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दुर्गानंद नाडकर्णी: संघकार्य की यात्रा

दुर्गानंद नाडकर्णी: संघकार्य की यात्रा

by हिंदी विवेक
in संघ
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दुर्गानंद नाडकर्णी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। मूल रूप से अंकोला (महाराष्ट्र) के, वहीं के स्वयंसेवक। कुछ कारणवश मुंबई आ गए। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था, संघ के कार्यालय में रहते थे, शिक्षा पूरी होने पर प्रचारक बन गए। प्रचारक का मतलब होता है- नौकरी-व्यवसाय न करते हुए, संघ जिस भौगोलिक क्षेत्र में कहे वहाँ जाकर संघ के विस्तार का काम करना।

आज सुबह मेरे डिचोली के भाई डॉ. माधव का फोन आया और उन्होंने दुर्गानंद नाडकर्णी के निधन की अत्यंत वेदनादायक और दुखद खबर दी। क्षण भर के लिए सुन्न हो गया। कुछ समझ नहीं आया। फौरन रोना भी नहीं आया। फोन लेते समय मैं घर पर नहीं था। बाद में घर आकर मन भर कर रो लिया।

दुर्गानंद नाडकर्णी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। मूल रूप से अंकोला (महाराष्ट्र) के, वहीं के स्वयंसेवक। कुछ कारणवश मुंबई आ गए। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था, संघ के कार्यालय में रहते थे, शिक्षा पूरी होने पर प्रचारक बन गए। प्रचारक का मतलब होता है- नौकरी-व्यवसाय न करते हुए, संघ जिस भौगोलिक क्षेत्र में कहे वहाँ जाकर संघ के विस्तार का काम करना।
सन 1968 में दुर्गानंद सावंतवाडी जिले के लिए प्रचारक बनकर आए। सावंतवाडी कोई सरकारी जिला नहीं था। गोवा अभी-अभी स्वतंत्र हुआ था और वहाँ संघ का काम नया ही शुरू हुआ था। इसलिए महाराष्ट्र के वर्तमान सिंधुदुर्ग जिले के 5 तालुके और गोवा के गठित 5 तालुकों को मिलाकर 10 तालुकों का ‘सावंतवाडी जिला’ संगठन की सुविधा के लिए बनाया गया था।
इस जिले का केंद्र सावंतवाडी था। संघ का कार्यालय सावंतवाडी में हमारे ही वाड़े (बड़े घर) में था इसलिए प्रचारकों का ठिकाना हमारे ही घर पर हुआ करता था। नाडकर्णी जी के घर आने के बाद से वे घर के ही एक सदस्य की तरह हो गए थे, कब आए और कब चले गए, पता ही नहीं चला।

घर में मैं छोटा, 17-18 साल का था। मेरा सावंतवाडी में डॉक्टर बड़ा भाई अध्यात्मिक जीवनपद्धति में ही गुंथा रहता था और पिताजी जिले के संघचालक थे। लेकिन हम सबके साथ ही वे उचित “मैत्र” (मित्रतापूर्ण दूरी/संबंध) रखकर व्यवहार करते थे।

नाडकर्णी जी के आते समय दुर्भाग्य से मेरी माँ अभी-अभी गुजरी हुई थीं। 2-3 महीने में ही गणेश चतुर्थी का त्योहार आया, माँ न होने की वजह से सांगली से मेरी बहन आने वाली ही थी, लेकिन वह भी आने से पहले जो कुछ तैयारी करनी थी उसकी जानकारी उन्होंने बाबा (पिताजी) से लेकर, मुझसे ले ली थी। जिसकी उससे पहले मुझे कभी आदत ही नहीं थी, इतने वे महज 2-3 महीनों में ही घर के होकर रह गए थे।

