भारत की राजनीति में कुछ शब्द केवल शब्द नहीं होते। वे प्रतीक होते हैं भावनाओं के, संघर्षों के और कभी-कभी इतिहास के सबसे कड़वे अनुभव के। बाबरी ऐसा ही एक शब्द है, जिसे भारतीय समाज ने 500 सालों तक अनुभव किया, संघर्ष किया और अंततः सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद एक संवैधानिक समाधान की ओर बढ़ा। लेकिन 6 दिसम्बर 2025 में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में फिर से बाबरी मस्जिद निर्माण की घोषणा ने भारतीय राजनीति के धड़कते हृदय में एक कम्पन पैदा कर दी है। क्या यह मात्र धार्मिक निर्माण का मुद्दा है? क्या यह राजनीति में स्थान बनाने की नई शुरुआत है? क्या यह मुद्दा सीमा-सुरक्षा, जनसंख्या-परिवर्तन और बंगाल की अस्थिर राजनीतिक रसायन का एक खतरनाक मिश्रण बन रहा है?
2019 में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) की खुदाई रिपोर्ट और गवाहों के रिकॉर्ड के आधार पर कहा था कि जिस जमीन पर बाबरी मस्जिद खड़ी थी, वहाँ पर एक गैर इस्लामिक पुरानी संरचना थी और मुस्लिम पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि वो संरचना बाबरी मस्जिद की है। इसके साथ ही, कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष के लिए कहा था कि उन्हें किसी भौगोलिक रूप से प्रतिष्ठित अयोध्या में या अन्यत्र पाँच एकड़ जमीन दी जाए जिससे मस्जिद बन सके। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी के बाद अयोध्या में जमीन देने के बावजूद भी वहां नई बाबरी मस्जिद नहीं बनी।
हुमायूं कबीर पूर्व में तृनमुल कांग्रेस से विधायक थे। उन्होंने 6 दिसंबर 2025 को मुर्शिदाबाद में प्रति बाबरी मस्जिद की नींव रखी। विश्लेषकों के अनुसार, हुमायूं कबीर की यह पहल खासकर मुर्शिदाबाद जैसे मुस्लिम-बहुल जिले में जहाँ मुस्लिम वोटों का दबदबा है वहां मुस्लिम राजनीति में खुद की पहचान बनाने की ओर यह कदम हो सकता है।
TMC ने इसे अस्वीकार कर इसे साम्प्रदायिक राजनीति करार दिया और उन्हें आनन-फानन में पार्टी से निलंबित कर दिया। उसके बाद हुमायूं कबीर ने यह कहा है कि वे जल्द एक नई पार्टी बना सकते हैं। हुमायूं कबीर की भूमिका इस्लामिक धार्मिकता से ज्यादा, मुस्लिम समाज में स्वयं की सामाजिक एवं धार्मिक पहचान बनाकर अपना राजनीतिक वजूद बनाए रखने की मंशा नजर आती है।
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मुर्शिदाबाद का भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, वहाँ की सामाजिक संरचना और आर्थिक विषमताएं यह सब बातें भी कबीर हुमायूं के लिए अपनी राजनीतिक पहचान बनाने के लिए उपयोग में आएगी। 2011 की जनगणना के अनुसार, मुर्शिदाबाद तहसील में मुसलमानों की हिस्सेदारी करीब 66.27% है, जबकि हिंदुओं की जनसंख्या 33.21% है। 1951 में मुस्लिम जनसंख्या 55% थी , 2011 में करीब वहां 66% वह जनसंख्या वृद्धि हुई है। इस तरह का मुस्लिम-बहुल जिला, जहाँ कुल जनसंख्या में मुस्लिम कानूनी एवं धार्मिक पहचान के हिसाब से निर्णायक हो सकते हैं, ऐसे में धार्मिक पहचान पर जोर देना , राजनीतिक दृष्टिकोण से वोट बैंक मजबूत करने का हुमायूं कबीर का यह प्रयास स्वाभाविक है।
