भारत में तानाशाही परआंदोलनों की लगाम

म हात्मा गांधी ने दुनिया को सत्याग्रह व आंदोलन का मार्गसफल कर दिखाया है। सन १९१५ में महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका से लौटकर आने के बाद शुरू की गई आज़ादी की लड़ाई अर्थात आंदोलन को ३२ वर्षों के बाद सफलता प्राप्त हुई। निश्चित ध्येय की ओर जानेवाले आंदोलन को सतत बढ़ता हुआ जनाधार मिल सकता है यह इससे साबित हो चुका था। आज़ादी की लढ़ाई के साथ ही अनेक सामाजिक-वैचारिक लडाइयां भी इस आंदोलन के साथ लड़ी गईं। हमारे देश के सौ वर्षों के इतिहास पर गौर किया जाए तो समाज में व्याप्त वैचारिकता के अभाव को योग्य दिशा देने का काम आंदोलनों ने किया है। फिर चाहे वह राजा राममोहन राय की महिलाओं के मूलभूत अधिकार दिलवाने की लड़ाई हो, भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे का प्रेरणादायी आंदोलन हो, डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर का जाति-पांति निर्मूलन का आंदोलन हो या फिर १९७४ में आपातकाल के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की लड़ाई हो। इन सभी आंदोलनों ने भारत के सामाजिक सुधारों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लोगों का यह दृढ़ विश्वास हो गया कि आंदोलन अर्थात किसी व्यक्ति को अपनी राय समझाने का उचित माध्यम है। अच्छे विचारों के साथ और जनकल्याण के लिए शुरू हुए ये आंदोलन सफल भी रहे। भारतीय स्वतंत्रता, स्त्रीमुक्ति, शैक्षणिक प्रभाव, जाति-पांति निर्मूलन जैसे अनेक मामलों में सुधार होने में संबंधित आंदोलनों का प्रमुख योगदान रहा है।

भारतीय जनता औ़र लोकतंत्र के बीच एक मजबूत कड़ी का भूमिका आंदोलन अदा करते हैं। भारत में परिवर्तनों में भी जनआंदोलन का मुख्य स्थान है।
दो साल पहले जनलोकपाल विधेयक के संदर्भ में अण्णा हजारे ने आंदोलन छेड़ा था। बलात्कार व स्त्री अत्याचार के विरूद्ध भी आंदोलन हुए। इसका असर दिल्ली की सड़कों से निकलकर बाहर भी होने लगा। जनलोकपाल के लिये लडनेवाले अण्णा हजारे को तथा उनके आंदोलन में सहभागी होने वालों को ‘न भूतो न भविष्यति’ प्रसिद्धि हासिल हुई। जब आंदोलन को प्रसिद्धि मिल रही थी, तब उसे स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई कहा जाने लगा था, तभी अण्णा का आंदोलन क्षीण होने लगा। जिन आंदोलनकारियों और प्रसार माध्यमों ने इस आंदोलन का साथ दिया था वे ही इससे उकता गए। समाचार चैनलों के प्राइम टाइम में अण्णा का चेहरा दिखना बंद हो गया। दिल्ली सहित देश के सभी अखबारों के पहले पृष्ठ से अंदर के पृष्ठों पर जाते-जाते अण्णा के आंदोलन की खबरें समाप्त हो गईं। यही अवस्था बलात्कार व स्त्री अत्याचार विरोधी आंदोलन की भी रही।
भारत के भूतकाल पर नजर डालें तो हम यह जानेंगे कि भारतीय स्वतंत्रता का आंदोलन जन सहभाग के कारण लगभग डेढ़ सौ साल तक चला। जनआंदोलन के जरिए ही सामाजिक परिवर्तन के लिए और विदेशी सत्ताधारियों के विरूद्ध लड़ाई शुरू थी। सन१९७५ से १९७७ तक का काल आपातकाल के कारण हमें याद है। इंदिरा गांधी द्वारा लादे गए इस आपातकाल का घोर विरोध किया गया। यह वह समय था जब विद्यार्थी, किसान, महिला, मजदूर, असंगठित संगठन इत्यादि समाज के लगभग सभी वर्गों को अपने हक का संज्ञान होने लगा था। आपातकाल के खिलाफ संपूर्ण देश से लाखों लोग आंदोलन में सहभागी हुए। कई महीनों के लिए जेल भी गए। आखिरकार आपातकाल खत्म हुआ। मतदाताओं ने इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंका। भारतीय लोकतंत्र की पुन: स्थापना कर निर्धारित भविष्य की ओर मार्गक्रमण शुरू हुआ।
