| स्वामीजी को मूल रूप से ‘बृहस्पति’ का नाम दिया गया, किन्तु उनके पिता उन्हें मुंशी राम से पुकारते थे और यही नाम उनकी पहचान बन गया और तब तक प्रचलन में रहा जब तक उन्होंने ‘संन्यास’ में दीक्षित होकर स्वामी श्रद्धानन्द नाम नहीं धारण कर लिया। |
स्वामी श्रद्धानंद, जिन्होंने कराई 5 लाख मुस्लिम राजपूतों की हिंदू धर्म में घरवापसी
स्वामी श्रद्धानंद उर्फ लाला मुंशीराम विज का जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष, द्वितीया, 1912 विक्रम संवत्सर तदनुसार 22 फरवरी 1856 को पंजाब प्रांत के जालंधर जिले के तलवन गांव में हुआ था। उनके पिता श्री नानक चंद, ईस्ट इंडिया कंपनी में पुलिस निरीक्षक थे। स्वामीजी को मूल रूप से ‘बृहस्पति’ का नाम दिया गया, किन्तु उनके पिता उन्हें मुंशी राम से पुकारते थे और यही नाम उनकी पहचान बन गया और तब तक प्रचलन में रहा जब तक उन्होंने ‘संन्यास’ में दीक्षित होकर स्वामी श्रद्धानन्द नाम नहीं धारण कर लिया।
उनकी आरंभिक शिक्षा संयुक्त प्रांत के वाराणसी जनपद में शुरू हुई और कानून की परीक्षा पास करने के बाद लाहौर में समाप्त हुई। उनका विवाह श्रीमती शिव देवी से हुआ था। जब वह 35 वर्ष के थे तब उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई और वे अपने पीछे दो बेटे और दो बेटियां छोड़ गई। मुंशी राम ने नायब तहसीलदार के रूप में विधिक सेवा से अपना कार्य आरंभ किया किन्तु उन्होंने थोड़े समय के बाद इस पद को त्याग दिया।

बाद में उन्होंने फिल्लौर और जालंधर में एक अधिवक्ता के रूप में अभ्यास किया किन्तु आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने इस आकर्षक पेशे को भी छोड़ दिया और सनातन धर्म उत्थान तथा राष्ट्र सेवा कार्य से जुड़ गए। वे भारतीय शिक्षा प्रणाली के महान अधिवक्ता और स्वामी दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने वाले आर्य समाज के प्रचारक थे। उनके प्रमुख कार्यों में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थानों की स्थापना, 1920 के दशक में हिंदू सुधार आंदोलन, सनातन हिंदू धर्म के संगठन (समेकन) और शुद्धि (पुनः धर्म वापसी) थे , जिसमें उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसी लक्ष्य पर कार्य करते हुए बलिदान हो गए।
स्वामी दयानंद जब आर्य समाज द्वारा आयोजित एक सभा में व्याख्यान देने बरेली आए तो उन्हें उनसे मिलने का अवसर मिला, क्योंकि उनके पिता एक पुलिस इंस्पेक्टर थे, जो आयोजन की सुरक्षा व्यवस्था संभालने के प्रभारी थे। इस कार्यक्रम में कई प्रमुख हस्तियों और वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों ने हिस्सा लिया था, इसलिए उनके पिता ने उन्हें इस कार्यक्रम में भाग लेने की सलाह दी। नास्तिक होने के कारण वह शुरू में घटना को खराब करने की मंशा से आयोजन में गए लेकिन स्वामी दयानंद के साहस, कौशल और दृढ़ व्यक्तित्व ने उन पर गहरी छाप छोड़ी। इस घटना के बाद वह औपचारिक रूप से आर्य समाज से जुड़ गए।
आर्य समाज शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय था और वैदिक व्यवस्था पर आधारित शिक्षा के भारतीयकरण के लिए दयानंद एंग्लो वैदिक (डीएवी) के नाम से लोकप्रिय कई स्कूल खोले थे। 1892 में डीएवी कॉलेज लाहौर में वैदिक शिक्षा को मुख्य पाठ्यक्रम बनाने के विवाद के बाद आर्य समाज दो गुटों-गुरुकुल गुट और डीएवी गुट के बीच बंट गया। श्रद्धानंद गुरुकुल गुट के समर्थक थे। उन्होंने संगठन छोड़कर पंजाब आर्य समाज का गठन किया। इसी बीच 1897 में जब लाला लेख राम की हत्या हो गई तो श्रद्धानंद ने उनका स्थान लिया। उन्होंने ‘पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा’ का नेतृत्व किया और अपनी मासिक पत्रिका ‘आर्य मुसाफिर’ की शुरुआत की।
