भरोसे की लक्ष्मण रेखा

यौन शोषण के ज्यादातर मामलों में दोषी इतना नजदीकी होता है कि बच्चे की बात पर ध्यान ही नहीं दिया जाता या उसे संबंधित व्यक्ति से दूर रहने की सलाह देकर मामले की इतिश्री कर दी जाती है। इससे बच्चे कुंठित हो जाते हैं और हर जगह अपने आपको असुरक्षित मानने लगते हैं।
दुनिया भर के तमाम धर्मग्रंथों तथा वैज्ञानिक शोधों में भले ही लाख विरोधाभास दिखें पर एक बात तो सांकेतिक रूप से हर जगह से उभर कर आती है कि मनुष्य इस धरती का सब से नवीनतम प्राणी है। अगर सनातन धर्म की पुस्तकों तथा वर्तमान ज्ञात विज्ञान की ही बात करें तो जीवों का विकास विभिन्न चरणों से होता हुआ मानव तक पहुंचा है। शायद इसीलिए हमारे अंदर पशुओं के तमाम अवचेतन गुण अथवा दोष पाए जाते हैं। हमने दुनिया भर के जीवों के तमाम गुण-दोषों को लेकर भले ही अपना विकास किया है पर बाकी जीवों ने मनुष्यों द्वारा विकसित गुणों को अपने अंदर आत्मसात नहीं किया है। ठीक उसी प्रकार सदियों से ही मानव ने अपने अंदर के अधिसंख्य पशुवत अवगुणों को निकालने की अनवरत प्रक्रिया जारी रखी है और उन्हें ‘वासना’ नाम देकर निचले पायदान की तरफ धकेला है पर गाहे-बेगाहे वे सभी वासनाएं सिर उठाती रहती हैं तथा मानव जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। ये वासनाएं अल्पसंख्यक सबलों को बहुसंख्यक निर्बलों का शोषण करने के लिए हमेशा से ही प्रेरित करती रहीं हैं तथा समय-समय पर इनके खिलाफ प्रबल शक्ति प्रयोग तथा विरोध होता रहा है। पर शोषणों की श्रृंखला में प्रथम ‘यौन शोषण’ के खिलाफ कभी उस तरह की प्रतिक्रियाएं व लम्बी नाराजगी नहीं देखी गई बल्कि इसे अपने जीवन का एक अभिन्न अंग मान लिया गया है।
कारण साफ है। यौन शोषण के मानक इतने सूक्ष्म होते हैं कि लोग उन्हें समझने तथा शोषण की श्रेणी में रखने के लिए तैयार नहीं होते हैं। यदि आप किसी महिला को ज्यादा देर तक घूरते हैं तो वह शोषण है। किसी छोटे बच्चे (लड़का और लड़की दोनों) को गलत तरीके से या गलत जगह छूना भी यौन शोषण की श्रेणी में आता है। पर हम उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। हमारे संस्कार मानने को तैयार ही नहीं होते कि इतना निकट का रिश्तेदार भी हमारे बच्चे पर अपनी यौन कुदृष्टि रखे हुए हैं। कभी-कभी तो पिता पर भी बच्ची के रेप के आरोप लगे हैं। कुछ वर्ष पूर्व मुंबई के मीरा रोड उपनगर में भी ऐसी ही एक घटना प्रकाश में आई थी जब एक नवयुवती ने अपने पिता द्वारा खुद के तथा दो बहनों के यौन शोषण का अरोप लगाया था। ऐसा नहीं है कि केवल समाज के कुंठित मगज़ के लोग ही इस तरह की भावना रखते हैं बल्कि देश के कर्णधार तथा न्यायालय भी तुगलकी बयान अथवा फरमान जारी कर देते हैं। बीच-बीच में हमारे सुधी राजनेताओं के गैरजिम्मेदार बयान आते ही रहते हैं। उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने तो राज्य में बढ़ती बलात्कार की घटनाओं को ‘बच्चों से गलती हो जाती है!’ कह फूंक मार दी थी। देश की एक अदालत ने भी पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध के प्रति नरम रवैया अपनाने की बात कही थी।