सन ’70 में मेरे बड़े भाई की शादी हुई, उस सुनिती भाभी को तो मुंबई की थीं, उन्हें संघ-काम की जानकारी ही नहीं थी और हमारे यहाँ तो ‘संघ के घर’ होने की वजह से बहुत आना-जाना लगा रहता था, जैसा किसी भी संघ-कार्यकर्ता के घर में होता है। लेकिन नाडकर्णी जी तथा शिवराय तेलंग और दामुअण्णा दाते ने मिलकर उन्हें भी “संघ की भाभी” बना दिया।
उसी समय के आसपास मेरे मन में यह विचार बना होगा कि “हमें संघ का काम गंभीरता से करना चाहिए” और उस “घटते-बढ़ते” उम्र में हम सावंतवाडी के कार्यकर्ताओं को नाडकर्णी जी प्रचारक के रूप में मिले। 16 से 20 वर्ष की आयु वर्ग के मैं, अरविंद रानडे, विजय मराठे, अशोक पराडकर, बर्डे ऐसे कितने ही युवकों को नाडकर्णी जी ने संघ-काम में गहराई से जोड़कर रखा था और खास बात यह कि इन सभी के कुटुंबियों को भी दुर्गानंद अपने “मित्र” लगते थे, इतना उनका व्यवहार आत्मीयतापूर्ण था।

दुर्गानंद जी की ओर हम युवा आकर्षित होते थे, इसका कारण था उनका अथाह पढ़ना, इतिहास का ज्ञान, उसके प्रसंगों का वर्णन करने की उनकी कुशलता और उस आधार पर हमारे मन में राष्ट्रभावना, देशप्रेम जगाने का उनका हुनर। इसके अलावा संघ शाखा के शारीरिक कार्यक्रम में उनका कौशल और शारीरिक प्रयोग, कवायत (व्यायाम) सीखने और सिखाने की हमारी इच्छा। इसलिए वे हमारे “हीरो” थे और दिखते भी करवाया (?) हीरो जैसे ही थे।

उनका साथ मिलने से मैं कॉलेज और जिले का काम छोड़कर अक्सर उनके साथ घूमने चला जाता था। हम घूमते तो थे, लेकिन उनकी वह संघ-काम की “यात्रा” हुआ करती थी। दूर-दराज़ के घरों में जाने पर अपना व्यवहार कैसा होना चाहिए, यह उन्होंने मुझे उपदेश देकर कभी नहीं बताया, लेकिन उनका व्यवहार देखकर ही हम कार्यकर्ता सीखे हैं।
एक बार कुडाळ में एक कार्यकर्ता के घर हम रात के करीब 8-9 बजे पहुँचे। कई लोगों से मिलते-जुलते घर गए थे। खाना नहीं खाया था। घर की “भाभी” संघ से जुड़ी थीं इसलिए उन्होंने खाने की पूछताछ ज़रूर की। हमने कहा “खा लिया है” लेकिन उस माताजी को प्रचारक दुर्गानंद जानती थीं। इसलिए उन्होंने तुरंत कहा, “ठीक है, मैं जल्दी चावल और पिठल (मराठी में एक पकवान, अक्सर बाजरे या अन्य आटे की रोटी को दही या छाछ में तोड़कर बनाया जाता है) बनाती हूँ।” और मुझसे पूछा कि “तुझे पसंद है न?” मेरी तो बहुत अड़चन हो गई। मुझे ‘पिठल’ बिल्कुल पसंद नहीं था। …बिल्कुल भी पसंद नहीं था। लेकिन मैं कुछ बोलता उससे पहले ही नाडकर्णी जी ने कहा, “अरे, रत्नाकर को तो बहुत पसंद है, तुम करो।” … पिठल (एक मराठी पकवान) तुम लाओ और फिर भोजन के समय नाडकर्णी जी ने मुझे श्रीखंड-पूरी के लिए जैसा आग्रह करते थे, वैसे ही पिठल भात खाने के लिए कहा। संघ कार्य करते समय अपने भोजन की ही नहीं, बल्कि संघ को छोड़कर अपनी सभी पसंद-नापसंद को भी बाजू में रखना पड़ता है – यह संस्कार उन्होंने सहज ही मुझे दे दिया। बाद में संघ कार्य करते हुए जब मुझे प्रवास के दौरान कार्यकर्ताओं के घरों में ठहरना होता था तब इस संस्कार का मुझे बहुत लाभ मिलता था, इसमें कोई शक नहीं है।

