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व्रत त्यौहार और सामाजिक समरसता

by डॉ. प्रेरणा चतुर्वेदी
in अगस्त २०१७, सामाजिक
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‘‘व्रत -त्यौहारों के दिन हम देवताओं का स्मरण करते हैं, व्रत, दान तथा कथा श्रवण करते हैं, जिससे व्यक्तिगत उन्नति के साथ सामाजिक समरसता का संदेश भी समाज में पहुंचता है। इसमें ही भारतीय संस्कृति के बीज छिपे हैं। ’’

हमारे समाजिक जीवन में कुछ ऐसे दिन आते हैं जिनसे मात्र एक व्यक्ति, या परिवार ही नहीं वरन् पूरा समाज आनंदित और उल्लासित होता है। भारत को यदि पर्व-त्यौहारों का देश कहा जाए तो उचित होगा। यहां भोजपुरी भाषा में एक कहावत है- ‘सात वार नौ त्यौहार’।
यानि यहां हर दिन में एक त्यौहार अवश्य पड़ता है। अनेकता में एकता की मिसाल इसी त्यौहार पर्व के अवसर पर देखी जाती है। रोजमर्रा की भागती-दौड़ती, उलझनों से भरी हुई ऊर्जा प्रधान हो चुकी, वीरान सी बनती जा रही जिंदगी में ये त्यौहार ही व्यक्ति के लिए सुख, आनंद, हर्ष एवं उल्लास के साथ ताजगी भरे पल लाते हैं। यह मात्र हिंदू धर्म में ही नहीं वरन् विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों पर लागू होता है। वस्तुतः ये पर्व विभिन्न जन समुदायों की सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं और पूर्व संस्कारों पर आधारित होते हैं। सभी त्यौहारों की अपनी परंपराएं, रीति -रिवाज होते हैं। ये त्यौहार मानव जीवन में करुणा, दया, सरलता, आतिथ्य सत्कार, पारस्परिक प्रेम, सद्भावना, परोपकार जैसे नैतिक गुणों का विकास कर मनुष्य को चारित्रिक एवं भावनात्मक बल प्रदान करते हैं। भारतीय संस्कृति के गौरव एवं पहचान ये पर्व, त्यौहार सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं।

रक्षाबंधन
आत्मीयता एवं स्नेह से रिश्तों को मजबूती प्रदान करने वाला पर्व रक्षाबंधन है। यह सावन माह की पूर्णिमा को पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है। पौराणिक काल में ब्राह्मण अपने यजमानों को रक्षासूत्र बांधते थे। इतिहास में दर्ज है कि हिंदू रानी कल्याणी ने अपने राज्य की रक्षा हेतु शासक हुमायूं के पास रक्षासूत्र भेजा था और मुस्लिम शासक ने अपनी हिंदू बहन की रक्षा की थी। आज के बदलते, अर्थ प्रधान होते समय में भी रक्षाबंधन यानि लाल रंग के कच्चे सूत के प्रति लोगों की भावना और विश्वास दृढ़ है।
आज राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझने और पूरा करने हेतु ‘ध्वज’ को रक्षासूत्र बांध कर उसकी रक्षा का प्रण करना चाहिए, कहा भी गया है कि-‘धर्मो रक्षति रक्षितः’।
वृक्ष की रक्षा हेतु पेड़ों पर भी रक्षासूत्र बांध कर उनकी रक्षा का संकल्प लिया जाता है।
भाई-बहन के प्यार, स्नेह से भरा यह पर्व वास्तव में अधिकार एवं कर्तव्य की सही परिभाषा बतलाता है। रक्षाबंधन भारतीय धर्म, संस्कृति, परंपरा का प्रतीक है। भाई इस अवसर पर अपनी बहन को उपहार देकर उसकी रक्षा एवं सुरक्षा का वचन देते हैं।

