भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में कुछ व्यक्तित्व केवल सत्ता का संचालन नहीं करते, वे राजनीति को नैतिक गरिमा, वैचारिक उजास और मानवीय करुणा से आलोकित कर देते हैं। श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे ही बिरले राष्ट्रपुरुष थे।
25 दिसंबर 1924 को तत्कालीन ग्वालियर रियासत में जन्मे अटलजी का जीवन भारतीय लोकतंत्र की जीवंत चेतना का प्रतीक है। एक साधारण अध्यापक परिवार में पले-बढ़े अटलजी को पिता पं. कृष्ण बिहारी वाजपेयी से साहित्य, अनुशासन और राष्ट्रचिंतन का संस्कार मिला।
छात्र जीवन से ही राष्ट्रभक्ति उनके व्यक्तित्व का मूल तत्व रही। 1939 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और 1947 में पूर्णकालिक प्रचारक बने।
भारत विभाजन की पीड़ा और राष्ट्र के संकट ने उन्हें विधि की पढ़ाई छोड़ने को विवश किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन, आर्य कुमार सभा की सक्रिय भूमिका और उत्तर प्रदेश में प्रचारक जीवन— इन सबने उनके व्यक्तित्व को कर्मठ, विचारशील और राष्ट्रनिष्ठ बनाया।
पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने शब्द को शस्त्र और संवाद को साधना बनाया।
1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना के साथ वे राजनीति में आए। 1957 में बलरामपुर से लोकसभा में प्रवेश, 1962 में राज्यसभा, 1967 में पुनः लोकसभा—और आगे चार दशकों तक संसद में उनकी सक्रिय उपस्थिति भारतीय लोकतंत्र की बौद्धिक गरिमा का पर्याय बनी।
राजनीतिक उतार-चढ़ावों के बीच उनका विश्वास लोकतंत्र, संवाद और राष्ट्रहित में अडिग रहा— जैसा कि उनकी पंक्तियाँ कहती हैं—
“हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में… पीड़ाओं में पलना होगा,
कदम मिलाकर चलना होगा।”

विकास और सुशासन: आर्थिक सुधारों से सामाजिक परिवर्तन तक
अटल बिहारी वाजपेयी का सुशासन-दर्शन व्यक्ति को केंद्र में रखता है। उनका स्पष्ट कथन— “व्यक्ति का सशक्तिकरण ही राष्ट्र का सशक्तिकरण है और सशक्तिकरण का सबसे प्रभावी मार्ग तीव्र आर्थिक विकास के साथ तीव्र सामाजिक परिवर्तन है”— उनकी नीतियों का सूत्रवाक्य रहा।
इसी दृष्टि से उन्होंने अवसंरचना (infrastructure), वित्तीय अनुशासन और बाज़ार-सुधारों को सामाजिक उद्देश्यों से जोड़ा।
स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना ने दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता को जोड़कर भारत की आर्थिक धमनियों को सुदृढ़ किया। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने दूरस्थ गाँवों को हर मौसम में चलने योग्य सड़कों से जोड़कर अवसरों की समान पहुँच सुनिश्चित की— जहाँ नीति काग़ज़ से उतरकर ज़मीन पर दिखी।
राजकोषीय उत्तरदायित्व अधिनियम (FRBM) ने वित्तीय अनुशासन को संस्थागत रूप दिया। निजीकरण और विनिवेश के लिए अलग मंत्रालय बनाकर BALCO, हिंदुस्तान जिंक, IPCL और VSNL जैसे कदम उठाए गए, जिससे दक्षता, प्रतिस्पर्धा और सार्वजनिक संसाधनों का बेहतर उपयोग संभव हुआ।
दूरसंचार क्षेत्र में 1999 की नई टेलिकॉम नीति के अंतर्गत BSNL के एकाधिकार को समाप्त कर प्रतिस्पर्धा लाई गई। सस्ती दरों पर दूरभाष सेवाएँ आम नागरिक तक पहुँचीं। राजस्व-साझेदारी मॉडल, TDSAT की स्थापना और VSNL के पुनर्गठन ने ‘सूचना’ तक समान पहुँच सुनिश्चित की— यही समावेशी सुशासन है। यही नीतियाँ आगे चलकर डिजिटल इंडिया की नींव बनीं।
शिक्षा के क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान (2001) ने 6–14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा को राष्ट्रीय मिशन बनाया। अटलजी की कविता “स्कूल चले हम” ने जन-आंदोलन का रूप लिया और ड्रॉपआउट में उल्लेखनीय कमी आई। शिक्षा को उन्होंने अधिकार और सशक्तिकरण दोनों माना।

राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति में भी यही संतुलन दिखा। 1998 में पोखरण-II परीक्षण के बाद उनका स्पष्ट संदेश था— “हमारी शक्ति आक्रामकता के लिए नहीं, आत्मरक्षा के लिए है।”
अटल बिहारी वाजपेयी जी के कार्यकाल में चंद्रयान-1 परियोजना को स्वीकृति प्रदान की गई।
विदेश नीति में संवाद को संघर्ष पर प्राथमिकता देते हुए दिल्ली–लाहौर बस सेवा, आगरा शिखर वार्ता और “इंसानियत, कश्मीरियत, जम्हूरियत” का मंत्र अपनाया गया। 13 दिसंबर 2001 के संसद हमले के बाद ‘पोटा’ कानून लागू कर 32 आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया। यह निर्णय दर्शाता है कि अटल जी शांति के पक्षधर अवश्य थे, पर राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई समझौता नहीं करते थे — शांति के साथ सुरक्षा, यही सुशासन का संतुलन है।

