राष्ट्रीय एकता में योगदान

आर्य समाज ने राष्ट्रीय एकता के लिए जो प्रयास किए इनमें महिला जागरण, पिछड़े क्षेत्रों और आदिवासी क्षेत्रों में प्रचार आदि के अतिरिक्त धार्मिक क्षेत्र में वैचारिक क्रांति लाना भी शामिल था।

राजस्थान के प्रवास में स्वामी दयानंद उन दिनों उदयपुर ठहरे हुए थे। अपने प्रमुख ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का कुछ भाग यहां बैठ कर स्वामी जी लिख रहे थे। महाराणा उदयपुर के आग्रह पर राजमहलों में स्वामी जी के भाषण हो रहे थे। राजमहल की रानियां भी उनके प्रवचनों का लाभ उठा रही थीं। उन दिनों रियासत के दीवान श्री मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या, जो स्वामी जी के साथ छाया की तरह रहते थे, एक दिन स्वामी जी से पूछ बैठे, “महाराज इस देश की एकता कैसे मजबूत हो सकती है?” स्वामी जी बोले, “जब तक एक भाषा, एक धर्म और समाज में सब को एक जैसा सम्मान नहीं मिलेगा तब तक एकता आनी कठिन है।”
अब से 143 वर्ष पहले जब आर्य समाज की स्थापना हुई उसमें भी स्वामी जी ने इसका विशेष ध्यान रखा। वह स्वयं गुजराती थे और उनके अध्ययन का माध्यम संस्कृत भाषा थी। इतने पर भी स्वामी जी ने अपने ग्रंथों और भाषणों की भाषा हिंदी को ही चुना। कई स्थानों पर उन्होंने इसके लिए कहा भी- ‘जब तक किसी राष्ट्र में अभिव्यक्ति का माध्यम कोई एक सशक्त भाषा नहीं होती जिसे सारा देश समझ सके तब तक एकता की चर्चाएं आकाश में ही घूमती रहेंगी।’ इस तथ्य से स्वामी जी भलीभांति परिचित थे। स्वामी जी ने हिंदी के लिए अपने ग्रंथ में आर्य भाषा शब्द का प्रयोग किया है। हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान आदि शब्द तो मुगल काल से चले। उससे पहले जब देश का नाम आर्यावर्त था और उसके निवासी आर्य कहलाते थे तो भला उनके कामकाज की भाषा को आर्य भाषा के अतिरिक्त कहा भी और क्या जा सकता था।
ब्रह्म समाज के एक संस्थापक नेता ने स्वामी दयानंद जी की कलकत्ता यात्रा में एक बार उनसे कहा- ‘कहीं यदि आपने अंग्रेजी पढ़ी होती तो कमाल हो जाता।’ उन्होंने पूछा, ‘वह कौन सा कमाल है जो अंग्रेजी पढ़ने से ही होता है।’ इस पर वह बोले, ‘वेद का जो संदेश आज आप भारत में दे रहे हैं उसे इंग्लैंड, अमेरिका और दूसरे भी उन देशों में फैलाया जा सकता था जिनकी भाषा अंग्रेजी है।’ इस पर ब्रह्म समाज के उस नेता की आत्महीनता पर हंसते हुए स्वामी जी ने कहा-‘मुझसे भी बड़ी एक भूल आपने अपने जीवन में यह कर रखी है जो संस्कृत और हिंदी नहीं जानते। कहीं यदि आप इन दोनों भाषाओं को जानते होते तो हम एक और एक बन कर ग्यारह हो जाते। दोनों मिल कर पहले भारत में इस ज्ञान का प्रकाश करते और बाद में बाहर चलने की सोचते। जिनके अपने घर में कूडा-करकट भरा है वे पड़ौसियों को सफाई के उपदेश कैसे दे सकते हैं?’
