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महिला आंदोलन के पुरुष सारथी

महिला आंदोलन के पुरुष सारथी

by माधुरी साकुलकर
in मार्च २०१५, सामाजिक
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हल में एक कार्यक्रम में जानाहुआ। महिला आंदोलन चर्चा का विषय था। सभी महिलाओं ने पुरुषों के नाम लानत भेजी। मानो पुरुष स्त्रियों पर हमोशा अत्याचार करने की ताक में ही है। महिलाओं के विकास के आड़े वे आते हैं। उनसे हटके ही रहना चाहिए। ‘स्त्री जाति’ एक वर्ग और ‘पुरुष जाति’ दूसरा वर्ग। उनमें वर्ग संघर्ष होगा ही। हरेक को पुरुषों के बारे में बुरे अनुभव ही आए थे। पुरुषों के बारे में एक भी अच्छा अनुभव किसी ने नहीं बताया। किसी पुरुष रिश्तेदार का, पति का, भाई का एक भी अच्छा अनुभव किसी को याद नहीं आया, इसका आश्चर्य हुआ। एक भी दोस्त उन्हें नहीं था। मानो स्त्री एक टापू व पुरुष दूसरा टापू। उनमें बिल्कुल लेनदेन नहीं है। केवल कम्पार्टमेंट ही!
महिलाओं की समस्याएं केवल महिलाओं की ही नहीं अपितु संपूर्ण समाज की हैं। इसके लिए पुरुषों के सहयोग की आवश्यकता है। वे अपने आंदोलन के सहयोगी हो सकते हैं। ‘मावा’ नामक संस्था यही काम करती है। महिलाओं के आंदोलन को समर्थन देने, उन्हें मानसिक संबल देने, महिलाओं की समस्याओं पर चर्चा, परिसंवाद, व्याख्यान आयोजित करने का कार्य कर जेंटर सेंसेटायजेशन के वर्ग कॉलेज युवकों के लिए आयोजित करती है। प्रति वर्ष पुरुष स्पंदन का दीपावली विशेषांक प्रकाशित करती है। ‘मावा’ के सचिव हरिश सदानी ने विवाह तक नहीं किया है और उन्होंने इस कार्य को अपने को समर्पित कर दिया है।
समाज के विभिन्न स्तरों की महिलाओं की समस्याएं भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी उनका समाधान शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, स्त्री-पुरुष समानता तथा आत्मविश्वास, आत्मसम्मान की पंचसूत्री से हो सकता है। स्त्री-पुरुष समानता का अर्थ ‘स्त्री-पुरुष संघर्ष’ नहीं है। इसका अर्थ यह है स्त्री व पुरुष का परिवार में परस्पर समन्वय, सभी सामाजिक व्यवहारों में पुरुषों के साथ बराबरी के अवसर, परस्पर सहिष्णुता व सम्मान की भावना अर्थात पारस्पारिकता।
स्त्री-पुरुष समानता का अर्थ पुरुषों पर आक्रमण अथवा महिलाओं का पुरुषीकरण नहीं है, बल्कि है परस्परपूरकता। दोनों ‘अपूर्णांक’ हैं। दोनों को मिलकर ‘पूर्णांक’ होना है, एक दूसरे का आदर करते हुए, एक दूसरे को स्पेस देते हुए, एक दूसरे को समृद्ध करते हुए। दोनों का एक ही समय बड़ा होने का मतलब है स्त्री-पुरुष समानता। शारीरिक भेद छोड़ दिए जाए तो बाकी सभी मामलों में सभी क्षमताएं समान ही हैं। राष्ट्रजीवन व समाज जीवन में दोनों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण हैं इसे ध्यान में रखने का अर्थ है स्त्री-पुरुष समानता। कोई एक दूसरे के त्याग पर खड़े होने का मतलब है उत्पीड़न। वंश को बनाए रखने के लिए दोनों की एक ही समय उपस्थिति आवश्यक होती है। अकेला स्त्री-बीज या अकेला पुरुष-बीज नवनिर्मिति नहीं कर सकता। दोनों एक ही समय उपस्थित हो तो सृजन की प्रक्रिया होती है। मातृत्व, सृजन की शक्ति यह महिला का बल स्थान है। इसके लिए समाज को उसके प्रति कृतज्ञता रखनी चाहिए। सृजन ही यह विशेष शक्ति ध्यान में रखकर ही कुछ स्थानों पर कुमारिकाओं के हाथ से बुआई की जाती है|े