भारतीय लोकतंत्र व आंदोलन के सामर्थ्य का हमने अनुभव किया है। डॉ.राममनोहर लोहिया इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका व्यक्तित्व सबसे भिन्न था। एक वाक्य में इतिहास के सार को पकड़ने की उनकी शैली विलक्षण थी। वे कहते थे, ‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं।’ इसका अर्थ है, चुनाव के उपरांत पांच साल का प्रतिनिधित्व भले ही मिल जाए; पर जनता उस समय सोती नहीं है। लोक प्रतिनिधि, सत्ताधारियों का जनता के प्रति व्यवहार ठीक रहना आवश्यक है। अन्यथा जनता उन्हें बीच में ही कुर्सी से उठाकर फेंक सकती है। क्योंकि लोकतंत्र सार्वभौम है।
पिछले ३५ वर्षों में इस प्रकार के आंदोलन का अनुभव फिर कभी नहीं हुआ। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या देश के समक्ष सभी प्रश्न समाप्त हो गए हैं? किसी भी आंदोलन में पीड़ितों के सबलीकरण व उन्हें न्याय इन मुद्दों का समावेश होता है। किसी एक व्यक्ति की आग्रहपूर्ण भूमिका को आंदोलन नहीं कहा जा सकता। किसी भी आंदोलन की सफलता आंदोलन को मिली तीव्र लोकभावना पर निर्भर होती है। लोकभावना के बिना चलनेवाला आंदोलन दिशाहीन हो सकता है। १९७७ में आपातकाल के विरोध में खड़ा हुआ आंदोलन सफल होने में लोकभावना महत्वपूर्ण रही। इंदिरा गांधी द्वारा लादा गया आपातकाल हटाना, इस देश को तानाशाही से बचाना, इस देश में फिर से लोकतंत्र प्रस्थापित करना यही लोगों की तीव्र भावना थी।
आजकल आंदोलन तत्कालीन होते हैं। वे आगे चलकर असफल हो जाते हैं। इसके अनेक कारण दिए जा सकते हैं। अब पहले की तरह लोगों के कल्याण के लिए आंदोलन करने वाले नेता समाज में नहीं रहे। आंदोलनकर्ता के हेतु पर शंका हो इस तरह से उसे चलाया जाता है। इस वजह से लोगों को भी उसमें गंभीरता नजर नहीं आती। कुछ लोग आंदोलन का सहारा लेकर दूसरों पर अपने विचार लादने का प्रयत्न करते हैं। इस कारण आंदोलन का मार्ग निष्फल हुआ लगता है।
आंदोलन बहुत व्यापक व दीर्घकालीन होते हैं। वे तत्कालीन समस्याओं पर केंद्रित नहीं होते। आंदोलन का उद्देश्य समाजिक हित होना आवश्यक है। उसी प्रकार व्यक्तिकेंद्रित नहीं होता। १९७७ में आपातकाल के खिलाफ हुए आंदोलन का यही स्वरूप था। इस आंदोलन के नेताओं को गिरफ्तार किया गया, उन्हें कोठरी में बंद रखा गया, फिर भी आपातकाल के विरोध में आंदोलन खत्म नहीं हुआ। शुरू रहा। क्योंकि देश के सभी लोगों ने आंदोलन को शुरू रखने का जिम्मा उठा रखा था। देश में लोकतंत्र कायम रखने औ़र इंदिरा गांधी की तानाशाही को जड़ से समाप्त करने के लिए अपना सर्वस्व त्यागने का बीड़ा नेता से लेकर देश के प्रत्येक सामान्य व्यक्ति ने उठा रखा था। यही इस आंदोलन की सब से बड़ी ताकत थी। साल १९७५-१९७७ के दरम्यान देश के हर स्तर का व्यक्ति आंदोलन के माध्यम से परिवर्तन लाने के लिए प्रयत्नशील था।
लेकिन पिछले कुछ समय से आंदोलनों और आंदोलनकारियों की संख्या बहुत कम हो गई है। क्योंकि सन १९७७ के आपातकाल के समय में आंदोलन में सहभाग के लिए कुछ स्वंयसेवी संस्थाओं (एनजीओ) का उदय हुआ। संस्थाओं को देश-विदेश से आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। प्रस्थापित व्यवस्था के खिलाफ असंतोष होते ही संस्था के माध्यम से आंदोलन किया जाने लगा। आंदोलनकारियों को धन प्राप्ति होने लगी। आंदोलनकारी खुद को सुरक्षित महसूस करने लगे। मगर इस एनजीओ पद्धति के आंदोलन के कारण आंदोलन का मूल हेतु और विचार ही खतरे में पड़ गया।
कई आंदोलन व्यक्तिकेंद्रित पद्धति से चलाए गए। आंदोलनकर्ता व राजनेताओं ने आंदोलन को व्यक्तिकेंद्रित कर दिया। इसके कारण संबंधित व्यक्ति के गुण व दोषों की चर्चा आंदोलन के विषय बन गए। इससे आंदोलन के मूल उद्देश्य की गहराई समाप्त हो जाती है। हाल ही में हुए अण्णा हजारे के जनलोकपाल विधेयक आंदोलन अथवा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी इसी कारण अधिक चर्चा में रहा। एक बुजुर्ग व्यक्ति समाधि के समक्ष हाथ जोड़ कर बैठा है, अच्छे दिखनेवाले युवा हाथों में झ़ंडा लिए उनके आस-पास घूम रहे हैं, सत्ता में बैठे सत्ताधारी वर्ग को अच्छा सबक मिल रहा है, इसी विषय का वर्णन अधिक किया जा रहा था। आंदोलन, उसका विचार, उसकी संकल्पना, आंदोलन का अंतिम लक्ष्य व अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं को दुर्लक्षित कर दिया गया।
