| बॉलिवुड का एक काल ऐसा भी था जब प्रसिद्ध होने के लिए मुस्लिम अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और फिल्म इंडस्ट्री के अन्य कई लोगों को हिंदू नाम रखने पड़े थे। दिलीप कुमार, मधुबाला, मीनाकुमारी जैसे कई नाम इस सूची में शमिल हैं। अमूमन सिगार-सिगरेट के धूएं का छल्ला उड़ाते या शराब पीते हुए फिल्म के विलेन ही होते थे जो दर्शकों के मन में व्यक्ति की नकारात्मक छवि बनाने का जरिया होते थे। फिर बॉलिवुड में डी कम्पनी के पैसे और खान बंधुओं की एंट्री के बाद हिंदू इकोसिस्टम को गहरा आघात लगने लगा। गंगा-जमुनी तहजीब की आड़ में कैसे धीरे-धीरे मजहबी बातें हावी होने लगीं, और सिगरेट शराब का सेवन कब आम हों गया दर्शकों को पता ही नहीं चला. |
धुरंधर की चर्चा इसकी रिलीज के पहले ही शुरू हो चुकी थी। अलग-अलग समीक्षकों ने इसके अलग-अलग आयाम देखे। रिलीज के बाद बॉक्स ऑफिस का कलेक्शन, अभिनेताओं का अभिनय, पटकथा का मजबूत, किंतु लम्बा होना आदि, आदि…। इसके कुछ दिन पहले हक फिल्म रिलीज हुई थी। उसमें शाहबानो केस का आधार लेते हुए तीन तलाक और मुस्लिम महिलाओं के हक की बात की गई है। इसके पहले मुस्लिम आतंकवादियों से लड़ने वाले हमारे रॉ एजेंट, सेना के जवान इत्यादि लोगों पर वास्तविक या काल्पनिक कथानकों का आधार लेकर फिल्में बनाई गईं।
बॉलिवुड का एक काल ऐसा भी था जब प्रसिद्ध होने के लिए और आम लोगों में अपनी छवि बनाने के लिए मुस्लिम अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और फिल्म इंडस्ट्री के अन्य कई लोगों को हिंदू नाम रखने पड़े थे। दिलीप कुमार, मधुबाला, मीनाकुमारी जैसे कई नाम इस सूची में शमिल हैं। पटकथा में नायक या नायिका पर कोई संकट आता तो उन्हें मंदिर या भगवान की शरण में जाता दिखाया जाता था। परिवार के बड़े बुजुर्गों के पैर छूना, घरों-बंगलों के बाहर तुलसी का पौधा होना जैसे हिंदू संकेत स्पष्ट रूप से देखे जाते थे।

अमूमन सिगार-सिगरेट के धूएं का छल्ला उड़ाते या शराब पीते हुए फिल्म के विलेन ही होते थे जो दर्शकों के मन में व्यक्ति की नकारात्मक छवि बनाने का जरिया होते थे। फिल्म के गानों में कोई भजन या देशभक्ति गीत अवश्य होता था। टी सीरीज के गुलशन कुमार की हत्या तक यह सिलसिला यथावत चलता रहा। गुलशन कुमार ने तो प्राइवेट भजन एलबम को भी काफी प्रोत्साहित किया था। हिंदू मंत्रों, जापों को सुरों से सजाकर लोगों तक पहुंचाने में उनकी बड़ी भूमिका रही। इस हिंदू बॉलिवुड इकोसिस्टम से निकली फिल्में न केवल दर्शकों का मनोरंजन करती थीं अपितु उन्हें भारतीय जीवन मूल्यों का परिचय करवाती थीं। परिश्रम करके अपनी पहचान बनाने वाला नायक लोगों के सामने वास्तव में एक आदर्श होता था।
फिर बॉलिवुड में डी कम्पनी के पैसे और खान बंधुओं की एंट्री के बाद हिंदू इकोसिस्टम को गहरा आघात लगने लगा। गंगा-जमुनी तहजीब की आड़ में कैसे धीरे-धीरे मजहबी बातें हावी होने लगीं, दर्शकों को पता ही नहीं चला। निर्माता और फिल्म से जुड़े लोग ये कहकर आगे बढ़ते रहे कि हम तो वही दिखाते हैं जो समाज में घटित हो रहा है, जबकि सच्चाई तो यह थी कि वे लोग वह दिखा रहे थे जो वे समाज में करवाना चाह रहे थे। एक निश्चित रोडमैप तैयार करके बॉलिवुड को मजहबी रंग में रंगा जा रहा था, परंतु मनोरंजन के उद्देश्य से फिल्म देखने वाले दर्शक इस गहरी चाल को समझ नहीं पाए। साईं बाबा के सामने अकबर इलाहाबादी की कव्वाली के कमाल से एक नेत्रहीन वृद्धा के आंखों की ज्योति लौटने को लोगों ने बाबा का चमत्कार मान लिया।
बॉलिवुड का महानायक अपने किसी पूर्वाग्रह के कारण मंदिर नहीं जाता, भगवान को नहीं मानता, परंतु जब उसके सीने पर गोली लगती है तो उसकी जेब में 786 नम्बर का बिल्ला होता है जो उसकी जान बचाता है। नायक या नायिका की संकट की स्थिति में उसकी सहायता करने वाला निश्चित ही मुस्लिम नाम वाला व्यक्ति होता है। प्रेमी-प्रमिका के प्रणय गीतों में तब तक भाव ही नहीं आता, जब तक उसमें उर्दू शब्दों की भरमार न हो, भले ही वह दर्शकों को समझें या न समझें। इनके जैसे अन्य ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे जो बॉलिवुड के परिवर्तित इकोसिस्टम की झलक दिखाएंगे।

