उद्योग केंद्रित नीतियों की आवश्यकता

आर्थिक सुधारों की दृष्टि से नोटबंदी, जीएसटी, करवंचना रोकने और कैशलेस लेनदेन बढ़ाने जैसे कठोर उपाय एक ही कालखंड में आए और इससे समाज में हड़बड़ी का माहौल निर्माण हो गया। नए प्रश्न निर्माण हुए। इससे पार पाने के लिए उद्योग केंद्रित नीतियों की आवश्यकता है। औद्योगिक क्षेत्र में स्वस्थ स्पर्धा, विश्वास का माहौल और प्रशासनिक संस्कृति का निर्माण हो तो इन समस्याओं से निपटा जा सकेगा।
किसी भी समाज की सम्पन्नता में उद्योगों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। व्यवसायी समाज की आवश्यकता को पहचान कर उसे पूरा करने के लिए उद्योगों की शुरुआत करता है। इसके लिए औद्योगिक प्रतिभा की आवश्यकता होती है। समाज में अनेक तरह की आवश्यकताएं होती हैं। रोटी, कपड़ा, मकान, जल से लेकर बौद्धिक, कलात्मक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं तक सभी कुछ इसकी श्रेणी में आता है। किसी व्यवसायी के लिए केवल समाज की आवश्यकता जानना काफी नहीं है। उस आवश्यकता को पूरा करने के लिए किन साधनों की जरूरत होगी, वे कहां से प्राप्त होंगे, किस प्रकार के मानव संसाधनों की आवश्यकता होगी, इत्यादि सभी बातों का विचार भी करना होता है। इन सभी के साथ उसे आर्थिक स्रोतों की ओर भी ध्यान देना होता है। उपरोक्त सभी का उपयुक्त नियोजन करने के बाद जब माल तैयार होता है तो उसे बाजार में बेचने के लिए उसकी कीमत तय करने, आकर्षक पैकेजिंग तैयार करने का भी विचार करना होता है। इन सारी बातों का विचार व्यवसायी को कानून के दायरे में रहकर करना होता है। इतना सब करने के बाद उसे हर तरह का नुकसान उठाने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। ग्राहकों के पास अनेक विकल्प मौजूद होते हैं लेकिन व्यवसायी को साधन, सामग्री और तकनीक हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। निवेश पर ब्याज देना पड़ता है। फायदा हो या नुकसान सरकार को कर देना ही पड़ता है। अगर बाजार में उसका माल नहीं बिकता है तो सारी जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए दीवालिया भी होना पड़ता है। उसे समाज की टीका टिप्पणियों, अरोपों को भी सहन करना पड़ता है।
ऐहिक प्रगति में व्यवसायियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। व्यवसायी न हों तो समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होगी। समाज में सम्पत्ति का निर्माण नहीं होगा, रोजगार का निर्माण नहीं होगा। अगर उद्योग नहीं होंगे तो सरकार को कर भी नहीं मिलेंगे। व्यवसायी समाज का ऐहिक व्यवहार चलाते हैं। फिर भी उन्हें आवश्यक श्रेय नहीं दिया जाता।
साहित्य, कला, क्रीड़ा यहां तक कि आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रमुखों को जो मान-सम्मान मिलता है, वह व्यवसायियों को कम ही मिलता है। समाज में यह भावना होती है कि व्यवसायी सब कुछ अपने स्वार्थ के लिए ही करता है। जिस प्रकार अगर शरीर में खून की कमी होती है तो व्यक्ति सक्षम ढंग से कार्य नहीं कर सकता, उसी प्रकार अगर व्यवसाय में फायदा नहीं हुआ तो धन के अभाव में व्यवसाय बंद पड़ जाते हैं। अत: हर व्यवसायी का यह मूलभूत कर्तव्य है कि वह ध्यान रखें कि उसे व्यवसाय में फायदा हो। किसी भी बात का अतिरेक नुकसानदायक होता है। व्यवसायी भी अधिक फायदे के लिए ग्राहक, मजदूर और प्राकृतिक साधनों का शोषण करना शुरू कर देता है, साथ ही कर न भर कर सरकार और समाज को लूटना भी प्रारंभ कर देता है। इन कारणों की वजह से व्यवसायियों की प्रतिमा समाज में सार्वजनिक शोषण करने वाले की हो गई है।
आज भारत की अर्थव्यवस्था सुस्थिति में नहीं है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि निजी निवेशकों का अपने निवेश पर विश्वास नहीं है। इसके कई कारण हैं, बैंकों में कई बड़ी-बड़ी कंपनियों के डूबत ॠण होने के कारण उन्हें नए निवेश के लिए धन नहीं मिल पाता। भारत में अगर किसी को उद्योग शुरू करना हो तो उसे इतनी सारी सरकारी माथापच्ची करनी होती है कि वह व्यवसाय करने का अपना उत्साह खो देता है। सरकार की नीतियां तो अनिश्चित हैं ही, न्यायालयीन सक्रियता के कारण व्यवसायियों के सामने नए तथा अनपेक्षित प्रश्न खड़े हो रहे हैं। गोवा के खदान उद्योग पर जब न्यायालय ने प्रतिबंध लगाया तो अनेक उद्योगों का दीवाला निकल गया, जबकि उनका कोई दोष नहीं था। शराब पीने की सुविधा देने वाले बार चलाए जाएं या नहीं यह नैतिक दृष्टि से अलग चर्चा का विषय है परंतु लाइसेंस देने के बाद हायवे के ५०० मी. के परिसर में सभी बार बंद करने का निर्णय उसमें निवेश करने वाले व्यावसायिकों की दृष्टि से दीवालिया हो जाने वाला है। इस तरह के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।