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बाद में अपनी एम.एस.सी. की शिक्षा के लिए मैं गोवा आया और यहीं मेरी नौकरी लग गई। उसी समय के आसपास दुर्गानंद जी रत्नागिरी सुरु विभाग के – यानी रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग और गोवा – इन तीन जिलों के प्रचारक के रूप में गोवा आते थे। लेकिन उससे पहले भी १९७६ से १९७४/७५ के बीच वे गोवा आते ही रहते थे और उस समय उनके संपर्क में रहे सुभाष वेलिंगकर, सुधीर देसाई, पेडणे के चणेकर, रावजी देशप्रभु, संजय वालावलकर, मनोहर पर्रीकर, बाबा आजरेकर, सुभाष देसाई, दिलीप देसाई, दत्ता नाईक, अरविंद नृसिंह नाईक, मडगाँव के प्रकाश कवळकर, कामत, सावर्जी के अरुण गुडे, सुरेश नाईक, सुधीर परब, सावंत पराडकर, दिलीप बतकेकेर, राजेंद्र आर्तकर आदि गोवा के अनेक कार्यकर्ता उनके सान्निध्य, उनके “मैत्री” जोड़ने की कला के कारण ही तैयार हुए थे। मेरे गोवा आने के बाद मैं भी कब उनमें से एक हो गया, यह मुझे भी पता नहीं चला। बेशक उनका कारण एक ही था – हम सभी के मार्गदर्शक दुर्गानंद नाडकर्णी।

हम अपनी नौकरी-व्यवसाय ठीक से करें, इस ओर भी उनका ध्यान रहता था। मैं एक शिक्षक था। शुरुआती दिनों में उन्होंने एक बार सहज भाव से मुझे सुझाव दिया था कि जिस विषय के हम शिक्षक हैं, उसमें हमारी महारत (mastery) होनी चाहिए, तभी विद्यार्थियों का प्रेम मिलेगा। शायद इसीलिए मेरी ओर से ऐसा व्यवस्थित प्रयास हुआ होगा।
… हमारे संसार (पारिवारिक जीवन) में भी व्यवस्थित ध्यान रहता है या नहीं, इसकी भी वे चिंता करते थे। मेरी नई-नई शादी हुई थी। फिर भी मैं संघ कार्य में ही व्यस्त रहता था। सौभाग्य से पत्नी को संघ की थोड़ी-बहुत जानकारी होने के कारण मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। लेकिन घर पर समय न देना थोड़ा अति हो रहा था। एक बार नाडकर्णी जी ने मुझे सुझाव दिया कि हफ्ते में एक शाम पत्नी के साथ घूमने जाया करो। संघ कार्य को जिस घर का आधार मिलता है, उस घर की “भाभी” की भी कितनी चिंता!

बाद के समय में उन्हें संघ के माध्यम से ही महाराष्ट्र प्रांत के “हिंदू एकजुट” इस संगठन का काम मिला। उसे भी उन्होंने आज्ञाकारी भाव से और एक स्वयंसेवक की तरह ही बढ़ाया। उसी के चलते उनका पूरे महाराष्ट्र प्रांत में प्रवास शुरू हुआ। आज भी उनके संपर्क में आए कार्यकर्ता जब मिलते हैं, तो “नाडकर्णी जी का साथ देना” इस विषय पर जरूर बात करते हैं, बताते हैं।
स्वास्थ्य के कारण प्रचारक के रूप में काम बंद करना पड़ा। लेकिन बाद में कारणवश प्रचारक के रूप में रुके। उन्होंने संन्यास दीक्षा ली। उन्होंने ब्रह्मकपाल में स्वयं अपना श्राद्ध भी कर लिया है। वर्तमान में उनका वास्तव्य लातूर शहर में था। बीते दिनों उन्होंने देह छोड़ दी। लेकिन मेरे जैसे अनेक स्वयंसेवक “उन्हीं के कारण मैं स्वयंसेवक, कार्यकर्ता बना” यह ऋण सदैव स्मरण में रखेंगे और इसीलिए उनके आत्मा को सद्गति मिलेगी ही। वैसी सद्गति मिले, यही परमेश्वर के चरणों में प्रार्थना है।
– रत्नाकर गणेश लेले (पणजी)

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Tags: #RashtriyaSwayamsevakSangh #RSS #HinduNationalism #CulturalUnity #IndianHeritage #Seva #Volunteerism #Patriotism

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