आरक्षण नीति के पीछे जो सामाजिक न्याय की कल्पना है उसका यदि आदर करना है तो न केवल ओबीसी के लिए ‘क्रीमी लेयर’ की शर्त बरकरार रहनी चाहिए बल्कि अनुसूचित जाति-जनजाति हेतु भी उसे तत्काल लागू करना चाहिए।
30नवम्बर 2018 को महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा हस्ताक्षर किए जाने के बाद मराठा आरक्षण विधेयक कानून में परिवर्तित हो गया। जैसी कि अपेक्षा थी, उसके बाद धनगर एवं मुस्लिम समाज ने भी आरक्षण हेतु जोरदार आंदोलन करने की मंशा जाहिर की। यह सब अपेक्षित ही था। इतना ही नहीं अब गुजरात में पाटीदार एवं हरियाणा में जाट आंदोलन भड़कने का भी खतरा है।
मराठा आरक्षण कानून को बारीकी से पढ़ने के बाद यह ध्यान में आता है कि इस कानून की कुछ धाराएं अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जिनकी विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए। इसमें एक अति-महत्वपूर्ण धारा है, राज्य के शासकीय एवं अर्धशासकीय पदों के साथ ही शासन से विविध प्रकार की आर्थिक सहायता लेने वाले निजी उपक्रमों पर भी यह कानून लागू होगा। उपक्रमों तथा आस्थापनाओं को कुछ रियायतें देते समय या करार (Contract) का नवीनीकरण करते समय, मराठा आरक्षण लागू करने की शर्त डालने की व्यवस्था की गई है।
इसके अलावा सरकारी हिस्से वाले शक्कर कारखाने, बैंक, मिलें एवं सहकारी संस्थाओं में मराठा आरक्षण लागू होगा। शिक्षा क्षेत्र का यदि विचार करें तो इस कानून के दायरे में स्वायत्त विश्वविद्यालयों, निजी विश्वविद्यालयों में छात्रों का प्रवेश एवं इन आस्थापनाओं में कर्मचारियों की भरती भी शामिल है।
“निजी क्षेत्र में आरक्षण” पुराना मुद्दा है। परंतु विगत कुछ वर्षों में उसकी अधिक चर्चा नहीं हो रही थी। सन् 1991 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने अर्थव्यवस्था को मुक्त कर दिया। इसका एक महत्वपूर्ण पडाव था निजीकरण। जो सरकारी उद्योग घाटे में चल रहे थे उन्हें निजी हाथों में बेच दिया गया। इस नई आर्थिक नीति का दूसरा परिणाम था नई सरकारी कंपनियां बनाने को त्वरित प्रभाव से बंद कर दिया गया। इसका सीधा असर पड़ा सरकारी नौकरियों पर। नई सरकारी नौकरियां निकलना बंद हो गईं। अत: केवल आरक्षण के कारण ही जिस सामाजिक वर्ग को नौकरियां मिलती थीं वे मिलनी बंद हो गईं। तब से निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग रामविलास पासवान एवं नितीश कुमार इत्यादि नेता कर रहे हैं।
इसमें कुछ गंभीर मुद्दे शामिल हैं। भारत में जिसे निजी क्षेत्र कहते हैं वह पूर्ण रूप से निजी नहीं है। भारत की प्रत्येक निजी कंपनी में, उद्योग समूह में भारी मात्रा में सरकारी पैसा लगा होता है। यह निवेश कभी स्टेट-बैंक, कैनरा बैंक जैसे सरकारी बैंकों के माध्यम से होता है, तो कभी एलआईसी या साधारण बीमा कंपनियों के माध्यम से होता है। एक अनुमान है कि भारत की अनेक निजी कंपनियों में सरकारी निवेश 40% के आसपास होता है एवं कथित उद्योग के मालिक का 10% भी नहीं होता। उदाहरण ही देना हो तो टाटा उद्योग समूह का दे सकते हैं। इस उद्योग समूह की सबसे बड़ी कंपनी जमशेदपुर की ‘टाटा आयरन एन्ड स्टील कंपनी’ (टिस्को) है। आपको विश्वास नहीं होगा पर इस कंपनी में टाटा की केवल चार प्रतिशत पूंजी लगी है। शेष 96.1 भारत भर में फैले छोटे निवेशकों के हैं। इसमें सरकारी कंपनियों तथा बैंकों द्वारा किए गए निवेश शामिल हैं। संक्षेप में जिस कंपनी में टाटा का निवेश मात्र 4% है वह कंपनी टाटा की कैसे हुई? अन्य उद्योग समूहों की भी तकरीबन यही स्थिति है।