जब भारत को स्वतंत्रता मिली तब सारी दुनिया में समाजवादी विचारों का प्रभाव था जिसके कारण निजी उद्योगों की ओर खलनायक की दृष्टि से देखा जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि नए उद्योगों को प्रोत्साहन मिलने की जगह उन पर बंधन डाले गए। कुछ क्षेत्र केवल सरकारी उद्योगों के लिए रखे गए। इसका परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता के पूर्व में जिन मुट्ठी भर औद्योगिक घरानों का प्रभाव था उन्होंने ही सरकार में अपने संबंधों का उपयोग करके अपना आर्थिक सम्राज्य कायम रखा। उद्योगों का स्पर्धात्मक वातावरण खत्म हो गया। निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में उद्योगों का एकाधिकार बढ़ गया। जब प्रतियोगिता खत्म हो जाती है और इस तरह एकाधिकार निर्माण होता है तब कार्य क्षमता को बढ़ावा मिलने की जगह सभी घटकों का शोषण करके फायदा बढ़ाने की ओर ही उद्योगपतियों का ध्यान होता है। इसके लिए उन्हें कृत्रिम बाजार का निर्माण करना होता है। समाजवादी नीतियों के कारण भारत में इसी प्रकार की घटनाएं घटती गईं और भारतीय उद्योगों के विकास की गति कुंठित हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत की आर्थिक प्रगति की गति धीमी पड़ गई।
सन १९९० के बाद भारत में निजी उद्योगों को प्रोत्साहन देने की नीतियां बनाई गईं। परंतु चूंकि वैश्वीकरण के साथ ही यह क्रिया हुई थी अतः विकसित न हुए उद्योगों को भी वैश्विक स्पर्धा में उतरना पड़ा। साथ ही समाजवादी अर्थव्यवस्था में राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की परंपरा कायम रहने के कारण इस भ्रष्ट परंपरा के आधार पर निर्मित हुए नए उद्योगों का एक वर्ग तैयार हुआ। साथ ही खुद की हिम्मत पर खड़ा हुआ ईमानदार तथा कार्यसक्षम उद्योगों का भी एक वर्ग तैयार हुआ। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद उद्योगों की साफसफाई करने का निर्णय किया और उसके अनुसार कई कठोर निर्णय भी लिए। नोटबंदी, आयकर तथा अन्य करों की कठोर जांच, बेनामी संपत्ति, कर चोरी रोकने के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता, सोशल मीडिया पर ध्यान रखना, अधिक खर्च करने वाले लोगों की जांच करना, जैसी अनेक नीतियों पर अमल करना शुरू हुआ।
समाज में कैश पर चलने वाले लेनदेन कम कर डिजिटल लेनदेन बढ़ाने की दृष्टि से भी सरकार प्रयत्नशील है। परंतु इन सब में जिस तरह गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है उसी प्रकार खराब उद्योगों के साथ ही अच्छे उद्योगों पर भी इसका असर हुआ है।
सभी संभावित खतरों को ध्यान में रखते हुए उद्योगपतियों को निवेश करना पड़ता है। अतः प्रचलित व्यवस्था में टिके रहने के लिए लगभग सभी उद्योगपतियों को किसी न किसी प्रकार का समझौता करना पड़ता है। इन सब की व्यावहारिकता को ध्यान में रख कर अगर सभी के साथ एक तरह से व्यवहार किया गया तो उद्योगों की दृष्टि से निरुत्साही वातावरण तैयार होगा।
भारत में कैश पर चलने वाली अर्थव्यवस्था का क्षेत्र बहुत बड़ा है। उसमें अनेक व्यवसायों को अवसर मिलता है। वैकल्पिक व्यवस्था किए बिना अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का संकुचन करना अनेक उद्योगों पर असर करने वाला होगा। इसके साथ ही सभी उद्योगों को एक सूत्र में बांधने वाला जीएसटी जैसा कानून सरकार ले आई है यह अच्छी बात है। परंतु उसके लिए आवश्यक पूर्व तैयारी न किए जाने के कारण उद्योगों के सामने कुछ नए प्रश्नों का निर्माण हो गया है और यह सभी एक ही कालखंड में घटित हुआ है।
वास्तविक रूप से नए उद्योगपतियों पर विश्वास रख कर व्यावसायिक क्षेत्र में स्वस्थ प्रतियोगिता निर्मित हो तथा किसी का भी एकाधिकार ना हो इस तरह की नियमावली है तथा प्रशासनिक संस्कृति का निर्माण अगर हुआ तो ही इस तरह की आर्थिक समस्याओं से बाहर निकला जा सकेगा। भले ही उच्च राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार कम हो गया हो फिर भी जब तक उद्योगपतियों को अपने निवेश पर विश्वास नहीं होगा तब तक भारत में वास्तविक रूप से आर्थिक विकास नहीं हो पाएगा। अगर उद्योगों का विकास होगा तो ही रोजगार बढ़ेगा। सेवा क्षेत्र का विकास होगा। सरकार को भी अधिक कर प्राप्त होगा जिससे निवेश बढ़ाने में मदद होगी। इसके लिए आवश्यक है कि केवल प्रतिबंधात्मक कानूनों के बजाय सकारात्मक कदम उठाए जाएं। ब्याज दरों को कम करना इसका एक भाग है परंतु इस से भी अधिक कुछ करना आवश्यक है।

Leave a Reply