ऐसा नहीं है कि यह धारणा केवल भारत जैसे विकासशील तथा रूढ़िवादी देश के लोगों में है। ‘दुनिया का पहला लोकतांत्रिक देश’ होने का दंभ भरने वाले इंग्लैंड में न्यायालय ने सौतेले पिता द्वारा अल्पवयस्क बच्ची पर किए गए बलात्कार के केस को इसलिए खारिज कर दिया क्योंकि बलात्कार के समय उसकी पत्नी गर्भवती थी अतः उसने अपनी वासना की पूर्ति के लिए सौतेली बच्ची पर हाथ साफ कर लिया। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पर अपनी अधीनस्थ कर्मचारी का यौन शोषण करने के आरोप लगे थे। उस समय भी उस मामले को हल्के में लेने वाले लोगों ने पीड़िता मोनिका लेन्विंस्की पर छींटाकशी की थी कि, ‘चूंकि उसका चेहरा खुरदुरा था इसलिए माननीय राष्ट्रपति ने उसके साथ ऐसा किया।’ यह अलग बात है कि उस मुद्दे को लेकर क्लिंटन पर महाभियोग लगाया गया था तथा उनकी कुर्सी खतरे में पड़ गई थी। पर नतीजा ‘ढाक के तीन पात’ ही रहा। राष्ट्रपति महोदय शान से अपने पद से विदा हुए और मोनिका का मुद्दा पर्दे के पीछे चला गया। यहां तक कि उनकी पत्नी ओबामा सरकार में विदेश मंत्री रही तथा डोनाल्ड ट्रम्प के सामने राष्ट्रपति की उम्मीदवार भी। यह अलग बात है कि तमाम कयासों को धत्ता बताते हुए ट्रम्प ने कुर्सी हथिया ली पर किसी के पास उस लड़की की विवशता तथा उस दौरान हुई शारीरिक तथा मानसिक तकलीफों पर सोचने का वक्त नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति महोदय तो इस मुद्दे को चटखारे लगा कर अपनी आत्मकथा ’माय लाइफ’ में परोस कर अपनी नीरस आत्मकथा को बेस्ट सेलर की श्रेणी का दर्जा भी दिला चुके हैं।
इस तरह के मामलों में सब से खतरनाक है छोटे बच्चों का शोषण। ज्यादातर सामान्य और हल्के कहे जाने वाले मामलों में तो उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि उनके साथ कुछ गलत व खतरनाक किया जा रहा है। अगर कचरा किसी बहुत नजदीकी रिश्तेदार के दिमाग में भरा हो तो स्थिति ज्यादा तकलीफदेह हो जाती है। अलबत्ता तो पता ही नहीं चल पाता कि ऐसी कोई अमानवीय घटना आरोपित की जा रही है। यदि पता चल भी जाए तो लोक लाज के भय से कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हो पाती। ऐसे ज्यादातर मामलों में पीड़ित बच्चे अथवा बच्ची के माता-पिता के पास बहुत ज्यादा ठोस प्रमाण भी नहीं होते, जिनके बिना पर आरोपी को दोषी ठहराया जा सके। हमारे समाज का ताना-बाना भी कुछ इस तरह का है कि प्रथम दृष्टया चाचा, ताऊ, मौसा, फूफा, अध्यापक, चाची, बुआ या चचेरे भाई-बहन जैसे रिश्ते अपराधी या यूं कहें यौन शोषक नहीं लगते जबकि हमें सब से ज्यादा इन्हीं रिश्तों के प्रति सावधान रहना चाहिए। यदि आप लोगों को इन रिश्तों के प्रति आगाह करने की कोशिश करते हैं तो सामने वाले का सपाट सा उत्तर होता है कि, ‘‘फिर हम किस पर भरोसा करें?’’
