान त्याग” की कहानियों तक सीमित रखेंगे? या उन्हें वास्तविक नेतृत्व देकर राष्ट्र निर्माण में बराबर की भूमिका सौंपेंगे? मतदान में महिलाएँ आगे हैं— अब राजनीति को भी आगे बढ़ना होगा।
भारतीय समाज में महिलाओं की उपलब्धियाँ पिछले दो दशकों में नई ऊँचाइयों पर पहुँची हैं। शिक्षा, उद्यमिता, प्रशासन, सेना, खेल—हर क्षेत्र में महिलाएँ न सिर्फ बराबरी कर रही हैं, बल्कि कई जगह नेतृत्व करती दिखाई देती हैं। लेकिन इस प्रगति के बीच भारतीय राजनीति एक अटकी हुई घड़ी की तरह महसूस होती है, जो आगे बढ़ते समाज के मुकाबले अब भी पितृसत्तात्मक धारणाओं में जकड़ी हुई है।
2025 का बिहार विधानसभा चुनाव इस असमानता को सबसे स्पष्ट रूप में दिखाता है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने 243 में से 202 सीटें जीतकर ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया। दिलचस्प यह कि मतदान प्रतिशत में महिलाओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया— शराबबंदी, जीविका दीदी, साइकिल योजना और कल्याणकारी कार्यक्रमों ने महिलाओं को एनडीए के प्रति मतदान में अपेक्षाकृत अधिक उत्साहित किया। फिर भी विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या मुश्किल से 28 (लगभग 12%) रही। यह वही पुराना सवाल उठाता है—सहभागिता बढ़ रही है, लेकिन प्रतिनिधित्व अब भी इतना कम क्यों है?

पितृसत्तात्मक राजनीति और बेटियों का संघर्ष
राजनीति में महिलाओं का संघर्ष केवल टिकट न मिलने तक सीमित नहीं है, बल्कि उससे भी गहरे सामाजिक विचारों में छिपा है। राजनीतिक दल महिलाओं को “सशक्त मतदाता” तो मानते हैं, लेकिन उन्हें नेतृत्व देने में हिचकते हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण बिहार की राजनीति से आता है— लालू परिवार का विवाद, जिसने एक बार फिर दिखा दिया कि बेटियाँ चाहे जितना योगदान दें, “वारिस” का दर्जा बेटों के लिए ही सुरक्षित मान लिया जाता है।
रोहिणी आचार्य, जिन्होंने अपने पिता को किडनी दान कर ‘महान त्याग की मिसाल’ बनाई, जब राजनीतिक फैसलों और परिवारवाद पर सवाल उठाती हैं, तो उन्हें पार्टी से लेकर परिवार तक में अपमान झेलना पड़ता है। 14 नवंबर, 2025 में उनकी भावनात्मक घोषणाएँ— परिवार से दूरी और राजनीति छोड़ने की बात—सिर्फ एक बेटी की चोट नहीं थी, बल्कि उस संरचना की पोल खोल रही थीं जिसमें महिला की भूमिका त्याग तक सीमित है, नेतृत्व तक नहीं। उनके बयान के बाद 24 घंटे में लालू प्रसाद की चार और बेटियाँ— रागिनी, चंदा, हेमा और राजलक्ष्मी यादव— पटना का पारिवारिक आवास छोड़ दिल्ली चली गईं। रागिनी यादव, जो पहले से पार्टी में सक्रिय थीं, ने साफ कहा कि “घर में अब महिलाओं की कोई इज्जत नहीं।” यह केवल पारिवारिक विवाद नहीं, बल्कि उस व्यापक सामाजिक सच्चाई का प्रतीक है जहाँ राजनीतिक दलों में महिला केवल “सहयोगी” मानी जाती है, “उत्तरोत्तर नेता” नहीं।
जब महिला नेतृत्व को अवसर मिलता है, परिणाम भी दिखता है
यह असमानता केवल राजद तक सीमित नहीं है। लगभग हर पार्टी में बेटियाँ या महिलाएँ अपवाद के रूप में उभरती हैं— कांग्रेस में प्रियंका गांधी सीमित भूमिका में, सपा में डिंपल यादव परिवारिक दायरे में, एनसीपी में सुप्रिया सुले सक्रिय तो हैं, पर उत्तराधिकारी नहीं। डीएमके में कनिमोझी की क्षमता के बावजूद सत्ता उदयनिधि स्टालिन के हाथों में। राजनीति में महिला नेतृत्व के रास्ते आज भी बेहद संकरे हैं।
लेकिन जब महिलाओं को वास्तविक अवसर मिलता है, उनकी क्षमता सार्वजनिक रूप से प्रमाणित भी होती है। बिहार में इस बार बीजेपी ने युवा लोकगायिका मैथिली ठाकुर को मौका दिया और वे अलीनगर से जीतकर सबसे कम आयु की विधायक बनीं। उनकी जीत दिखाती है कि नया नेतृत्व गढ़ने में महिलाएँ कितनी सक्षम हैं— बस उन्हें मंच चाहिए, भरोसा चाहिए।
