कांग्रेस को मिली संजीवनी

कांग्रेस को एकदम ’जीत गए, जीत गए’ के मोड में नहीं आ जाना चाहिए और यह भी मानने की ज़रूरत नहीं है कि तीन राज्यों की ही तरह दूसरी जगहों पर भी लोग भाजपा से निराश होंगे और कांग्रेस को जीत दिला देंगे। इसी तरह, भाजपा को भी यह नहीं मानना चाहिए कि लोग तो 2019 में मोदीजी को जिता ही देंगे।

11दिसम्बर को 5 राज्यों के विधान सभा चुनाव परिणामों के बाद एक ओर जहां लगातार जीत का इतिहास रच रही भाजपा के विजय रथ के पहिये थम गए, वहीं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 वर्षों से राजनैतिक वनवास झेल रही कांग्रेस सत्तासीन होने में सफल रही। मध्यप्रदेश में लगातार तेरह वर्ष से मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान एवं 15 वर्षों से छत्तीसगढ़ में सत्ता की बागडोर संभाल रहे डॉ. रमन सिंह का जादू खत्म होता दिख रहा है। मध्यप्रदेश में 114 सीट लेकर कांग्रेस के कमलनाथ ने 4 निर्दलीय सदस्यों और बसपा सपा के सहयोग से सरकार बनाने में सफल रहे, वहीं छत्तीसगढ़ में पूर्ण बहुमत के साथ भूपेश बघेल सत्ता की बागडोर संभाल रहे हैं। राजस्थान में एक बार फिर अशोक गहलोत सरकार बनाने में सफल रहे।

2014 में केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद पांच राज्यों के हालिया विधान सभा चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे सुखद नतीजे लेकर आए हैं। इन नतीजों की वजह से वह 2019 के लोकसभा चुनावों के तकरीबन छह महीने पहले एक ऐसी पार्टी के तौर पर दिखने लगी है जो केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरी टक्कर दे सकती है।

पूर्वोत्तर के मिजोरम में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई। लेकिन जिस छत्तीसगढ़ में उसकी स्थिति सबसे कमजोर मानी जा रही थी, वहां उसे जबर्दस्त कामयाबी मिली। राजस्थान में कांग्रेस को जितनी बड़ी जीत की उम्मीद थी, उतनी बड़ी तो नहीं मिली, लेकिन सरकार बनाने भर सीटें मिल गईं। मध्यप्रदेश के कड़े मुकाबले में भी अंतिम बाजी कांग्रेस के हाथ ही रही। इन चुनावों में कांग्रेस ने जहां मिजोरम में अपनी सरकार गंवाई, वहीं तीन राज्यों में उसने भाजपा को सत्ता से बेदखल करके अपनी सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की। जानकारों के मुताबिक इन चुनावी नतीजों से कांग्रेस पांच मोटे सबक ले सकती है।

हालिया चुनावी नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि अगर जनता के सामने मजबूत विकल्प हो तो वह बदलाव के पक्ष में है। जिन राज्यों में भी कांग्रेस पार्टी सत्ताधारी पक्ष का मुकाबला मजबूती से करती दिखी और जहां एक मजबूत विकल्प पेश किया गया, वहां उसका प्रदर्शन ठीक रहा। छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश इसका उदाहरण है। लेकिन जहां कांग्रेस विकल्प मुहैया कराने की स्थिति में नहीं दिखी, वहां जनता ने उसे खारिज कर दिया। तेलंगाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। 2014 के चुनावों में अकेले लड़ने के बावजूद जितनी सीटें कांग्रेस को मिली थीं, उतनी सीटें उसे इस बार टीडीपी के साथ गठबंधन में लड़ने के बावजूद नहीं मिलीं। जनता के बदलाव के पक्ष में होने से यह स्पष्ट है कि अगर कांग्रेस को आने वाले लोकसभा चुनावों में और कई राज्यों के विधान सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा से मुकाबला करना है तो उसे खुद को जनता के सामने एक मजबूत विकल्प के तौर पर पेश करना होगा।

इन चुनावी नतीजों का कांग्रेस के लिए एक सबक यह भी है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में धीरे-धीरे लोगों का विश्वास बढ़ रहा है। पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी की अपनी गलतियों और भाजपा की प्रचार मशीनरी के आक्रामक हमलों की वजह से उनकी छवि काफी खराब हो गई थी। एक ऐसा माहौल बना था जिसमें लोग राहुल गांधी को नेतृत्व की भूमिका में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी ऐसा माहौल बनने लगा था। लेकिन पिछले साल हुए गुजरात विधान सभा चुनाव, इस साल हुए कर्नाटक विधान सभा चुनाव और अब पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में राहुल गांधी ने जिस तरह का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी को दिया है, उससे उनके नेतृत्व में न सिर्फ पार्टी नेताओं का विश्वास बढ़ेगा बल्कि आम लोग भी उन पर अधिक भरोसा कर पाने की स्थिति में रहेंगे। डीएमके की ओर से 2019 में प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी का नाम आगे किया जाना यह दिखाता है कि राहुल गांधी में सहयोगी दलों का भी विश्वास बढ़ रहा है। ऐसे में कांग्रेस को राहुल की सफल नेतृत्वकर्ता की छवि को आम लोगों के बीच ठीक से प्रचारित करने की प्रभावी रणनीति बनानी होगी।