उनका यह प्रयास अयोध्या के देशव्यापी विवाद को पुनर्जीवित कर सकता है, क्योंकि बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद देश का संवेदनशील विषय रहा है। राजनीतिक दृष्टि से हिंदू मुस्लिम समुदायों के बीच राजनीति तेज हो सकती है। इससे लोकतांत्रिक आधार, सामाजिक सहिष्णुता पर गहरा असर पड़ सकता है। मुर्शिदाबाद जैसे संवेदनशील जिले में प्रशासन, कानून व्यवस्था, सुरक्षा, अफवाह, दंगे-फसाद, सामाजिक विखंडन का जोखिम बढ़ सकता है। मुर्शिदाबाद यह मुस्लिम जनसंख्या वाला जिला होने के कारण हिन्दू धर्म के लोगों के लिए डर, असुरक्षा, अलगाव की भावना बन सकती है।

बुधवार 6 दिसम्बर 2025 को, हुमायूं कबीर ने मुर्शिदाबाद में मस्जिद की नींव रखी। उसी दिन, कोलकाता उच्च न्यायालय ने उनपर किसी तरह की रोक नहीं लगाई, लेकिन वहां कि कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगी यह बात कोर्ट ने स्पष्ट की है। वहीं तृणमूल कांग्रेस ने कबीर को निलंबित कर कहा कि यह उनका निजी पहल है, पार्टी की नहीं। जब देश पहले ही धर्म, पहचान और लोकतांत्रिक अधिकारों आदि कई के मुद्दों से जूझ रहा हो तो एक नए बाबरी मस्जिद बनाने का प्रस्ताव से सामाजिक तनाव, धार्मिकता से जुड़ी राजनीति, भय और असुरक्षा की भावना पैदा कर सकती है।
6 दिसंबर 2025 को हुमायूं कबीर द्वारा मुर्शिदाबाद में प्रति बाबरी मस्जिद की संरचना का शिलान्यास की घटना केवल एक धार्मिक ढाँचे की घोषणा नहीं है। यह घटना राजनीतिक, भूगोल, धार्मिक पहचान, सीमा-सुरक्षा, जनसंख्या परिवर्तन और बंगाल के बढ़ते राजनीतिक ध्रुवीकरण का नया केंद्र बन गया है। भारत का पूर्वी सीमांत पहले से ही सुरक्षा-चुनौतियों, घुसपैठ, कट्टरपंथ और बहुसांस्कृतिक तनावों का संवेदनशील क्षेत्र है। ऐसे में यह पहल सिर्फ स्थानीय मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बदलने वाला मुद्धा बन सकता है।

मुर्शिदाबाद में 1951-2011 जनसंख्या परिवर्तन पहले से ही बहस का विषय है। नई मस्जिद की घोषणा के बाद यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर ‘जनसंख्या नीति’ और ‘सीमा क्षेत्रों’ की जनसंख्या सुरक्षा के रूप में उभर सकता है। हुमायूं कबीर क्षेत्रीय मुस्लिम राजनीति में एक नया स्वतंत्र नेता बनकर उभर सकते हैं। अखचखच् और ओवेशी की राजनीति को एक पूर्वी केंद्र मिल सकता है, जो पहले तक बंगाल में सीमित प्रभाव रखती थी। भाजपा इसे बंगाल में अलगाववादी-धार्मिक राजनीति का प्रमाण बताएगी। जिससे भाजपा का नॉरेटिव मजबूत होगा। सीमा सुरक्षा व फेंसिंग का राजनीतिकरण गहराने का जोखिम है। यदि मस्जिद निर्माण का मुद्धा तेज होता है, तो राजनीति इस मुद्दे को सीमा-सुरक्षा से जोड़ देगी। केंद्र सरकार फेंसिंग और इडऋ अधिकारक्षेत्र बढ़ाने पर जोर देगी। ममता सरकार इसे संविधान विरोधीया राज्य अधिकारों पर दखल बताएगी। परिणाम राज्य और केंद्र में टकराव और तेज़ होगा। इसका सीधा असर 2026 बंगाल विधानसभा चुनावों में देखने मिलेगा।