ध्यान आकर्षित करना वर्तमान में आंदोलन की प्रमुख जरूरत बन गई है। जलसमाधि या गलेभर पानी में श्रृंखला बनाकर खड़े रहना, मध्यप्रदेश में नर्मदा के पानी में या तमिलनाडु के कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा प्रकल्प के विरोध में आंदोलनकरियों ने समुद्र के पानी में मानवी श्रृंखला बनाकर मीडिया का ध्यान अपनी तरफ मोड़ लिया। थोड़ीे बहुत नाट्यमय कृति के आधार पर मीडिया को आकर्षित करनेवाले आंदोलन कुछ समय के लिए टिकते हैं। केंडल मार्च, सिर पर विशेष टोपी पहनना, सिर मु़ंडवाना, कैमरे के सामने जानबूझकर आक्रामक रवैया अपनाना आदि केवल मीडिया को अपनी तरफ आकर्षित करने के स्टंटबाज आंदोलन होते हैं। इससे समाजहित साधने का हेतु कभी भी सफल नहीं होता।
इस प्रकार के स्टंटबाज आंदोलन कर उसके आधार पर चर्चा और जनमत संग्रह का कॉन्टै्रक्ट प्रसार माध्यम को दिया जाता है। ऐसे कई आंदोलनों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यश्र तौर पर एक इंवेट के रूप में संपन्न किया जाता है। टीआरपी पर ध्यान केंद्रित करने वाला मीडिया का आंदोलन में प्रभाव बढ़ने पर वह कब राजनैतिक रूप ले लेता है, पता भी नहीं चलता। पिछले कुछ सालों से यही हो रहा है। जनआंदोलन के जरिए राजनैतिक हित साधने का उदाहरण केजरीवाल के रूप में हमारे सामने है।

इसी प्रक्रिया से आंदोलन, मोर्चे व नारेबाजी करने वाले विरोधी दल व नेता अब सत्ता में आ गए हैं। सत्ता में विरोधी पक्ष का किरदार निभा रही कांग्रेस को आंदोलन कब औ़र कैसे करना है, यह सीखना अभी बाकी है। इस पार्श्वभूमि में १९७७ के बाद के तथाकथित आंदोलनों का स्वरू प कैसा दिख रहा है? इसके उपरांत हुए आंदोलन अधूरे ही रहे। इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण इन आंदोलनों को काफी प्रसिद्धि मिली; परंतु उसमें लोगों का सहभाग आभास निर्माण करने जैसा ही था। ये आंदोलन भले ही सही विचार अथवा जनकल्याण के लिए शुरू किए गए हों; परंतु उनका स्वरूप बीच में ही राह भटकने वाले, मूल उद्देश्य तक न पहुंचने वाले आंदोलनों का ही रहता है। व्यापक अर्थ में इनका उल्लेख गुमराह आंदोलन के रूप में किया जाना चाहिए।
भारतीय जनता औ़र लोकतंत्र के बीच एक मजबूत व्यवस्था है। वह व्यवस्था है लगातार बेलगाम हो रही व्यवस्था के विरोध मेंें आंदोलन रूपी हथियार। भारतीय लोकतंत्र पर जब-जब मुश्किलों की काली छाया पड़ती है तब-तब आंदोलनों के माध्यम से लोकतंत्र की ज्योति प्रकाशमय हो जाती है। लोकतंत्र को स्वस्थ बनाए रखने के लिए उसे आंदोलन की औषधि देनी पड़ती है। सन १९७५ में इंदिरा गांधी ने लोकशाही की अवस्था गंभीर कर दी थी। तभी आंदोलन के माध्यम से १९ महीने की तानाशाही के बाद फिर लोकतंत्र को जीवित किया गया। वर्तमान में भारत में सभी राजनैतिक दल औ़र नेताओं के भ्रष्ट होने का चित्र सामने है। सर्वत्र भ्रष्ट व्यवस्था कार्यरत होने के चिह्न दिख रहे हैं। जिस पर लोकतंत्र को टिकाए रखने की जिम्मेदारी है, ऐसे लोगों के अंतःकरण में वह मृतप्राय दिखाई देता है। इतना सब होने पर भी भारत में तानाशाही का उदय नहीं हो रहा है। इसका कारण, यहां होने वाले आंदोलन ही हैं। हमारे आंदोलनों के कारण ही हमारी राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था में सुधार होता रहा है। यही आंदोलनों का अमरत्व भी है।
मो. : ९८६९२०६१०६

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