ऐसा माना गया था कि कर्नाटक में अपनी साख खो चुके भाजपा के ’चाणक्य’ पांच राज्यों की विधान सभा चुनावों में पहले की तरह ही उभर के आएंगे। तीन राज्यों में चुनावी हार के बाद रा़फेल के मुद्दे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले अमित शाह ने चुनाव परिणाम पर कुछ नहीं कहा। उन्होंने कहा कि वह चुनाव परिणाम पर अगले दो दिनों में प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे जिसमें हार की वजहों के बारे में कहा जाएगा।

हालांकि, इन नतीजों से भाजपा प्रमुख अमित शाह की ’चाणक्य बुद्धि’ को लेकर लोगों की अपेक्षा ग़लत साबित हुई।

अन्य राज्यों की ही तरह इन राज्यों में भी कई अनुमानों में भाजपा की हार का अंदेशा जताया गया था जो वाकई सच हो गया।

अमित शाह की रणनीतियों में वह बात थी जिसका न केवल प्रधानमंत्री और भाजपा के समर्थक बल्कि राजनीति के दिग्गज भी लोहा मानते थे।

गुजरात विधानसभा के चुनाव के दौरान भाजपा को काफ़ी मेहनत करनी पड़ी थी। फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी वहां आकर चुनाव प्रचार की कमान संभालनी पड़ी, हर दांव खेला गया, तब जाकर बहुत ही कम अंतर से भाजपा को जीत मिली थी। उसके पहले कश्मीर में अकेले सरकार बनाने का अमित शाह का मिशन विफल रहा था और बाद में वहां महबूबा मुफ़्ती के साथ सत्ता में साझेदारी करनी पड़ी।

कर्नाटक में दांव-पेंच और तिकड़म से भी भाजपा की सरकार नहीं बन सकी, तब अमित शाह की नहीं हारने वाली साख पर पहली बार पैबंद लगा था। अब पांच राज्यों के नतीजे आने के बाद, उनकी अजेय छवि में गिरावट आई है। नतीजों के बाद हार-जीत के कारण देना आसान है। स्थानीय मुद्दे, सत्ता विरोधी रुख़, स्थानीय नेताओं का दबदबा, उम्मीदवारों के चुनाव में मोदी-शाह के बदले स्थानीय नेताओं की सूची को अहमियत देना, इन मुद्दों को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा की हार के लिए अहम माना जा सकता है। बहुत हद तक ये सच भी है। पर ये सब वे वजहें हैं जो चुनाव के पहले से मौजूद थीं।

इन सबके ऊपर अमित शाह के नेतृत्व पर विश्वास करते हुए इन राज्यों में भाजपा के उज्ज्वल भविष्य की आशा की जा रही थी। स्थानीय कारणों के आंशिक असर हो सकते हैं लेकिन एक भरोसा यह भी था कि ’आख़िर अमित शाह तो हैं। कई भाजपाई गुटों और सोशल मीडिया में ऐसी बातें चल रही थीं कि सीटें भले ही कम हो जाएं लेकिन अमित शाह हार के मुंह से भाजपा को जीत दिला देंगे। अमित शाह भाजपा का वह सिक्का हैं जो हर बाज़ार में चल जाता है लेकिन इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने उनका ’आंशिक डिमोनेटाइज़ेशन’ कर दिया है।

चुनावी नतीजों से कांग्रेस की नई पारी शुरू हुई है, उससे ज़्यादा ज़रूरी यह है कि मोदी-शाह की संयुक्त परियोजना ’कांग्रेस मुक्त भारत’ का पतन शुरू हो गया है। कांग्रेस को एकदम ’जीत गए, जीत गए’ के मोड में नहीं आ जाना चाहिए और ये भी मानने की ज़रूरत नहीं है कि तीन राज्यों की ही तरह दूसरी जगहों पर भी लोग भाजपा से निराश होंगे और कांग्रेस को जीत दिला देंगे।

इसी तरह, भाजपा के पास ऐसा मानने का कारण नहीं है कि जो भी नतीजे आए, 2019 में तो लोग मोदी को ही जिताएंगे। इन नतीजों ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को चिंतन मनन को मजबूर कर दिया है।

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