वेद , वैदिक जीवन और वैदिक शिक्षा के पुनुरुत्थान में योगदान
जब उन्होंने अपनी ही बेटी वेद कुमारी को ईसाई मिशन संचालित स्कूल में पढ़ते हुए ईसाई धर्म के प्रभाव में आते देखा, तो उन्होंने देश भर के बच्चों को बाहरी संस्कृति के प्रभाव से दूर रखने और प्राचीन वैदिक आदर्शों और राष्ट्रीय दृष्टिकोण से ओतप्रोत अच्छे और अनुशासित नागरिकों का निर्माण करने के लिए संस्थागत प्रयास करने का मन बना लिया। समान विचारधारा वाले भारतीय उनका समर्थन करने के लिए आगे आए और आर्य समाज द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में अच्छी शिक्षा के शैक्षिक अभियान को एक उच्च स्तर तक ले जाने के गर्जनापूर्ण संकल्प का आरंभ किया।
उन्होंने 16 मई 1900 को पश्चिमी पंजाब के गुजरांवाला में पहले गुरुकुल की स्थापना की, जो अब पाकिस्तान में है। स्वामी श्रद्धानन्द उर्फ लाला मुंशीराम ने 35 वर्ष की आयु में वानप्रस्थ आश्रम (जीवन के चार चरणों में से तीसरा चरण, सेवानिवृत्त गृहस्थ) में दीक्षा ली और वे महात्मा मुंशीराम बन गए।
बाद में गुरुकुल को हरिद्वार के निकट कांगड़ी में खोला गया। जिसके पीछे अंतर्निहित विचार प्राचीन वैदिक आदर्शों और राष्ट्रीय दृष्टिकोण से ओतप्रोत समुदाय में अच्छे और अनुशासित नागरिकों का उत्पादन करना था। यह गुरुकुल (प्राचीन भारत में प्रचलित एक आवासीय विद्यालय प्रणाली, जहां जीवन के सभी क्षेत्रों पर शिक्षण, आध्यात्मिक अभ्यास सहित, गुरुओं या संतों द्वारा किया जाता था) प्राचीन भारतीय शिक्षा की पुनर्स्थापना की दिशा में एक अभूतपूर्व प्रयास था।
शुरुआत में उनके पुत्र, हरिश्चंद्र और इंद्र उनके छात्र थे और महात्मा स्वयं आचार्य (शिक्षक) बने। वर्तमान में हजारों छात्र वहां पढ़ रहे हैं और गुरुकुल कांगरी अब एक विश्वविद्यालय है। यह वह संस्था है जिसकी ओर महात्मा गांधी पहली बार दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए आकर्षित हुए थे और जहां वे भारत लौटने पर रहे। यह वह संस्था थी जिसने गांधीजी को ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान की थी। 1962 में भारत सरकार ने गुरुकुल को एक मानद विश्वविद्यालय घोषित किया।
मुंशीराम ने लगातार 15 वर्षों तक गुरुकुल में सेवा की। बाद में वर्ष 1917 में महात्मा मुंशीराम ने संन्यासाश्रम (जीवन के चार चरणों में से अंतिम, अर्थात् एक त्यागी का चरण) में दीक्षा प्राप्त की। दीक्षा समारोह के समय बोलते हुए उन्होंने कहा था कि मैं अपना नया नाम ग्रहण करूंगा। चूँकि मैंने अपना पूरा जीवन वेदों और वैदिक धर्मों का पालन-पोषण करने में लगा दिया है और भविष्य में भी ऐसा ही करता रहूंगा, इसलिए मैं अपना नाम श्रद्धानन्द रख रहा हूँ।
स्वाधीनता संग्राम में स्वामी श्रद्धानन्द की सक्रिय भागीदारी
