| “एक राष्ट्र, एक चुनाव” पर होने वाली बहस प्रायः संवैधानिक या आर्थिक दृष्टि तक सीमित रह जाती है, जबकि इसका एक गहरा मानवीय और लैंगिक पक्ष भी है, जिस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। |
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया नहीं, बल्कि जनभागीदारी का उत्सव माने जाते हैं। किंतु पिछले कुछ दशकों में चुनावों की निरंतरता ने देश को लगभग स्थायी ‘चुनाव मोड’ में धकेल दिया है। लोकसभा, विधानसभा, पंचायत और नगर निकायों के अलग-अलग चुनाव न केवल प्रशासनिक संसाधनों पर भारी दबाव डालते हैं, बल्कि सामाजिक जीवन की निरंतरता को भी बाधित करते हैं। इस व्यवस्था का सबसे गहरा और प्रायः अदृश्य प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है—विशेषकर उन महिलाओं पर, जो शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण जैसी बुनियादी सेवाओं की आधारशिला हैं।
यह तथ्य स्मरणीय है कि 1951-52 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। राजनीतिक अस्थिरता और समयपूर्व भंग के कारण यह व्यवस्था टूट गई। आज, जब लोकतंत्र अधिक परिपक्व हो चुका है, उसी समन्वय को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता और भी प्रासंगिक हो गई है।

शिक्षण संस्थानों से लेकर ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों तक एक मौन चुनौती निरंतर बनी हुई है—बार-बार होने वाले चुनाव। एक शिक्षाविद् और प्रशासक के रूप में मैंने देखा है कि लोकतंत्र का यह उत्सव अनजाने में उन महिलाओं पर अतिरिक्त बोझ डाल देता है, जो देश की बुनियादी सेवाओं को निरंतर संचालित करती हैं।
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” पर होने वाली बहस प्रायः संवैधानिक या आर्थिक दृष्टि तक सीमित रह जाती है, जबकि इसका एक गहरा मानवीय और लैंगिक पक्ष भी है, जिस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
भारत में प्राथमिक विद्यालयों की अधिकांश शिक्षिकाएँ महिलाएँ हैं। आंगनवाड़ी, आशा और स्वास्थ्य कार्यकर्ता तो लगभग पूरी तरह महिला-आधारित कैडर हैं—देशभर में लगभग 10 लाख आशा कार्यकर्ताएँ कार्यरत हैं। बच्चों की शिक्षा, गर्भवती माताओं की देखभाल, टीकाकरण और पोषण कार्यक्रमों की जिम्मेदारी इन्हीं पर है। किंतु बार-बार होने वाले चुनाव इन्हें उनके मूल दायित्वों से दूर कर देते हैं। मतदाता सूची अद्यतन, प्रशिक्षण और मतदान ड्यूटी का भार इन्हीं पर आ पड़ता है।

परिणामस्वरूप विद्यालयों में पढ़ाई बाधित होती है, आंगनवाड़ी केंद्रों पर पोषण वितरण प्रभावित होता है और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएँ कमजोर पड़ जाती हैं। जब एक शिक्षिका चुनाव ड्यूटी पर होती है, तो कक्षा अपने मार्गदर्शक से वंचित रह जाती है। जब आशा कार्यकर्ता चुनाव प्रबंधन में लगी होती है, तो गाँव की गर्भवती महिला अपने सबसे भरोसेमंद सहायक से वंचित हो जाती है। यह नुकसान किसी सरकारी आँकड़े में दर्ज नहीं होता, किंतु इसका प्रभाव समाज और पीढ़ियों पर पड़ता है।
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” की अवधारणा इस समस्या का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करती है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति ने मार्च 2024 में अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश की। सितंबर 2024 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इन सिफारिशों को स्वीकार किया और दिसंबर 2024 में संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। वर्तमान में यह संयुक्त संसदीय समिति के विचाराधीन है। विशेषज्ञों के अनुसार, इसके पूर्ण कार्यान्वयन में समय लगेगा, किंतु दिशा स्पष्ट है।
महिलाओं के दृष्टिकोण से यह सुधार केवल प्रशासनिक सुविधा नहीं, बल्कि सामाजिक और लैंगिक न्याय का माध्यम है। चुनाव एक साथ होने से लाखों महिलाओं को हजारों कार्य-घंटे वापस मिलेंगे—वे घंटे जो शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और परिवार के कल्याण के लिए समर्पित किए जा सकते हैं।
लगातार चुनावों के कारण आदर्श आचार संहिता लागू होती है, जिससे विकास कार्य रुक जाते हैं और योजनाएँ ठप पड़ जाती हैं। महिलाओं के लिए यह ठहराव केवल असुविधा नहीं, बल्कि सुरक्षा और जीवन-सुविधाओं से जुड़ा प्रश्न है। बेहतर सड़कें, स्ट्रीट लाइटिंग, सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन, महिला शौचालय और सुलभ स्वास्थ्य सेवाएँ तभी संभव हैं, जब शासन निरंतर विकास के मोड में कार्य कर सके।
चुनावी माहौल समाज में तनाव और ध्रुवीकरण भी बढ़ाता है, जिसका सीधा प्रभाव परिवार और कार्यस्थलों पर पड़ता है। एकीकृत चुनाव प्रणाली से राजनीतिक गतिविधियाँ सीमित अवधि में सिमटेंगी, शेष समय विकास और सामाजिक संतुलन के लिए उपलब्ध रहेगा। हाल के वर्षों में महिला मतदाताओं की भागीदारी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है, किंतु प्रतिनिधित्व अब भी अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँचा है। स्थिर शासन महिला नेतृत्व को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
निस्संदेह, “एक राष्ट्र, एक चुनाव” को लागू करना आसान नहीं है। इसके लिए संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन और संघीय संतुलन पर व्यापक विमर्श आवश्यक है। किंतु इसके लाभ—प्रशासनिक दक्षता, आर्थिक बचत और सामाजिक स्थिरता—इन चुनौतियों से कहीं अधिक व्यापक हैं।
महिलाओं के संदर्भ में यह पहल केवल चुनावी सुधार नहीं, बल्कि समय, सम्मान और स्थिरता की गारंटी है। यदि इसे लोकतांत्रिक भावना और संवैधानिक संतुलन के साथ लागू किया गया, तो यह भारत की आधी आबादी को वास्तविक अर्थों में सशक्त बनाने की दिशा में एक निर्णायक कदम सिद्ध हो सकता है।
- प्रो. रूवी मिश्रा