कृष्ण जन्माष्टमी
भादो के मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन कृष्ण जन्मोत्सव वैष्णव धर्म के लोग पूरे हर्ष-उल्लास से मनाते हैं। द्वापर युग में राजा कंस ने इस भ्रम से अपनी चचेरी बहन देवकी के सात बच्चों को जन्म लेते ही शिला पर पटक कर मार डाला कि कहीं पूर्व में हुई आकाशवाणी के अनुसार इनमें से कोई शिशु बड़ा होकर उसका वध न कर दे, किन्तु समय पर अष्टम बालक विष्णु अवतारी कृष्ण ने जन्म लिया और किशोरावस्था तक ब्रज में रहे। अवंती में शिक्षा ग्रहण कर मथुरा में प्रजा को क्रूर कंस से मुक्ति दिलाई।
श्रीकृष्ण का जन्म अंधकार में प्रकाश का, शक्ति में भक्ति का तथा कष्ट-दुख-विपरीत परिस्थितियों में धैर्य और आनंद का प्रतीक है। चूंकि कृष्ण का जन्म कारागार में हुआ था; अत: पुलिस लाइन में इसकी विशेष सजावट होती है।
पूरे घर, आंगन मंदिर को साफ-स्वच्छ कर बंदनवार से सजाकर माखन मिश्री का भोग लगाकर अर्धरात्रि के समय लड्डू गोपाल यानि बाल कृष्ण का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाते हैं। ब्रज, मथुरा, वृन्दावन का कृष्ण जन्माष्टमी पर्व देखने देश से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।

हरतालिका व्रत-तीज
श्रावण मास के पश्चात भादो माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन हस्त नक्षत्र में भारतवर्ष में विशेषकर उत्तर-प्रदेश तथा बिहार राज्य में कुमारी एवं सौभाग्यवती स्त्रियां पूरे २४ घंटे निर्जला रह कर यह व्रत करती हैं। माता पार्वती को इसी दिन के पश्चात भगवान शिव ने अपनी वामांगी बनाया था। अत: कुवारी कन्याएं योग्य वर प्राप्ति तथा सौभाग्यवती स्त्रियां अपने सौभाग्य की रक्षा हेतु यह तीज व्रत करती हैं।
माता पार्वती ने पूर्वजन्म में पति की आज्ञा के बिना अपने पिता के यज्ञ में प्रस्थान किया था तथा वहां अपमानित होने पर आत्मदाह कर पुनः पार्वती रूप में जन्म लेने पर पुनः महादेव को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु वे बारह वर्ष तक मात्र धुएं का सेवन कर तप करती रहीं। चौसठ वर्ष बेल के पत्ते का सेवन किया, माघ में जल में रह कर एवं वैशाख में अग्नि में तप किया। पार्वती को वन में तप करने हेतु सखी हरण करके ले गई थी, क्योंकि पिता हिमाचलराज पुत्री पार्वती का विवाह विष्णु से करना चाहते थे। अत: सखियों द्वारा हरण करने से इस व्रत का नाम ‘हरितालिका’ पड़ा। इसे ‘व्रत राज‘ कहा जाता है।
इस दिन प्रातः ही व्रतधारी स्त्रियां एवं कन्याएं प्रातःकर्म से निवृत्त हो शिवालय में जाकर चंदन, दूध, फूल-फल, मीठे, अक्षत आदि से पूजन करती हैं। संध्या समय से लेकर रात्रि तक शिव वंदना, भजन करती हुई रात्रि जागरण करके अगले दिन सुबह दान-पुण्य करके ही पारणा करती हैं।