इसका परिणाम यह हुआ कि जिस भारतीय सिनेमा ने अपने जीवन मूल्यों को संजोया था, वह अब उन्हें नीचा दिखाने लगा। दर्शकों के आदर्शों में परिवर्तन होने लगा। धीरे-धीरे एक मजहबी बड़प्पन और अच्छाई की पट्टी दर्शकों की आंखों पर बांध दी गई। जब दर्शकों ने इन सबको पचा लिया, इसका विरोध नहीं किया तो इस इकोसिस्टम ने अपनी पैठ बना ली। अब दर्शक वास्तविकता से कोसों दूर होते गए और ऐसे मुद्दों से परहेज करने लगे जो उन्हें जमीनी सच्चाई से अवगत कराए। इसलिए मुस्लिम आतंकवाद, कश्मीर में हिंदुओं का हाल, कन्वर्जन, लव जिहाद आदि मुद्दों पर वास्तविकतापूर्ण फिल्में बनाने का साहस किसी ने नहीं किया।

आज भी यह इकोसिस्टम पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है, परंतु समाज जाग्रत हो रहा है। उसे ‘रील’ और ‘रियल’ का अंतर समझ में आने लगा है। रील पर दिखने वाला मासूम और सहायक मुस्लिम समाज रियल में कितना भयानक है, इसका अनुभव लोग स्वयं कर रहे हैं। भारतीय सेना और जासूसों के प्रति लोगों के मन में आदर की भावना निर्माण होने लगी है।
उनकी देशभक्ति और साहस देखकर युवा प्रेरित होने लगे हैं। अत: अब इस पृष्ठभूमि की फिल्में भी स्वीकार्य होने लगी हैं। पिछले कुछ वर्षों में आई ऊरी, बेबी, हॉलिडे, कश्मीर फाईल्स, केरला स्टोरी, केसरी, छावा जैसी फिल्मों ने भारतीय उच्च पराक्रम के या ऐसे संवेदनशील मुद्दों को छुआ है जिन्हें इतने वर्षों तक सिरे से नकारा जाता था या काल्पनिक कहा जाने लगा था।
वर्तमान में लोग अपने सही इतिहास को जानने के इच्छुक हैं। वे अपने असली ‘हीरोज’ को समझना चाहते हैं। इतिहास की उन घटनाओं को देखना चाहते हैं, जिन्होंने भारतीय समाज के मन पर कभी भी न भर सकने वाले घाव दिए हैं। वे वर्तमान में भारत और भारतीय समाज के सामने की समस्याओं से अवगत होना चाहते हैं और चूंकि इन सब जानकारियों को लोगों तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम फिल्में हैं, अत: अब सम्पूर्ण मनोरंजन जगत का यह कर्तव्य है कि भारतीय समाज की इस इच्छा की पूर्ति बिना किसी लाग लपेट और बिना किसी पूर्वाग्रह के करें।
साथ ही अब मनोरंजन जगत केवल बॉलिवुड तक सीमित नहीं है। सोशल मीडिया और ओटीटी भी एक महत्वपूर्ण माध्यम बन चुका है, अत: उन्हें भी यह ध्यान रखना चाहिए कि दर्शकों की आंखों पर मजहबी पट्टी बांधनें की जो गलती बॉलिवुड कर चुका है और उसका दुष्परिणाम भी भुगत चुका है, वह गलती वे न दोहराएं। अब मनोरंजन जगत को वह दिखाना होगा जो दर्शक देखना चाहते हैं, तभी वे सफल हो सकेंगे।