अब फडणवीस सरकार द्वारा बनाए गए मराठा आरक्षण कानून की धाराओं को ध्यान से देखें तो ध्यान में आएगा कि जिन आस्थापनों को सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है, उन्हें कर्मचारियों की भरती के समय आरक्षण का प्रावधान रखना ही होगा। इस प्रकार की व्यवस्था क्रांतिकारी साबित हो सकती है। वैश्वीकरण के बाद के आंकड़ेे देखने से यह साफ दिखाई देता है कि सरकारी नौकरियों में कमी आ रही है। सन् 2006 से 2012 के बीच के आंकड़ों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि इस दौरान सरकारी नौकरियों का आंकड़ा 17.5 करोड़ पर ही अटका है; वहीं इसी दौरान निजी क्षेत्र में नौकरियों की संख्या 88 लाख से बढ़कर 1.2 करोड़ तक पहुंच गई है। भविष्य में भी यही चित्र रहेगा। जिस मात्रा में 1970,1980,1990 के दशक में सरकारी नौकरियों में भरती होती थी, वह संख्या अब बहुत कम हो गई है। एक नीति के रूप में अब सरकार अर्थव्यवस्था के अनेक क्षेत्रों से पीछे हट रही है। ऐसी स्थिति में सरकारी क्षेत्र में नौकरियां और कम होती जाएंगी।
निजी क्षेत्र में आरक्षण के साथ ही वर्तमान में जो आरक्षण दिया जा रहा है उसकी समय-समय पर समीक्षा की जाना भी आवश्यक है। इससे यह पता चलेगा कि वह समाज के उन घटकों तक पहुंच रहा है या नहीं जिसकी उन्हें वास्तविक आवश्यकता है। इस आरक्षण का लाभ वंचित वर्ग तक पहुंचना आवश्यक है, जिसकी खास निगरानी आवश्यक है। इसके लिए ‘क्रीमी लेयर’ की संकल्पना बहुत महत्वपूर्ण है।
हमारे देश में पिछड़े वर्ग की उन्नति हेतु आरक्षण की व्यवस्था हो इस विषय में संविधान समिति में बहुत ज्यादा बहस नहीं हुई। इसलिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए संविधान लागू होने के दो वर्ष बाद अर्थात 1952 में ही आरक्षण लागू हुआ। “अन्य पिछड़ा वर्ग” (अर्थात ओबीसी) के लिए आरक्षण हेतु सरकार आयोग नियुक्त करे, यह प्रावधान संविधान की धारा 340 में किया गया। इसके अनुसार केन्द्र सरकार ने गांधीवादी विचारक काकासाहब कालेलकर के नेतृत्व में 29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की। कालेलकर आयोग ने अपना प्रतिवेदन 30 मार्च 1955 को सरकार को प्रस्तुत किया। परंतु इन सिफारिशों के बारे में स्वयं अध्यक्ष कालेलकर जी के मन में शंका थी। इसलिए इन सिफारिशों पर अमल के बदले केन्द्र सरकार ने प्रत्येक राज्य सरकार से कहा कि वह ओबीसी की प्रगति हेतु राज्य स्तर पर योजना बनाकर उस पर अमल करें। इस प्रकार 25 वर्ष ओबीसी के विकास का मुद्दा राज्य सरकारों के पास था।
मार्च 1977 के ऐतिहासिक लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस लोकसभा चुनाव में परास्त हुई। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। इस सरकार ने सन् 1979 में बी.पी.