समाज की यही बहुसंख्यक रीति है कि हम जीवन के हर क्षेत्र में किसी लकीर विशेष का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करने में विश्वास रखते हैं। ऐसे में जब तक इस तरह की कोई गंभीर घटना अपने किसी प्रिय के साथ नहीं घट जाती तब तक हम कछुए की भांति अपने खोल में छिपे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हुए एक मंत्र का जाप करते रहते हैं कि, ‘‘ऐेसे रिश्तेदारों को तो टुकड़े-टुकड़े काट कर फेंक देना चाहिए। ऊपर वाले की कृपा और हमारे पारिवारिक संस्कार हैं कि अपना कोई रिश्तेदार इतना घटिया नहीं है।’’ जबकि आपके बगल में बैठा कोई रिश्तेदार शायद आपके या आपके किसी रिश्तेदार के बच्चे के कोमल मनोभावों को कुचल रहा होता है पर हम कबूतर की तरह आंखें मूंदे गैर चिंता में मशगूल होते हैं।
वर्तमान पीढ़ी द्वारा किए जाने वाले भ्रमण ध्वनि के अतिशय प्रयोग भी घटनाओं की बढ़ोत्तरी में सहायक साबित हो रहे हैं। छोटे बच्चे अश्लील वीडियो देख कर शौकिया तौर पर उनका प्रयोग अपने से छोटी उम्र के बच्चों पर करने लगते हैं जबकि उन्हें उस तथाकथित वासना अथवा गलती के विषय में कुछ पता नहीं होता। इस तरह के केस में ज्यादातर हमारे दिमाग में किसी पुरुष द्वारा किसी महिला या बच्ची का शोषण किए जाने का ख्याल आता है, जबकि वास्तविकता इसके ठीक उलट है। यौन शोषण के मामलों में आधे से ज्यादा मामले लड़कों के साथ होते हैं तथा यौन शोषकों में महिलाओं का प्रतिशत भी कमोबेश पुरुष शोषकों के जितना ही है, खासकर अल्पवयीन बच्चों के खिलाफ होने वाले मामलों में।
मानवाधिकार के क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्था ‘वर्ल्ड विजन इंडिया’ ने कुछ समय पूर्व देश के विभिन्न हिस्सों के ४५,८४४ बच्चों पर सर्वे किया जिसके परिणाम काफी भयावह मिले। सेक्शुअल हैरेसमेंट के इस सर्वे में पता चला कि बारह से अठारह वर्ष के बच्चों में हर दूसरा इसका शिकार है तथा पचीस प्रतिशत से अधिक बच्चों ने अपने साथ हुए यौन शोषण की शिकायत परिवार अथवा माता-पिता से नहीं की जबकि बीस प्रतिशत अपने आपको महफूज नहीं महसूस करते। जाहिर सी बात है, ज्यादातर मामलों में दोषी इतना नजदीकी होता है कि बच्चे की बात पर ध्यान ही नहीं दिया गया होगा या उसे संबंधित व्यक्ति से दूर रहने की सलाह देकर मामले की इतिश्री कर दी गई होगी। इस मामले मेें बच्चा अपने आपको कहीं नहीं सुरक्षित पाता। घर के नजदीकी संबंधी, रास्ते में मिलने वाले लोग, विद्यालय के अध्यापक अथवा कर्मचारी, खेल के मैदान में सीनियर खिलाड़ी; कोई भी हो सकता है। बच्चे के अंदर इतना खौफ भर जाता है कि उसे विद्यालय, खेल के मैदान या सगे संबंधियों के घर किसी खतरनाक जेल से महसूस होते हैं और वहां जाना ‘एक सजा’।
ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे पर गंभीर बात नहीं होती। पर दुर्भाग्य है कि लम्बी नहीं चल पाती और समाज को उस हद तक जगा नहीं पाती, जब हम कह सकें कि समाज की जागृति की वजह से यौन शोषण के मामले पूरी तरह या काफी हद तक समाप्त हो गए। अन्य मामलों की ही तरह किसी बड़ी व गंभीर घटना के घटने पर हम इतने सेंसिटिव तरीके से सजग हो जाते हैं कि हिंसक रुख अख़्तियार कर लेते हैं। कुछ दिनों तक लगता है कि सारे देश की नसों में बहता लोहित उर्ध्वगामी हो मस्तिष्क फाड़ने वाली स्थिति में पहुंच गया है तथा इस बार कोई ठोस फैसला लिए जाने तक यह ज्वार रुकने वाला नहीं है। पर कुछ दिनों के भीतर ही सारा मामला यूं ठप पड़ जाता है कि जैसे कुछ हुआ ही न हो क्योंकि तब तक किसी और तरह का एक अलग ज्वार हमारी नसों को फाड़ने के लिए तैयार हो जाता है ताकि कुछ समय पश्चात् पूर्ववर्ती समस्यापरक घटनाओं की ही भांति पुआल का अलाव बन इतिहास के पन्नों में धूल खाने को विवश हो जाए।
जैसा कि ऊपर संकेत दिया जा चुका है, इस तरह के मामलों में सामाजिक मान्यताओं के उलट लड़के अधिक शिकार बनते हैं। प्रति सौ मामलों में तिरपन मामले लड़कों के साथ जबकि सैंतालिस मामले लड़कियों के साथ होते हैं। इसके प्रमुख कारणों में से एक है, लड़कियों की शिक्षा के प्रति लोगों का कम जागरुक होना। वैसे माता-पिता लड़कियों को लेकर थोड़े सजग भी रहते हैं जबकि लड़कों को जरूरत से ज्यादा खुली छूट देने के अलावा उनका शोषण किए जा सकनेे के प्रति भी उतने ही लापरवाह होते हैं। एक ऐेसे समय में जबकि लड़कियां भी शिक्षा तथा कार्यक्षेत्र में लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ने के लिए आतुर हैं (कुछ क्षेत्रों जैसे परीक्षा फल का प्रतिशत, खेलकूद तथा प्रतियोगी परीक्षाओं में तो कभी-कभी उनसे बेहतर प्रदर्शन भी कर रही हैं) तथा अभिभावक उनकी शिक्षा के प्रति गंभीर हो रहे हैं, लड़कियों के प्रति होने वाली यौन दुर्व्यवहार की घटनाओं का प्रतिशत ब़ढ़ सकता है।
यौन शोषण के मामलों में सब से खतरनाक होता है किसी महिला द्वारा किसी अन्य महिला, पुरुष अथवा बच्चे-बच्ची का शोषण किया जाना क्योंकि आम तौर पर लोगों के दिमाग में यह धारणा बनी होती है कि कोई महिला किसी का, खास कर किसी पुरुष का शोषण कैसे कर सकती है? आम तौर पर किसी पुरुष द्वारा शोषण किए जाने की स्थिति में सबूत अधिक मात्रा में मिलने की संभावना रहती है जबकि महिला के मामले में इनकी संभावना नगण्य हो जाती है।
इनमें भी सब से असमंजस की स्थिति तब बन जाती है जब किसी तेरह वर्ष की वय से अधिक के तरुण के साथ होता है। उस उम्र का बच्चा किसी पुरुष द्वारा शोषण किए जाने की स्थिति में तो समझता है कि उसके साथ गलत हो रहा है, भले वह कतिपय कारणों से अभिभावकों तक अपनी बात पहुंचाने में असमर्थ हो पर यही दुर्व्यवहार किसी महिला द्वारा किए जाने पर उसका कच्चा मस्तिष्क नहीं समझ पाता कि वह किस भंवर में फंस रहा है। ऐसी दुर्घटनाएं बच्चों के बाल मन पर बहुत ही बुरा प्रभाव छोड़ती हैं। बहुत सारे बच्चे उस अवसाद से जीवन पर्यंत नहीं निकल पाते हैं क्योंकि उन्हें कभी पता नहीं चल पाता कि उस दुःस्वप्न से बाहर निकलने के लिए काउंसलिंग भी की जा सकती है।