मुस्लिम समुदाय के भीतर भी मतभेद उभरेंगे, बंगाल के मुस्लिम राजनीति में दो ध्रुव निर्माण होने की संभावना है। पारंपरिक तृणमूल कांग्रेस समर्थक मुस्लिम पश्चिम बंगाल में हैं। हुमायूं कबीर या अशुउददीन ओवेशी जैसे मुस्लिम नेताओं में भविष्य के अस्तित्व के लिए खींचातान होने की संभावना है। मुस्लिम जन मानस इनमें से किसे स्वीकार करे, यह प्रश्न भी सामने सकता है। यह विभाजन धीरे-धीरे तृणमूल के मुस्लिम आधार को कमजोर कर सकता है और भाजपा के लिए अवसर बना सकता है।
हुमायूं कबीर, स्थानीय प्रभुत्व आधारित राजनीतिक नेता है। इस मुद्धेे के कारण क्षेत्रीय मुस्लिम बहुल जिलों में उसकी नई पहचान गढ़ना प्रारंभ हो जाएगा। स्थानीय वोट बैंक को आधार बनाकर नया राजनीतिक मंच बनाने की कोशिश हो सकती है। असदुद्दीन ओवैसी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान आधारित राजनीति करने वाले मुस्लिम नेता है। बाबरी के नाम को राष्ट्रीय मुस्लिम पहचान के प्रतीक के रूप में उठाकर बंगाल के मुस्लिम समुदाय में अपनी पकड़ बढ़ाने का अवसर इस घटना ने असदुद्दीन ओवैसी को प्रदान किया है। केंद्र बनाम राज्य की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ है। यह दो नेता राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय स्तर पर अपना असर निर्माण करने के लिए जोरदार प्रयास करेंगे इसके कारण यह मुद्दा देशव्यापी उछाल पैदा करेगा।
बाबरी शब्द का सीधा संबंध भारत के सबसे बड़े धार्मिक विवाद से है। यह मस्जिद देश के सुरक्षित सीमांत क्षेत्र में बनाई जा रही है। जनसंख्या-परिवर्तन पहले से ही राजनीतिक चर्चा का केंद्र है। केंद्र-राज्य टकराव इसे और बड़ा बनाएगा। यह बंगाल की राजनीति की नई दिशा, सीमा सुरक्षा की चुनौती, जनसंख्या संतुलन का भविष्य, पहचान आधारित राजनीति का उभार और भारत के सामाजिक सौहार्द के लिए एक चुनौती है। यह मुद्दा आने वाले दशक में भारत के राजनीतिक भूगोल और सामाजिक ढांचे को पुनःपरिभाषित कर सकता है। मुर्शिदाबाद की यह नई बाबरी मस्जिद केवल एक धार्मिक ढाँचा नहीं है। भारत की राजनीति में ऐसे मुद्दे केवल चुनावी समय की घटना नहीं होते, बल्कि अगले 10-20 वर्षों की राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक संतुलन को गहरे रूप में प्रभावित करती हैं।
संपूर्ण स्थिति को देखते हुए एक बात मन में आती है……
आज सवाल हवा में तैर रहा है..
- क्या ये आस्था है,
- या कट्टर रणनीतियों का पहर ?
- क्या ये सचमुच इबादत की धुन है,
- या सत्ता की पगडंडी पर रखा हुआ
- कोई गुप्त देशविरोधी कदम ?
मुर्शिदाबाद का यह नया बाबरी मस्जिद का विवाद, भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता, राजनीतिक सूझबूझ और सामाजिक धार्मिक ताने-बाने के सामने एक संकट पैदा कर सकता है?
“इस बारे में आपकी क्या राय है? नीचे कमेंट्स में बताएं।”