भारत की महिलाओं को तो पुरुषों का कृतज्ञ रहना चाहिए। भारत मेें महिलाओं के बारे में सुधारों की शुरुआत पुरुषों ने की। अपने आसपास की स्त्रियों की स्थिति वे देखते थे। बहन, भाभी के रिश्तों से वे उनसे जुड़े हुए थे। इसलिए सहानुभूति से उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार की कोशिश की। राज राम मोहन राय के प्रयत्नों से सती प्रथा पर पाबंदी का कानून बना। महात्मा फुले ने केशवपन के खिलाफ नाइयों की हड़ताल करवाई। लड़कियों के लिए १८४८ में पहली स्कूल स्थापित की। बालहत्या प्रतिबंधक गृह स्थापित किया। पहली महिला अध्यापिका तैयार की। फुले, कर्वे, आगरकर ये नाम महिलाओं के लिए प्रातःस्मरणीय हो गए। कर्वेकी एसएनडीटी यूनिवर्सिटी देश की पहली महिला यूनिवर्सिटी है। हजारों महिला उपाधिधारी यहां से निकलीं। उनके अनाथ बालिकाश्रम ने कई महिलाओं को आत्मनिर्भर किया। अन्यथा पति निधन के बाद उन्हें बेलन-चकला लेकर घर-घर रसोई बनाते हुए जीवन निकालना पड़ता था या फिर केशवपन कर अपनी भावनाएं दबाकर लाल वस्त्र पहनकर किसी रिश्तेदार के यहां आश्रित के रूप में २४ घंटे खटते रहना पड़ता था। आगरकर ने तो महिलाओं के कपड़े किस तरह हो इस पर बारीकी से विचार किया। उनका आग्रह था कि सतत ध्यान रखना पड़े, लगातार कपड़ों में उलझे रहे इस तरह सीले कपड़े नहीं होने चाहिए। महिलाएं जैकेट पहनें, उसे जेबें हों ताकि पैसे, रुमाल सब ठीक से रखे जा सके यह उनका सुझाव था। सुधारकों ने महिलाओं की शिक्षा के लिए जो कार्य किया उसका कोई सानी नहीं है।
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल में महिलाओं को अनेक अधिकार प्रदान किए। १९वीं सदी में महिलाओं की समस्याएं अनेक मार्गों से पेश करने के प्रयास हुए। ‘दर्पण’ नामक पहले मराठी पत्र में ‘माता’ नाम से लिखे गए तत्कालीन स्त्री-जीवन को दुःख व्यक्त करने वाला व उस पर उपाय सुझाने वाला पत्र किसी पुरुष ने ही लिखा लगता है। ‘सुधारक’ ने सुशिक्षित कुल स्त्रियों के लेख नाम से स्तंभ चलाकर महिलाओं को अपने विचार प्रगट करने का मंच उपलब्ध करा दिया। १८९२ में लोकमान्य तिलक ने ‘केसरी’ में पुनः विवाह करने की पुरुषी प्रवृत्ति पर आघात करने वाले तीन लेख लिखे। ‘प्रभाकर’ साप्ताहिक में लोकहितवादी के शतपत्रों के जरिए व बालाशास्त्री जांभेकर के ‘दर्पण’में महिलाओं की समस्याएं उजागर हो रही थीं। भारताचार्य वैद्य ने ‘अबलोन्नति’ लेखमाला आरंभ कर उसे केसरी के साथ वितरण की व्यस्स्था की। इसी समय गोविंदराव कानेटकर ने ‘स्त्रियों की परवशता’ शीर्षक से मिल की किताब ‘सब्जेक्शन ऑफ विमेन’ का अनुवाद किया। इन वैचारिक लेखों के साथ ही ललित साहित्य के जरिए भी पुरुष लेखकों ने महिलाओं की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करने का काम किया। शारदा नाटक के जरिए विलम्बित कुमारी विवाह पर भाष्य किया। ह.ना.आपटे ने मराठी में ‘पण लक्षात कोण घेता?’ (लेकिन ध्यान कौन देता है?) नामक उपन्यास लिखा।