आर्य समाज के गुरुकुलों, डी.ए.वी. कॉलेजों और कन्या विद्यालयों में प्रारंभ से ही अध्ययन का माध्यम हिंदी रही है। संस्कृत अतिरिक्त विषय के रूप में पढ़ाई जाती थी और शिक्षा हिंदी में दी जाती थी। गांधी जी ने हिन्दू विश्वविद्यालय के रजत जयंती समारोह में भाषण देते हुए कहा था- जब हरिद्वार के जंगलों में बैठ कर स्वामी श्रद्धानंद हिंदी के माध्यम से गुरुकुलों में विज्ञान, साहित्य और आयुर्वेद की शिक्षा दे सकते हैं तो गंगा के किनारे बैठ कर आप लोग इस बच्चों को टेम्स का पानी क्यों पिला रहे हो? भारत भर में और दूसरे सत्रह देशों में भी जहां आर्य समाज की शाखाएं अथवा संस्थाएं हैं वहां हिंदी का सामान्य ज्ञान और व्यवहार आवश्यक है। आश्चर्य है पराधीन भारत में तो हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में देश के सभी भागों में लोकप्रिय हुई; पर स्वाधीनता के बाद कुछ राज्यों में हिंदी विरोध का राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने जिस धर्म के शुद्ध स्वरूप की रक्षा के लिए आर्य समाज की स्थापना चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1931 तदनुसार 7 अप्रैल, 1875 को मुंबई नगर में की वह कोई संकुचित धर्म नहीं था। जिस धर्म को वह पूरे भारत में और विश्व में फैलाना चाहते थे वह भी सब के लिए समान रूप से ग्राह्य था। भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने पीछे अंग्रेजी के सेक्युलर शब्द का अर्थ जो धर्मनिरक्षेप करते है उन्हें समझाते हुए कहा था- धर्म एक शाश्वत सत्य है जो प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करता है। सेक्युलर शब्द का अर्थ सम्प्रदाय और मतनिरक्षेप तो हो सकता है, धर्मनिरपेक्ष नहीं। सम्प्रदाय और मत व्यक्ति विशेषों और परिस्थितियों की पैदावार होते हैं। धर्म से इनकी तुलना नहीं की जा सकती।
पीछे कुछ शताब्दियां ऐसी भी निकलीं जिनमें धर्म की आड़ में व्यक्तिगत द्वेष, तनाव और उपद्रवों को बहुत प्रश्रय मिला। कुछ स्वार्थी तत्वों ने मिल कर धर्म के असली स्वरूप को ढंक दिया। उन्हें जब और जैसे अनुकूल लगा उसीके अनुसार धर्म की व्याख्या कर ली। जब कहीं उनका विरोध और आलोचना हुई तो उन्होंने वेद का सहारा ले लिया। वेद भगवान का ज्ञान है, वह असत्य नहीं हो सकता यह युक्ति दे दी जाती थी।
गौतम बुद्ध को इसीलिए वेदों के विरुद्ध आवाज उठानी पडी। लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों का सही और युक्तिसंगत अर्थ करके समाज में चल रही उन भ्रांतियों का द़ृढ़ता से निराकरण किया। आर्य समाज के जो दस नियम उन्होंने बनाए हैं वे भी मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी हैं। इनमें कहीं संकुचितपन की झलक देखने को नहीं मिलेगी। यदि कहीं आर्य समाज के कार्यक्रमों में संकुचितपन की कोई गंध मिलेगी तो वह आर्य समाजी कार्यकर्ताओं का अपना दोष तो हो सकता है, स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित आर्य समाज के सिद्धांतों का दोष नहीं कहा जा सकता।
