राष्ट्ररक्षा का भाव ही वनवासी समाज का मूल स्वभाव है

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जनजातीय समाज का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना व्यापक, विस्तृत व विशाल योगदान रहा है। विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध वर्ष 812 से लेकर 1947 तक भारत की अस्मिता के रक्षण हेतु इस  समाज के हजारों लाखों यौद्धाओं ने अपना सर्वस्व बलिदान किया है। जनजातीय समाज की आतंरिक सरंचना ही कुछ इस प्रकार की विलक्षण है कि यह सदैव स्वयं को देश की मिट्टी से जुड़ा हुआ पाता है। इस समाज की प्रत्येक पीढ़ी ने केवल जनजातीय परम्पराओं और राज्यों के लिए ही संघर्ष नहीं किया बल्कि वनों से लेकर नगरीय समाज तक प्रत्येक देशज  तत्व की विदेशियों से रक्षा का कार्य इन्होने किया है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में जनजातीय समाज की अद्भुत गौरवशाली सैन्य, सांस्कृतिक, सामाजिक, कला, नाट्य, वास्तु, खाद्ध्य परंपरा, चित्रकला, शस्त्र विद्या, आपताकाल में कूट शब्दों में संवाद, वनप्रेम, प्रकृति पूजा, पशुप्रेम व आदि जैसे अनेकों अनूठे व विलक्षण गुणों की चर्चा आवश्यक हो जाती है।

इंडीजेनस डे का खंडन करता है बिरसा मुंडा का उलगुलान

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मूलनिवासी दिवस या इंडिजिनस पीपल डे एक भारत मे एक नया षड्यंत्र है। सबसे बड़ी बात यह कि इस षड्यंत्र को जिस जनजातीय समाज के विरुद्ध किया जा रहा  है, उसी जनजातीय समाज के कांधो पर इसकी शोभायमान पालकी भी चतुराई पूर्वक निकाली जा रही है। वस्तुतः प्रतिवर्ष इस दिन यूरोपियन्स और पोप को आठ करोड़ मूल निवासियों का निर्मम नरसंहार करने के लिए क्षमा मांगनी चाहिए। यह दिन यूरोपियन्स के लिए पश्चाताप व क्षमा का दिन है। यह दिन चतुर गोरे ईसाई व्यापारियों द्वारा भोलेभाले जनजातीय समाज को  मार काट करके उनकी भूमि छीन लिए जाने का शर्मनाक दिन है। यूरोपियन्स ने इस दिन को षड़यंत्रपूर्वक उत्सव का दिन बना दिया और आश्चर्य यह कि भारत का वनवासी समाज भी इस कुचक्र में फंस गया है।

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