महिला सशक्तिकरण: समानता, गरिमा और अवसर
अटल बिहारी वाजपेयी जी के शासन में महिला सशक्तिकरण कोई परिशिष्ट नहीं, बल्कि केंद्रीय नीति-धारा (Central Policy Framework) रहा। उनका प्रसिद्ध कथन— “जब महिलाएँ आधा आकाश संभालती हैं, तो उन्हें राजनीतिक भूमि का एक-तिहाई अधिकार क्यों न मिले?”— यह दृष्टि स्पष्ट करती है कि महिला सशक्तिकरण को अटल बिहारी वाजपेयी जी ने लोकतंत्र और सुशासन की बुनियादी शर्त माना।
पंचायती राज संस्थाओं में महिला आरक्षण से लेकर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु महिला आरक्षण विधेयक के निरंतर प्रयास इसी सोच के प्रतीक थे।
जेंडर बजटिंग के माध्यम से पहली बार बजट को लैंगिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया, जिससे नीतियों और व्यय के प्रभाव का समानता के आधार पर आकलन संभव हुआ।
राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति (2001), महिला समृद्धि योजना, स्वयं सिद्धा, स्वशक्ति और स्वधार गृह योजना (2002) ने शिक्षा, कौशल, वित्त, आश्रय और गरिमा को समग्र रूप से संबोधित किया।
अटल जी का विश्वास था कि आधुनिक समाज महिलाओं को सीमित नहीं, सशक्त करता है— और यही सुशासन का नैतिक आधार है।

अमृतकाल में सुशासन की अविरल धारा
25 दिसंबर— अटल बिहारी वाजपेयी जी की जन्मतिथि— सुशासन दिवस के रूप में मनाई जाती है। यह उनके शासन-दर्शन का राष्ट्रीय आदर्शीकरण है, जहाँ सत्ता सेवा बनती है। मनुष्य की अंतर्व्यथा को वे गहराई से समझते थे; उनकी कविता की पंक्तियाँ कहती हैं—
“पृथ्वी पर मनुष्य ही ऐसा एक प्राणी है, जो भीड़ में अकेला और अकेले में भीड़ से घिरा अनुभव करता है”
— इसलिए शासन का लक्ष्य मानवीय गरिमा की रक्षा होना चाहिए।
2014 से प्रारंभ हुआ सुशासन दिवस (Good Governance Day) तथा 19–25 दिसंबर तक मनाया जाने वाला सुशासन सप्ताह — पारदर्शिता (Transparency), जवाबदेही (Accountability) और नागरिक-केंद्रित प्रशासन (Citizen-Centric Governance) को सुदृढ़ करते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में— “अच्छे इरादों के साथ अच्छा शासन हमारी सरकार की पहचान है और ईमानदार क्रियान्वयन हमारा संकल्प।”
“प्रशासन गाँव की ओर” अभियान, डिजिटल सेवा वितरण, लोक शिकायत निवारण, जल जीवन मिशन, आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री आवास योजना, किसान सम्मान निधि, मुद्रा योजना, बेटी बचाओ–बेटी पढ़ाओ और उज्ज्वला— ये सभी अटलजी की सुशासन-चेतना का आधुनिक विस्तार हैं।
जल जीवन मिशन ने विशेषकर महिलाओं को जल ढोने की विवशता से मुक्त कर जीवन-गुणवत्ता में क्रांतिकारी सुधार किया— यह आधुनिक ‘राजधर्म’ का सजीव उदाहरण है।
यह वही चेतना है, जिसे अटल जी अपनी कविता में कहते हैं..
“अन्तरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ;
आओ फिर से दिया जलाएँ।“
वरिष्ठ सांसद के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी जी चार दशकों तक सक्रिय रहे; लोकसभा में नौ और राज्यसभा में दो बार निर्वाचित होना, उनकी लोकतांत्रिक स्वीकार्यता का प्रमाण है। उनके अद्वितीय राष्ट्रसेवा, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा और दूरदर्शी नेतृत्व के सम्मान में उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किया गया, जो राष्ट्र द्वारा उनके योगदान की सर्वोच्च स्वीकृति है।
16 अगस्त 2018 को उनके महाप्रयाण के साथ एक नैतिक, काव्यात्मक और संवादशील युग का अवसान हुआ। वे केवल प्रधानमंत्री नहीं थे— वे विचार थे, कविता थे और सुशासन की जीवंत चेतना थे। उनका समूचा जीवन स्वयं उद्घोष करता है—
“मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?”
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत उसी चेतना को आगे बढ़ाते हुए अमृतकाल में प्रवेश कर रहा है— जहाँ सुशासन केवल नीति नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संस्कार बन चुका है। यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है और यही भारतीय लोकतंत्र का पाथेय और यही श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी को सच्ची, वैचारिक और कालजयी श्रद्धांजलि है।
– डॉ. शिवानी कटारा