देश को स्वतंत्र कराने का स्वामी श्रद्धानंद का योगदान अमूल्य था। पंजाब में ‘मार्शल लॉ’ और ‘रॉलेट एक्ट’ भारतीयों पर थोपा गया। उन्होंने कांग्रेस के साथ काम करना शुरू किया, उन्होंने 1919 में अमृतसर में कांग्रेस को अपना सत्र आयोजित करने के लिए आमंत्रित किया। इसके पीछे कारण जलियांवाला हत्याकांड था और कांग्रेस में किसी ने अमृतसर में सत्र आयोजित करने पर सहमति नहीं व्यक्त की। श्रद्धानंद ने सत्र की अध्यक्षता की। दमनकारी ‘रौलेट एक्ट’ के खिलाफ दिल्ली में आंदोलन हुआ। आंदोलन का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द कर रहे थे। तब जुलूस पर प्रतिबंध था। स्वामी जी ने प्रतिबंध को चुनौती देते हुए घोषणा की कि दिल्ली में जुलूस निकाला जाएगा। तदनुसार चांदनी चौक पहुंचने तक हजारों देशभक्त जुलूस में शामिल हो चुके थे। गोरखा रेजीमेंट अंग्रेजों के आदेश पर तोपों, संगीनों आदि के साथ तैयार थी। श्रद्धानंद अपने हजारों अनुयायियों के साथ कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे। जब वे गोली मारने वाले थे तब वह निडर होकर आगे आए और जोर से दहाड़े कि पहले निर्दोष लोगों को मारने से पहले मुझे मार डालो। तुरंत संगीनों को नीचे उतारा गया और वह जुलूस शांतिपूर्वक आगे बढ़ा।
दिल्ली की जामा मस्जिद में वेद मत्रों का पाठ करते हुए भाषण
स्वामी श्रद्धानन्द ने 1922 में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था। उन्होंने सबसे पहले वेद मंत्रों का पाठ किया और प्रेरक भाषण दिया। किसी मुस्लिम सभा में वेद मन्त्रों का पाठ करते हुए भाषण देने का सम्मान स्वामी श्रद्धानन्द को ही प्राप्त हुआ। यह विश्व के इतिहास में एक असाधारण क्षण था।
कांग्रेस छोड़कर हिंदू महासभा में सम्मिलित
जब स्वामी श्रद्धानंद ने स्थिति का ठीक से अध्ययन किया, तो उन्होंने महसूस किया कि कांग्रेस में सम्मिलित होने के बाद भी मुसलमान, मात्र मुसलमान ही रहता है, वे अपनी ‘नमाज’ के लिए कांग्रेस की बैठक को भी रोक सकते हैं। कांग्रेस में हिंदू धर्म अन्याय झेल रहा था। जब उन्हें सच्चाई का पता चला, तो उन्होंने तुरंत कांग्रेस छोड़ दी और मदनमोहन मालवीय की सहायता से ‘हिंदू महासभा’ की स्थापना की।
अछूतोद्धार की दिशा में स्वामी श्रद्धानंद का योगदान
स्वामी श्रद्धानंद ने अछूतों की सहायता करने के लिए कांग्रेस द्वारा श्रद्धानंद की वित्तीय मांगों को पूरा करने से इनकार करने के कारण उन्होंने कांग्रेस की उप-समिति से त्यागपत्र दे दिया था। यह राशि कल्याण कार्यक्रमों के लिए आवश्यक थी। कांग्रेस से त्यागपत्र के बाद, स्वामीजी ने हिंदू महासभा में सम्मिलित होने का निर्णय किया। इस प्रकरण को बाबासाहेब आम्बेडकर की ‘व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स?’ में कुछ इस प्रकार वर्णन किया है:
“क्या यह इसलिए था क्योंकि कांग्रेस की मंशा थी कि यह योजना बहुत साधारण होनी चाहिए जिसकी लागत दो से पांच लाख रुपये से अधिक न हो, लेकिन यह अनुभव किया कि उस दृष्टिकोण से उन्होंने समिति में स्वामी श्रद्धानंद को सम्मिलित करके गलती कर दी थी। स्वामी ने एक बड़ी योजना के साथ उनका सामना करने के लिए कहा जिसे कांग्रेस न तो स्वीकार कर सकती थी और न ही अस्वीकार कर सकती थी? कांग्रेस ने पहली बार में उन्हें संयोजक बनाने से मना करने और बाद में समिति को भंग करने और हिंदू महासभा को काम सौंपने के लिए बेहतर समझा होगा। परिस्थितियाँ इस तरह के निष्कर्ष के बिल्कुल विपरीत नहीं हैं। स्वामी अछूतों के सबसे महान और सबसे निष्ठावान पक्षधर थे। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है कि अगर उन्होंने समिति में काम किया होता तो बहुत बड़ी योजना तैयार करते।”