र.धो.कर्वेकी ‘समाज स्वास्थ्य’ नामक लैंगिक विषय को समर्पित निडर पत्रिका थी। उनके परिवार नियोजन के प्रचार, प्रसार के कारण महिलाओं की गर्भधारण, जचकी के चक्र से मुक्ति हुई। उन्हें उस समय इस कार्य के लिए बहुत निंदा सहनी पड़ी। लेकिन स्त्रियों ने उन्हें आशीर्वाद ही दिए। उनके कार्यों के कारण महिलाओं को कुछ अधिक खुला समय मिला। उन्होंने इस विषय में इतनी तेजी से काम किया कि परिवार नियोजन के साधनों का स्वास्थ्य पर किसी भी प्रकार का विपरीत असर नहीं होता (उस समय यह धारणा थी) इसे सिद्ध करने के लिए स्वयं को बच्चा नहीं होने दिया। महादेव गोविंद रानडे का जिक्र किए बिना यह लेख पूरा हो ही नहीं सकता। उनकी प्रेरणा से, प्रोत्साहन से, मार्गदर्शन से रमाबाई ने पति निधन के बाद (महादेव रानडे का निधन १९०१ में हुआ) १९०७, १९०८ व१९२७ में क्रमशः मुंबई, पुणे, नागपुर में सेवासदन की स्थापना की। ‘फीमेल ट्रेनिंग स्कूल’ की स्थापना कर महिलाओं के लिए परिचारिका का नया व्यवसाय उपलब्ध कराया। इस सारी पार्श्वभूमि के कारण कई अधिकार स्त्रियों को मिले। इंग्लैण्ड में महिलाओं को मतदान के अधिकार के लिए बड़ा आंदोलन करना पड़ा। भारत में मतदान का अधिकार महिलाओं को सहजता से मिला। अमेरिका के सर्वोच्च पद पर अब तक कोई महिला नहीं पहुंची है, लेकिन अपने यहां ४० वर्ष पूर्व ही यह हो चुका है|े
आजकल के पुरुष महिला आंदोलन की ओर किस दृष्टि से देखते हैं इस पर विचार करें तो ध्यान में आता है कि एक गुट ऐसा है जो सलाह (मुफ्त में) देता रहता कि महिलाओं को यह करना चाहिए, वह करना चाहिए। दूसरा गुट ऐसा है कि उसे असुरक्षितता महसूस होती है किा महिलाएं आगे बढ़ीं तो उनका एकाधिकार खत्म होगा। उन्हें चुनौती मिलेगी। (यदि अच्छा सिक्का हो तो चिंता किस बात की!) इस कारण महिला आंदोलन को विरोध करने वाला यह गुट है। तीसरा गुट है महिलाओं को कम दर्जा देने वाला। ‘महिलाओं की अक्ल चूल्हे तक व पैर की चप्पल पैर में ही ठीेक’ कहकर महिला आंदोलन का विरोध करने वाला, स्त्रियों के पैर पीछे खिंचने वाला। चौथा गुट है सक्रिय समर्थन देकर स्वयं स्त्रियों की समस्याओं में काम करने वाला व आंदोलन का समर्थन करने वाला। महिला कार्यकर्ताओं के पति चौथे गुट में आते हैं। उन्हें घर से ऊर्जा प्राप्त होती है। इसलिए वे शांति से आंदोलन में काम कर सकती हैं। हमारी एक सहेली के पति ने पत्नी जिस संगठन के लिए कार्य करती थी उस संगठन को एक लाख रु. का दान दिया। पत्नी के कार्य को और किस प्रशस्ति की जरूरत है?

माधुरी साकुलकर

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