जब स्वामी जी आर्य समाज की स्थापना देश में घूम-घूम कर कर रहे थे उस समय भारत भौगोलिक और भावनात्मक द़ृष्टि से भी अनेकों भागों में विभक्त हो गया था। लगभग 580 तो देशी रियासतें ही थीं जो अपनी अहंमन्यता और विलासिता के चक्कर में मस्त थीं। देश का साठ प्रतिशत से कुछ अधिक भाग जो रियासतों से बाहर था उस पर अंग्रेजों ने आधिपत्य कर रखा था। सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा देने में विदेशी शासन का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। जन्ममूलक जात-पांत और छुआछूत को उभारने में कोई कसर नहीं रखी गई। स्वामी दयानंद ने देखा यदि यही स्थिति इस देश की देर तक चलती रही तो इसके पराधीनता के बंधन भी कड़े हो जाएंंगे और समाज टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त होकर पतन के गर्त में जा गिरेगा।
आर्य समाज ने पिछले 143 वर्षों में जन्मगत जात-पांत को मिटाने और हरिजन समस्या के समाधान में भी पूरी शक्ति लगाई है। यद्यपि यह समस्या समाप्त होने में तो अभी और कुछ समय लेगी क्योंकि इसकी जड़ें बहुत गहरी पहुंच चुकी हैं पर देश ने इसके भयंकर परिणामों को समझना प्रारंभ कर दिया है। आज से कई वर्ष पहले जो काम आर्य समाज इस देश में कर रहा था वह अब सरकार ने भी अपने हाथों में ले लिया है। छुआछूत के इस विष को समाप्त करने के लिए संविधान मेंं स्पष्ट व्यवस्था की गई है। लेकिन आर्य समाज की मान्यता है जब तक जात-पांत को हो मूल से नहीं मिटाया जाएगा तब तक छुआछूत की भावना समाप्त होनी बहुत मुश्किल है। नगरों में तो जरूर इसमें कुछ कमी हुई है पर भारत के 82 प्रतिशत गांव आज भी इस रोग से ग्रस्त हैं।
राष्ट्रीय एकता का जो स्वप्न आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी ने अब से 143 वर्ष पूर्व देखा था कहीं यदि उस समय के शासन ने भी उस समय उनका सहयोग दे दिया होता तो आज देश का चित्र ही दूसरा होता। पर ब्रिटिश शासन का हित तो भारतवासियों को आपस में लड़ाने में ही था। आर्य समाज ने राष्ट्रीय एकता के लिए जो प्रयास किए इनमें महिला जागरण, पिछड़े क्षेत्रों और आदिवासी क्षेत्रों में प्रचार आदि के अतिरिक्त धार्मिक क्षेत्र में वैचारिक क्रांति लाना भी शामिल था।
मुंबई नगर के गिरगांव मुहल्ले में सबसे पहली आर्य समाज बनी। इस आर्य समाज के न्यासियों और दानदाताओं में रहमतुल्ला नाम के मुसलमान भी न्यासी थे। अन्य न्यासियों में न्या. गोविंद रानडे और मुंबई नगर के कुछ दूसरे प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। आर्य समाज के प्रवर्तक का ध्येय सभी सम्प्रदायों में व्याप्त कुरीतियों को दूर कर सच्चे धर्म में आस्था जगाना था। किसी से घृणा पैदा करना नहीं था। एक-दो बार इसके लिए सभी मतों के प्रतिनिधियों को बुला कर उच्चस्तरीय सम्मेलन भी उन्होंने किए। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में चांदपुर नामक स्थान में एक बहुत बड़ा मेला लगता है। स्वामी जी ने इसी तरह का एक सम्मेलन यहां बुलाया था। इसमें मुसलमानों के प्रतिनिधि सर सैयद अहमद खां और ब्रह्म समाज की ओर से केशवचंद्र सेन तथा ईसाइयों की ओर से भी दो प्रतिनिधि पहुंचे। सम्मेलन के प्रमुख विचारणीय विषयों में राष्ट्रीय एकता के लिए धार्मिक संगठनों की भूमिका पर विस्तार से चर्चा चली। ऐसा ही एक सम्मेलन दिल्ली दरबार के समय भी उन्होंने बुलाया था। आर्य समाज को इन विचारों को आगे बढ़ाने में अपनी प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए।
धर्म की आड़ में जो निजी दुकानें खुल रही है उन्हें भी रोकना है और धर्म के उस उदार स्वरूप की भी प्रतिष्ठा करनी है जो सब को साथ लेकर चल सके।

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