बिहार की नई सरकार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सीमित है, लेकिन कुछ नियुक्तियाँ आशा जगाती हैं। जेडीयू से लेसी सिंह— लगातार सक्रिय और क्षेत्र में मजबूत पकड़ रखने वाली नेता। भाजपा से अति पिछड़ा वर्ग की महिला नेता—रमा निषाद और श्रेयसी सिंह (सवर्ण)— जिन्हें मंत्री बनाकर केवल प्रतीकात्मक संतुलन नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश दिया गया है कि नेतृत्व केवल सवर्ण या शहरी महिलाओं तक सीमित नहीं।
हालाँकि तीन महिला मंत्री 26 सदस्यीय मंत्रिमंडल में बहुत कम हैं, लेकिन यह कदम कम-से-कम एक शुरुआत का संकेत देता है— जेंडर के साथ-साथ सामाजिक वर्गों की विविधता भी शामिल हो रही है।

राष्ट्रीय स्तर की मिसालें— नेतृत्व जहाँ महिलाओं ने दिशा बदली
भारत में कई ऐसे उदाहरण हैं जहाँ महिला नेतृत्व ने राजनीति की दिशा ही बदल दी— इंदिरा गांधी, जिनकी राजनीतिक क्षमताएँ वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय रहीं। ममता बनर्जी, जिन्होंने बंगाल की राजनीति में तीन दशक पुरानी ताकत को चुनौती दी। जयललिता, जिन्होंने दक्षिण भारत में करिश्माई जननेता की भूमिका निभाई। निर्मला सीतारमण और सुषमा स्वराज, जिन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल में मजबूत नेतृत्व दिया। ये उदाहरण बताते हैं कि महिला नेतृत्व अपवाद है, पर असंभव नहीं— बस अवसर सीमित हैं।
महिला आरक्षण: कानून से आगे बढ़कर सोचने की जरूरत
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पारित महिला आरक्षण बिल 2029 से लागू होगा, लेकिन केवल संवैधानिक प्रावधान पर्याप्त नहीं। अगर राजनीतिक दल अभी से 33% टिकट और संगठनात्मक पदों में महिलाओं को जगह नहीं देंगे, तो 2029 के बाद भी स्थिति बहुत नहीं बदलेगी। पहली बार चुनी गई कई महिलाएँ अगली बार टिकट न पाकर फिर बाहर हो जाएँगी— यह पैटर्न पहले भी देखा गया है। बदलाव के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दल— टिकट वितरण में 33% नियम स्वेच्छा से अपनाएँ। पंचायतों की तरह, लोकसभा-विधानसभा स्तर पर भी “ग्रूमिंग मॉडल” विकसित करें. महिला कार्यकर्ताओं को संगठन में नेतृत्व देने की संस्कृति बनाएं।
बेटियाँ नेतृत्व चाहती हैं, सिर्फ त्याग नहीं
रोहिणी और रागिनी का घर छोड़ना केवल एक परिवार का टूटना नहीं है, बल्कि उस राजनीतिक और सामाजिक दम्भ का टूटना है जो बेटियों से त्याग की अपेक्षा करता है, लेकिन नेतृत्व का हक बेटों के लिए सुरक्षित मानता है। यह समय है जब देश यह तय करे— क्या हम अपनी बेटियों को सिर्फ “महान त्याग” की कहानियों तक सीमित रखेंगे? या उन्हें वास्तविक नेतृत्व देकर राष्ट्र निर्माण में बराबर की भूमिका सौंपेंगे? मतदान में महिलाएँ आगे हैं— अब राजनीति को भी आगे बढ़ना होगा। लोकतंत्र तभी पूरा होगा जब भारत की बेटियों को सिर्फ वोट देने का नहीं, नेता बनने का समान अवसर मिलेगा।
-डॉ. संतोष झा
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शीला दीक्षित को क्यों छोड़ दिए
जी बिलकुल शीला दीझित और मायावती की उल्लेख करना चाहिए.
बहुत ही तर्कपूर्ण और शत प्रतिशत सत्य वचन।यह लेख सत्यता को उजागर करता है।🙏🏻❤️
🙏
जिम्मेदारियों में दबे पुरुष वर्ग से तनिक भी कम महिलाएं नहीं है ,घर के चौखट से लेकर बाहर तक , स्वयं से लेकर पूरे परिवार तक सबका ध्यान रख लेती है और अपने जिम्मेदारियों को बखूबी निभा लेती है । इतिहास गवाह है कि जब जब बेटियों को नेतृत्व करने का अवसर मिला है उन्होंने कमाल ही किया है । भारत में बीते दशकों में (खास करके पिछले 10 सालों में) जागरूकता के कारण जो बेटियों ने अपने वोटिंग अधिकार का निर्वहन करते हुए जो लोकतंत्र की मर्यादा रखी है वो वाकई सराहनीय है । इसलिए वो इस बात के भी अधिकारी है कि उन्हें सिर्फ कहानियों तक सीमित न रखते हुए , नेतृत्व करने का भी अवसर दिया जाए , क्योंकि यही है असली लोकतंत्र और असली लैंगिक समानता ।
जी बिल्कुल
Santosh ji
Mahilao ki rajnitik bhagidari per aapne bahut hi achhi abhibyakti ki hai kash hmari samaj aur rajnitik dal bhi es vichar se prabhavit ho jaay.
Bdhai Dr jha ji