मंडल के नेतृत्व में दूसरे ओबीसी आयोग का गठन किया। इस आयोग ने दिसंबर 1980 में अपना प्रतिवेदन दिया एवं उसमें ओबीसी को 27% आरक्षण देने की सिफारिश की। परंतु उस समय तक मोरारजी की सरकार जाकर पुन: इंदिरा गांधी की सरकार स्थापित हो गई थी। इंदिरा गांधी की सरकार ने इस प्रतिवेदन को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान हुए तब उन्होंने सन् 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा की। अपेक्षानुरूप इसके विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की गई। इसका निर्णय 1993 में हुआ। यह प्रसिद्ध केस ‘इंदिरा साहनी केस’ के नाम से जाना जाता है। इसे ओबीसी आरक्षण के केस के रूप में भी जाना जाता है। इसके अनुसार ओबीसी हेतु 27% आरक्षण मान्य किया गया परंतु कुल आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए एवं “क्रीमी लेयर” की शर्त भी जोड़ी गई। “क्रीमी लेयर” की यह शर्त अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए नहीं है यह ध्यान में रखना पड़ेगा।
दूसरी महत्वपूर्ण बात याने ओबीसी की सूची में शामिल जिन जातियों को आज आरक्षण मिल रहा है उन्हें भविष्य में भी आरक्षण मिलता ही रहेगा इसकी आश्वस्ति नहीं है। इसका कारण यह है जो जमात आज पिछड़ी है वह कल शायद पिछडी न रहें। आरक्षण का फायदा लेकर यदि कोई समाज आज पिछड़ा नहीं रहा है तो उसे भविष्य में आरक्षण नहीं मिलेगा। ओबीसी आरक्षण की यह “विशिष्ट बात” ध्यान रखने योग्य है। ऐसी व्यवस्था अनुसूचित जाति-जनजाति आरक्षण में नहीं है। इसका एकमात्र कारण हैे “क्रीमी लेयर” की संकल्पना।
सन् 1993 में जब से ओबीसी आरक्षण प्रारंभ हुआ तब से एक भी समाज का नाम इस सूची से नहीं हटा है। इसके विपरीत जिस समाज का नाम सूची में नहीं है वे समाज उनका नाम सूची में जुडवाने हेतु आंदोलन कर रहे हैं। ऐसी मांग अनुसूचित जाति-जनजाति के बारे में नहीं की जा सकती। उनका सूची में नाम जन्माधारित है।
‘क्रीमी लेयर’ की संकल्पना बहुत अच्छी है एवं सामाजिक न्याय की दृष्टि से आवश्यक है। जिन समूहों का विकास हो चुका है उन्हें आरक्षण के लाभ न देते हुए जिनका विकास नहीं हुआ है उन्हें इसका फायदा मिले यह इसके पीछे की उदात्त एवं व्यावहारिक भावना है। भारत जैसे गरीब देश में सरकारी नौकरियां एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश मर्यादित है। इस स्थिति में जिन्हें इन लाभों की आवश्यकता नहीं है, उन्हें इससे दूर क्यों न रखा जाए? इसलिए ‘क्रिमी लेयर’ की शर्त रखी गई है।
अब यह शर्त अनुसूचित जाति-जनजाति के क्षेत्र में भी लागू करने की मांग की जा रही है। ऐसा परिलक्षित हो रहा है कि अनुसूचित जाति जनजाति में भी कुछ परिवार ऐसे हैं कि जिनकी तीन-तीन पीढ़ियां आरक्षण का लाभ ले रही हैं। इसी प्रकार कुछ परिवार एवं उपजातियां ऐसी भी हैं जिन्हें इसका फायदा आज तक नहीं मिला। इसलिए इस विषय के अध्ययनकर्ता इस ओर निर्देश करते हैं कि सामाजिक न्याय के नाम पर एक अलग प्रकार का अन्याय प्रारंभ हो गया है। इसे रोकने के लिए ‘क्रीमी लेयर’ एक उत्तम उपाय है।
आरक्षण नीति के पीछे जो सामाजिक न्याय की कल्पना है उसका यदि आदर करना है तो न केवल ओबीसी के लिए ‘क्रीमी लेयर’ की शर्त बरकरार रहनी चाहिए बल्कि अनुसूचित जाति-जनजाति हेतु भी उसे तत्काल लागू करना चाहिए।
फडणवीस सरकार ने निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने हेतु ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण कानून बनाया है। अब अनुसूचित जाति एवं जनजाति के क्षेत्र में भी ‘क्रीमी लेयर’ की संकल्पना लागू करने हेतु विचार प्रारंभ होना चाहिए।