गणेश चतुर्थी
भादो माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश चतुर्थी व्रत पूरे भारत वर्ष में हर्ष उत्साह और प्रसन्नता से मनाया जानेवाला त्यौहार है। किन्तु महाराष्ट्र में यह त्यौहार बड़ी धूमधाम से दस दिनों तक मनाया जाता है। बाल गंगाधर तिलक ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू व्रत-त्यौहारों के प्रचार प्रसार तथा राष्ट्र के संगठन एवं जागरण हेतु सार्वजनिक रूप से गणेश चतुर्थी त्यौहार मनाना प्रांरभ किया था। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से प्रारंभ हुआ यह त्यौहार अनंत चतुर्दशी के दिन समाप्त होता है।
इसके संबंध में पुराणों में कई कथाएं हैं। इनमें से एक कथा है कि रानी दमयंती ने अपने पति राजा नल एवं राज संपत्ति, धन-वैभव आदि को इसी व्रत द्वारा प्राप्त किया था।
एक अन्य कथा के अनुसार माता पार्वती द्वारा स्नान करते समय द्वार पर पहरा देने हेतु तैनात किए पुत्र गणेश का शिव द्वारा मस्तक काटने एवं बाद में पार्वती के महाविलाप पर शिव द्वारा गजमस्तक लगाकर मृत गणेश को पुनर्जीवन देने के अवसर पर ही यह व्रत किया जाता है।
इस दिन व्रतधारी प्रात: से ही गणेश मूर्ति स्थापना हेतु फूल, माला, नौवेद्य, लड्डू आदि द्वारा ध्यान-पूजा प्रारंभ करते हैं। इस दिन चंद्रमा का दर्शन निषेध माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन चंद्रदर्शन से मिथ्या आरोप लग जाता है। इसके मोचन हेतु पत्थर उछाल कर फेंकते हैं। इस चौथ का एक नाम ‘ढेला छैक’ भी है।
व्रत-त्यौहारों के संबंध में वेद विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. उपेन्द्र त्रिपाठी का कहना है, ‘‘भारतीय संस्कृति में पर्व -त्यौहारों का महत्व वैदिक याज्ञीय व्यवस्था के क्रम में दिखता है। प्राचीन काल में अधिकाधिक यज्ञ -यज्ञादिक कार्य ही होते थे। वैदिक यागों के स्थान पर पौराणिक पर्व व्रतों का विकास हुआ। यज्ञ का तात्पर्य है देवताओं का पूजन, अर्चन, लोक संग्रह का बौद्धिक एकत्रीकरण करना एवं दान विधान। वैदिक अवधारणा में अग्नि, वायु सूर्यादि आदि देवता हैं। गंगा अवतरण पर गंगा दिवस, श्रीकृष्ण जन्म दिवस पर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत मनाया जाता है।
वैदिक ऋषि कहते हैं-‘‘तुम उन देवी देवताओं का पूजन करोगे तो तुमको इष्ट की सिद्धि होगी। ’’ वर्तमान समय में इनकी प्रासंगिकता का जहां तक प्रश्न है, व्रत -त्यौहारों के दिन हम उक्त देवता को याद करते हैं, व्रत, दान तथा कथा श्रवण करते हैं जिससे व्यक्तिगत उन्नति के साथ सामाजिक समरसता का संदेश भी दिखाई पड़ता है। इसमें भारतीय संस्कृति के बीज छिपे हैं। ’’

पर्व त्यौहारों के संबंध में जाने-माने समाजशास्त्री तथा कभी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रो रहे डी.के. सिंह तो इसे धर्म के समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। आपका विश्वास है कि भारतीय संस्कृति के विकास में ऋषियों-मुनियों का अप्रतिम योगदान है। वे व्रत को स्वास्थ्य से जोड़ते हैं। व्रत करने से मानव मन मृदु होता है। वर्तमान डिजिटल युग में लोग अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूलते जा रहे हैं तो दूसरी ओर अनंत जिज्ञासु भी हैं। यू-ट्यूब पर वे खोजते हुए दिखते हैं। असल में बाबा रामदेव जी का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने विभिन्न संवाद माध्यमों के माध्यम से आयुर्वेद, योग तथा भारतीय संस्कृति का संवर्धन एवं संरक्षण किया है। भारतीय चिंतन में पाप-पुण्य का विधान किया गया है जिसमें प्राय: हरेक व्यक्ति के मन में मुक्ति की लालसा को सत्-साहित्यों के अध्ययन, उपवास, बड़ों का आदर तथा छोटों को आशीर्वाद सेे जोड़ता है। इसके कारण व्रत तथा त्योहार का महत्व बढ़ जाता है।

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