1925 का वैकोम सत्याग्रह केरल के कोट्टायम के पास वैकोम में शिव मंदिर में केंद्रित था, जहां अछूतों को प्रवेश से वंचित कर दिया गया था। जब स्थानीय कांग्रेसियों और विद्वान हिंदू युवाओं ने इन सामाजिक बाधाओं का विरोध किया और इसके लिए गांधीजी का आशीर्वाद मांगा, तो वे झिझक गए। इसके विपरीत स्वामी श्रद्धानंद ने अभियान को आशीर्वाद देने के लिए त्वरित निर्णय लिया और अपना समर्थन व्यक्त करने के लिए स्वयं वैकोम गए। कोई आश्चर्य नहीं कि डॉ. आम्बेडकर ने स्वामी को ‘अछूतों का सबसे महान और सबसे निष्ठावान’ कहा।
पत्रकारिता के क्षेत्र में योगदान
उन्होंने हिंदी और उर्दू दोनों में धार्मिक मुद्दों पर लिखा था। उन्होंने दो प्रमुख समाचार पत्रों- उर्दू ‘तेज’ और हिंदी ‘अर्जुन’ की भी स्थापना की। उन्होंने देवनगरी लिपि में हिंदी को बढ़ावा दिया, गरीबों की मदद की और महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया।
स्वामी श्रद्धानन्द का धर्मांतरित हिन्दुओं के पुन: धर्म परिवर्तन का महान कार्य
हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की बढ़ती संख्या को रोकने के लिए उन्होंने परिवर्तित हिंदुओं को शुद्ध करने का एक पवित्र अभियान शुरू किया। उन्होने आगरा में एक कार्यालय खोला। आगरा, भरतपुर, मथुरा आदि स्थानों पर कई राजपूत थे जो उस समय इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे; लेकिन वे हिंदू धर्म में वापस आना चाहते थे। 5 लाख राजपूत हिंदू धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार थे। इस अभियान का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द कर रहे थे। उन्होंने इस उद्देश्य के लिए एक विशाल सभा का आयोजन किया और उन राजपूतों को शुद्ध किया। उनके नेतृत्व में कई गांव शुद्ध हुए। इस अभियान ने हिंदुओं में एक नई चेतना, एक नई ऊर्जा और उत्साह पैदा किया और हिंदू संगठनों की संख्या में वृद्धि हुई। कराची से अजगरी बेगम नाम की एक मुस्लिम महिला को हिंदू धर्म में दीक्षित किया गया था। इस घटना से मुसलमानों में कोहराम मच गया और स्वामी जी की विश्व भर में चर्चा हुई।
इस्लाम की प्राणघाती परंपरा का आखेट बने
अब्दुल रशीद नाम का एक मुस्लिम कट्टरपंथी पर 23 दिसंबर 1923 को दिल्ली में स्वामीजी निवास पर पहुंच गया , उस समय स्वामी जी गंभीर निमोनिया के संक्रमण से जूझ रहे थे और बिस्तर में पड़े थे। उसने कहा कि वह स्वामीजी के साथ इस्लाम पर चर्चा करना चाहता है। उसने अपने आप को एक कंबल से ढक रखा था। उसने कंबल के अंदर बंदूक छिपा रखी थी। स्वामी जी की सेवा में लगे श्री धर्मपाल स्वामी जी उनके साथ थे। इसलिए वह कुछ नहीं कर सका। उसने एक गिलास पानी मांगा। उसे पानी पिलाने के बाद जब धर्मपाल गिलास लेकर बाहर गए तो राशिद ने स्वामीजी पर गोलियां चला दीं। धर्मपाल ने राशिद को पकड़ा था। जब तक लोग वहां एकत्रित हुए स्वामी जी जीवित नहीं रहे। राशिद के विरुद्ध कार्रवाई की गई। इस प्रकार स्वामी श्रद्धानन्द इस्लाम की प्राणघाती परंपरा के शिकार हुए; लेकिन उन्होंने वीरगति प्राप्त की और अपने नाम को अमर कर दिया। स्वामी श्रद्धानंद सशरीर भले ही हमारे बीच नहीं हैं किन्तु अपने एक क्रांतिकारी और समाज सुधारक योगदान के लिए वह आने वाली पीढ़ियों की स्मृतियों में सदैव जीवित रहेंगे।
- विचार विनमय न्यास.