ज्यादातर मामलों में तो पीड़ित अपने आपको ही जीवन भर दोषी समझता रहता है तथा उस कुंठा के शिकार उसके सगे संबंधी बनते हैं। इस तरह के मामले किसी वर्ग विशेष नहीं बल्कि हर जगह पाए जाते हैं। कुछ दिनों पूर्व गुरुग्राम के एक प्रतिष्ठित विद्यालय में एक विद्यार्थी की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई थी। पहले तो उस मामले में एक बस कंडक्टर की गिरफ्तारी हुई जबकि बाद में उस घटना के तार अध्यापकों तक जुड़ने लगे। फिलहाल मामला सीबीआई के पास है। बालीवुड के एक विख्यात फिल्म निर्माता ने भी स्वीकार किया था कि उनके किसी रिश्तेदार ने बचपन में उनका शोषण किया था। मैं व्यक्तिगत तौर पर उस परिवार के विषय जानता हूं और इस तरह के प्रतिष्ठित परिवार में होने वाली ऐसी घटना उद्वेलित करती है। पर उनके माता-पिता सजग थे तथा उन्होंने अपने बच्चे की काउंसलिंग करवाई तथा भारतीय फिल्म उद्योग को एक बेहतरीन निर्माता-निर्देशक मिल सका। कुछ वर्ष पूर्व मुंबई के गोरेगांव उपनगर में बलात्कार की सजा के आरोपी ने सजा काट कर आने वाले दिन ही एक बच्ची का बलात्कार कर जेल की राह पकड़ ली थी। इस तरह के मनोरोगियों से बच्चों को बचाना बहुत बड़ी चुनौती हो जाती है।
ऐसी किसी भी विकट परिस्थिति के आने पर हमें बहुत धैर्य से काम लेना चाहिए क्योंकि उस समय बच्चे की मानसिक स्थिति काफी गंभीर होती है। ऐसी स्थिति में डांटने पर या किसी प्रकार का दबाव बनाने पर बच्चा आपके प्रति भी अविश्वास भाव से भर जाता है। लड़कियों, खास कर नवतरुणियों के साथ यौनिक दुर्घटना होने पर लोग घर की इज्जत की दुहाइयां देते हुए उन्हें ही पूरी तरह दोषी ठहरा देते हैं, जो सर्वथा गलत है।
हमें पुरानी मानसिकताओं से बाहर निकल कर सोचने की आवश्यकता है। वास्तविकता यही है कि लड़कों की ही भांति उनका मस्तिष्क भी कच्चा ही होता है। उन्हें भी सही-गलत की समझ उतनी ही होती है, जितनी उस उम्र में किसी लड़के में होती है। अतः उन पर गुस्सा निकालने की बजाय प्यार से पेश आना चाहिए तथा दोषी व्यक्ति के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई किए जाने की आवश्यकता है, चाहे वह कितना भी निकटस्थ क्यों न हो! इससे न केवल अन्य गलत लोगों को संदेश जाता है तथा दूसरे पीड़ितों के माता-पिता को बल मिलता है बल्कि आपके बच्चे को भी लगता है कि आप उसके साथ खड़े रहे। आप द्वारा उसके न्याय के लिए किया गया संघर्ष उसे आगे बढ़ने तथा उस दुःस्वप्न से उबरने में मदद करता है। यह तो रही उन बच्चों की बात जो अपने साथ होने वाले अन्याय को बताने में सक्षम हैं पर छोटे बच्चों पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है क्योंकि वे उस दुर्व्यवहार को बताने में असमर्थ होते हैं। उन पर लगातार नजर रखे जाने की आवश्यकता है तथा उनके प्रति दोस्ताना व्यवहार रखते हुए दिन भर की जानकारी लेते रहें ताकि वे अपने साथ होने वाली हर अच्छी-बुरी बात आपसे शेयर कर सकें।

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